अयोध्या के चुनाव परिणामों ने पूरे देश की जनता को व्यथित किया है, इसलिये इस पर लीपापोती की आवश्यकता नहीं है। यह भाजपा की पराजय या सपा के प्रत्याशी की विजय नहीं बल्कि सिद्धांतों की पराजय है जबकि कुछ लोग इस मैटर को डायल्यूट कर रहे हैं –
1-
अयोध्या से भाजपा की पराजय नहीं हुयी, फ़ैज़ाबाद लोकसभा क्षेत्र से हुयी है।
2-
भितरघात के लिए अयोध्यावासियों का बहिष्कार और उन्हें अपशब्द
कहना दुर्भावनापूर्ण है।
3-
अयोध्या प्रकरण को उछालने वाले वामपंथी हैं।
4- लल्लू सिंह एक अयोग्य प्रत्याशी थे जिसके कारण उनका हारना आवश्यक था।
अब इन चारो
डायल्यूशन्स का बिंदुवार उत्तर भी समझ लीजिये –
1-
भारतीय जनमानस की दृष्टि में अयोध्या के आसपास चौरासी कोस तक का
क्षेत्र अयोध्या ही है। आज जिसे आप फ़ैज़ाबाद कह रहे हैं कल उसका नाम अयोध्या लोकसभा
क्षेत्र भी हो सकता है। ठीक है, अयोध्या उसका एक भाग है, किंतु यह निर्धारण किसने किया? हम अपनी प्राचीनता की ओर लौटने का प्रयास कर रहे हैं और आप अभी
तक फ़ैज़ाबाद से ही चिपके हुये हैं। जब चारो ओर अयोध्या की बात हो रही है तो बीच में
फ़ैज़ाबाद को लाना उस मानसिकता का प्रतीक है जो हर स्थिति में इस्लामिक प्रतीकों को
जीवित बनाये रखना चाहती है।
2-
आप मानते हैं कि चुनाव में भितरघात हुआ है पर अयोध्यावासी
निर्दोष हैं। यह उतना ही सत्य है जितना यह कि सुरक्षाबलों की मुठभेड़ में मारे जाने
वाले लोग आतंकवादी या माओवादी नहीं बल्कि निर्दोष सामान्य नागरिक होते हैं। हम
मानते हैं कि अयोध्या नगर के कयी लोगों ने भाजपा के पक्ष में मतदान किया होगा तो
कयी लोगों ने विपक्ष में भी किया होगा। बात यह है ही नहीं, बात तो उन प्रतीकों की थी जिन्हें पुनर्स्थापित करने के लिए
शताब्दियों तक संघर्ष किया गया। अयोध्या, वाराणसी और मथुरा के चुनाव भारतीय आदर्शों, मूल्यों और सनातन परम्परा के चुनाव हुआ करते हैं, इन्हें अन्य चुनावी क्षेत्रों की तरह स्वीकार नहीं किया जा
सकता। वामपंथी अतिविद्वानों के अनुसार यह एक “ख़तरनाक हिन्दुत्ववादी सोच और
धर्मनिरपेक्षता का हिन्दूवादी घातक स्वरूप” हो सकता है। वे कुछ भी आरोप लगाते रहें, किंतु मैं व्यक्तिगत रूप से अयोध्या, काशी, मथुरा और सोमनाथ को सनातनी
सहिष्णुता और सर्वस्वीकार्यता के मूल्यों के प्रतीक मानता रहा हूँ, मानता रहूँगा। जहाँ तक लांछना की बात है तो प्रेम जितना गहरा
होगा, अपेक्षायें जितनी स्पष्ट होंगी, विश्वासघात होने पर प्रतिक्रिया भी उतनी ही तीक्ष्ण होगी। यह
स्वाभाविक है, होना भी चाहिए। प्रतिक्रिया का
न होना, क्रिया की स्वीकार्यता का
द्योतक है।
3-
वास्तव में, अयोध्या प्रकरण पर आई
प्रतिक्रियाओं को वामपंथी कहने वाले प्रतिक्रियावादी स्वयं ही वामपंथी हैं जो
अवांछित कृत्यों को भी वांछनीय सिद्ध करने का प्रयास करते हैं। भारतीय परम्परा तो
आलोचना, समालोचना, विमर्श, संभाषा और परिमार्जन की रही
है। हम वैदिक साहित्य पर भी विमर्श और संभाषा करते हैं, अपने धर्म पर भी, और अपनी परम्पराओं पर भी, यही कारण है कि हम अभी तक जीवित हैं और समाज में कालक्रम से आने
वाली विकृतियों का परिहार करने में सक्षम हो पाते हैं। अयोध्यावासी मज़हबी नबी नहीं
हैं जिनकी आलोचना नहीं की जा सकती। आलोचना और प्रशंसा तो श्रीराम की भी हुयी और रावण की भी। यह आवश्यक है, भारत के लिये, आर्यावर्त के लिए, भारतीय मूल्यों की रक्षा के लिये और अवांछनीय पुनरावृत्तियों को
रोकने के लिये।
4- हम भाजपा प्रत्याशी को नहीं जानते, हो सकता है कि वे अयोग्य प्रत्याशी रहे हों किंतु क्या सपा का प्रत्याशी ही उसका उचित विकल्प था? क्या नोटा पर बटन नहीं दबाया जा सकता था? मतदान से पहले आपने आपस में चर्चा तो की होगी कि वोट किसे और क्यों दिया जाय, तब यह क्यों नहीं सोचा कि नोटा भी एक विकल्प हो सकता है? आपने उन अवमूल्यों को अपना ‘मत’ देना उचित समझा जो सनातन मूल्यों के विरुद्ध सदा खड़े रहे, जो भारत की प्राचीन पहचान पर इस्लामिक पहचान को आरोपित करने के पक्ष में सदा खड़े रहे, जो हिन्दुत्व को समाप्त कर इस्लामिक सभ्यता को भारत में फलता-फूलता देखना चाहते हैं, जो भारत को भारत नहीं बल्कि पाकिस्तान बना देने का स्वप्न देखते हैं।
काश! भारत
के लोग योग्य-अयोग्य प्रत्याशी की पहचान कर पाते तो अमृतपाल सिंह और अब्दुल राशिद जैसे
विभाजनकारी लोग सांसद नहीं बन पाते!
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