सोमवार, 17 जून 2024

विवाहविमुख होता भारतीय समाज

            दार्शनिकों की भाषा में सृष्टि की गति बुलबुले की तरह है। बुलबुले बनते हैं, फूटते हैं। यह ब्रह्माण्डीय संकुचन-विमोचनयुक्त स्पंदन है। सृष्टि की यही गति सर्वत्र दिखायी देती है, द्रव्य-गुण-कर्म तीनों में। इसीलिए जब विवाह विमुख होते भारतीय समाज की चर्चा होती है तो हम व्यवस्था के एक बुलबुले को फूटता हुआ देखते हैं।

आदिम समाज में विवाह नहीं होते थे, बुलबुले का द्रव्य बिखरा हुआ था। बिखराव समाप्त हुआ तो स्थायी सम्बंधों की एक व्यवस्थित स्थिति तक स्त्री-पुरुष सम्बंधों के बुलबुले विस्तारित हुये। भारतीय समाज में विवाह का बुलबुला अब फूट रहा है, पश्चिमी समाज में विवाह के बुलबुले बन रहे हैं। विभिन्न समाजों में संकुचन और विमोचन की किसी न किसी स्थिति में यह स्पंदन बना ही रहेगा।

बुलबुलों को उनकी हर स्थिति में स्वीकार करना ही होगा, चाहे वह निर्माण की स्थिति हो या फूटने की। भारतीय लड़के-लड़कियों में लिव-इन-रिलेशनशिप के प्रति बढ़ते आकर्षण ने बहुतों को चिंतित किया है। पश्चिमी जगत में विवाह के प्रति युवकों-युवतियों में बढ़ते आकर्षण ने सृष्टि की स्पंदनीय व्यवस्था के प्रति भारतीय दर्शन के दृष्टिकोण की विश्वसनीयता को बनाये रखा है।

शोपेन हॉर की विवाहमुक्त समाज व्यवस्था का मैं भी आलोचक रहा हूँ, आज भी हूँ, सदा रहूँगा। यह आलोचना ही वह पोटेंशियल शक्ति है जो फूट चुके बुलबुले के द्रव्य को एक बार फिर समेटकर नये बुलबुले की सृष्टि का मार्ग प्रशस्त करेगी।

पिछले दिनों एक ऐसा प्रकरण सामने आया जिसमें पति-पत्नी ने संतानोत्पादन को स्वतंत्र जीवनयापन में एक अनावश्यक बाधा के रूप में स्वीकार किया। उन्हें संतान नहीं चाहिये, कभी नहीं, वे वंशहीन होना चाहते हैं।

भारतीय समाज में वंशहीन होना किसी श्राप से कम नहीं माना जाता, आज लोग उसे स्वेच्छापूर्वक अपनाकर हर्षित हो रहे हैं। पाप-पुण्य की प्रासंगिकता अपने अर्थ और उद्देश्य का आदान-प्रदान कर रही है। हमारे लक्ष्य और मार्ग परिवर्तित हो रहे हैं। लड़कियों के कपड़े छोटे से छोटे होते जा रहे हैं, उन्मुक्तता और स्वेच्छाचारिता ने आदर्श जीवनशैली का स्थान ले लिया है। लड़कियाँ अपने माता-पिता के अनुशासन से मुक्त हैं, विवाहपूर्व यौनसम्बंध को अब अवांछनीय नहीं माना जाता। क्या हम एक बार पुनः आदिम जीवनशैली की ओर बढ़ चले हैं! विश्व में कई समाज ऐसे हैं जो आज भी आदिमशैली का ही जीवन जीने में विश्वास रखते हैं।    

भारतीय समाजव्यवस्था विश्व की सर्वश्रेष्ठ समाजव्यवस्थाओं में से एक रही है, जहाँ व्यष्टि से समष्टि तक के सभी विषयों पर गहन चिंतन के बाद उसे व्यवस्थित रूप दिया जाता रहा है। आज हम अपने बुलबुले को फूटता हुआ देख रहे हैं। यह दुःखद है, पर यही तो स्पंदन का एक छोर है, समय आने पर हम पुनः सुसभ्य और सुसंस्कृत होंगे, तब तक के लिए हमें बुलबुले के द्रव्य को बिखरते हुये देखना ही होगा।

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