बुधवार, 13 अप्रैल 2011

मेरी हिमालय यात्रा

     जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी.........पर मैं प्रभु की मूरत नहीं देख सका अभी तक. क्या करूँ ...चाहता तो हूँ देखना .....पर न जाने क्यों मैं सदा ही काँटों में उलझ जाता रहा हूँ ....कदाचित भावना ही उस स्तर की नहीं बना सका कभी. कई वर्ष पहले गंगोत्री यात्रा पर गया था. आज उसी के संस्मरण प्रस्तुत हैं आप सबके लिए.  आज से दो-चार दिन के लिए घने जंगल में जा रहा हूँ लौटकर भेंट होगी तब तक आप लोग देखिये हिमालय के ये कुछ दृश्य   


प्रस्थान .......दक्षिण से उत्तर की ओर 
        
        हिमालय ने मुझे सदा ही अपनी ओर आकर्षित किया है तथापि कई कारणों से कभी हरिद्वार से आगे नहीं जा सका. पर इस बार बस्तर के कुछ लोगों के आग्रह पर कार्यक्रम बनाना ही पडा. जाने वाले लोगों के दल में कई लोग ऐसे भी थे जिन्होंने कभी रेलयात्रा नहीं की थी. यह उनके जीवन का प्रथम अवसर था जब वे रेलयात्रा करने वाले थे. निश्चित ही इसकी कल्पना भी उनके लिए किसी रोमांच से कम नहीं थी. 
   मई की तपती धूप में छत्तीसगढ़ के दक्षिणी छोर से उत्तरांचल की यात्रा कोई सहज न थी किन्तु हिमालय के दिव्य आकर्षण ने हम सभी को मार्ग की भीषण ग्रीष्म की उपेक्षा करने को बाध्य कर दिया था. छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस जब सहारनपुर पहुँची तब रात के दो बज रहे थे. स्टेशन पर हवा अपेक्षाकृत शीतल थी और सभी लोगों की आँखें नींद से बोझिल थीं. साथ के कुछ लोग तो स्टेशन पर ही सो गए, कुछ इधर-उधर चहल कदमी करने लगे. तभी मेरी दृष्टि उस दिन के ताजे-ताजे आये समाचार पत्र पर पडी. मुखपृष्ठ पर ही एक अशुभ समाचार पढ़ने को मिला. रात में सहारनपुर के एक धार्मिक स्थल में कुछ अराजक तत्वों ने बम विस्फोट कर दिया था. पढ़कर मुझे लगा कहीं गोधरा की लपटें यहाँ भी तो नहीं पहुँच गयीं ? क्लांत मन को हिमालय की सुरम्य गोद में कुछ देर के लिए सौंप देने घर से निकला था पर मन अनायास ही और भी क्लांत हो गया. मैं चिंतित हो उठा, सुबह होते-होते कहीं पूरा शहर ही साम्प्रदायिक हिंसा की आग में न जलने लगे. मुझे जयपुर की उस साम्प्रदायिक घटना का स्मरण हो आया जिसके कारण मात्र तीसरे दिन ही अपने सारे भ्रमण कार्यक्रम स्थगित कर मुझे शहर छोड़ना पडा था. होटल की गाड़ी ने रात में ही पुलिस के संरक्षण में हमें रेलवे स्टेशन तक पहुँचा कर अपने हाल पर जीने मरने के लिए छोड़ दिया था. 
   मैंने साथ के लोगों से चर्चा की पर कदाचित ऐसी किसी स्थिति का पहले कभी सामना न होने के कारण वे सब निस्पृह से लगे. यात्रा का सच्चा आनंद तो वे ही ले रहे थे और मुझे उनके साथ के बच्चों की चिंता खाए जा रही थी. यह वह समय था जब गोधराकाण्ड की लपटें अभी पूरी तरह ठंडी भी नहीं पड़ी थीं. खैर, भोर होते ही सब को नींद से जगा कर हमने हरिद्वार की ओर प्रस्थान किया.      


 धर्म क्षेत्रे ...तीर्थ क्षेत्रे  -


    आज हम ऋषिकेश में थे. सूर्यदेव अस्ताचल को जा चुके थे. गंगा के घाट पर श्रद्धालुगण पुष्प-दीप लेकर संध्या की आरती की प्रतीक्षा कर रहे थे. ऐसा ही एक दृश्य कल हरि की पौड़ी पर भी देखा था. पत्तों की लघु नौकाओं पर प्रज्ज्वलित दीपों की गंगायात्रा का मनोहारी दृश्य ......एक साथ अनेकों दीपनौकाओं की गंगायात्रा .....प्रज्ज्वलित दीपों का जल में पड़ती अपनी-अपनी छायाओं के साथ यात्रा का अनोखा दृश्य.......
मैं देख रहा था - परस्पर होड़ सी लगा रही दीपनौकाओं का परस्पर टकराना, टकराकर किसी का आगे निकल जाना...किसी का जल-समाधि ले लेना. जीवन की प्रतियोगिता, कामनाओं की सफलता की प्रतियोगिता .............दृश्य मुझे जाने-पहचाने से  ...प्रतिबिम्ब से लग रहे थे .
      थोड़ी ही देर में आरती का कार्य संपन्न हो गया. हम वापस लौटने लगे तभी कान में वाकयुद्ध की कर्कश ध्वनियाँ टकरायीं. घाट पर कुछ ऊपर चढ़कर देखा, एक घने वृक्ष के नीचे साधुओं का जमघट था जहाँ से ये कर्कश ध्वनियाँ आ रही थीं. एक सत्रह-अठारह वर्ष की लड़की के साथ एक पैंतीस की आयु का गेरुआ वस्त्रधारी साधु वाक् युद्ध कर रहा था. मैंने ध्यान से देखा, इकहरे बदन की वह विवाहिता लड़की युद्धक्षेत्र में मोर्चे पर अकेली ही थी. जबकि प्रतिपक्षी के साथ था पूरा अखाड़ा. साधु उसे बारबार धमका कर भगाने की चेष्टा कर रहा था जबकि लड़की उसे बराबर कोसे जा रही थी. अचानक साधु उठकर खडा हो गया और लड़की की ओर बाहें फटकारते हुए , नारी गुप्तांगों के वर्णन के साथ उसे अश्लील गालियाँ देने लगा. उस तीर्थ क्षेत्र में बाहर से आये श्रृद्धालुओं के लिए ऐसा दृश्य अपूर्व था ...सब चकित होकर देख रहे थे. स्थानीय लोगों के लिए यह मनोरंजन का   कार्यक्रम था. हरि का द्वार मुझे साक्षात असुर द्वार लगने लगा था ......कुछ समय पूर्व आयी दिव्यत्व की अनुभूति पूरी तरह तिरोहित हो गयी.
      तीर्थयात्रियों की भीड़ चारो ओर से मधुमखियों की तरह खिंचकर वहाँ जमा होने लगी. साधु अब तक हिंसक हो उठा था ...लोग किसी मनोरंजक दृश्य की प्रतीक्षा में थे. मैं पशोपेश में था ........लोगों की तमाशाई वृत्ति से मेरा क्रोध भड़क रहा था. मैं कुछ समझ पाता इससे पूर्व ही नपुंसक युद्ध-दर्शकों के बीच से एक वयोवृद्ध ने आगे बढ़कर लड़की को वहां से चले जाने की समझाइश दी. लड़की भी जैसे किसी बहाने की तलाश में थी ......युद्ध भीषण हो पाता इससे पूर्व ही छंटने के आसार दिखाई देने लगे.  उस धर्म-क्षेत्र में इतनी भीड़ के बीच एक मनुष्य को पाकर मैंने किंचित राहत की साँस ली. तभी साधु का प्रायः दस-बारह वर्ष का पुत्र जो किसी आनंददायी दृश्य की कल्पना में खोया था ...उत्तेजित होकर अपने "पापा" को संबोधित कर बोला - " अब साली बाहर जहाँ कहीं मुझे दिखेगी ...साली को डंडे मार-मार के अधमरा कर दूँगा........"
        साधु ने बड़े संतोष के साथ अपने वीर पुत्र की ओर देखा ..जैसे कह रहा हो ....."जियो मेरे लाल ! तुमसे यही आशा थी " 
        मेरा मन वितृष्णा से भर उठा. आगे बढ़कर वयोवृद्ध, जो कि उस भीड़ में एक मात्र मनुष्य था, का साथ देते हुए मैंने भी लड़की को वहाँ से चले जाने में ही उसकी भलाई की समझाइश दी. किसी अनजान से मिली तनिक सी सहानुभूति से लड़की का गला भर आया, मुझसे साधु की शिकायत करने लगी कि कैसे उसने उस अनाथ लड़की की भूमि जबरन हड़प कर वहाँ अपना अच्छा सा पक्का मकान बनवा लिया है.
       हम लोग साथ-साथ चलने लगे . ऊपर की सीढ़ियाँ समाप्त होते ही सड़क के किनारे हाल ही में बना एक अच्छा सा मकान था. लड़की ने उसी की ओर अंगुली से संकेत कर बताया कि यह उसकी पैतृक भूमि थी जिस पर साधु ने अपना भव्य निवास बनवा लिया था. साधु का भव्य आवास देख कर मैं उसकी आय का अनुमान लगाने लगा . तभी एक सिंधी महिला उधर से निकली और लड़की को हम लोगों के साथ बात करते देख प्रसंग को समझ कर लड़की के समर्थन में उसकी बात की पुष्टि करने लगी . उसने जो बताया उसका आशय यह था कि साधु  अपराधी वृत्ति का व्यक्ति है , मोहल्ले में आतंक फैलाता है और कई बार जेल की यात्रा कर चुका है . 
       कई वर्ष पूर्व ऋषिकेश में एक स्थान पर गंदे ट्रकों का गंगा-स्नान देखा था. समीप ही थोड़ा आगे बढकर झोपड़-पट्टियों से निकलने वाले अपवर्ज्य पदार्थ का भी गंगा में सतत विसर्जन होते देखा था . तब भी गंगा के प्रति लोगों की दुष्टतापूर्ण निष्ठुरता एवं स्थानीय प्रशासन की लोकघाती उदासीनता से मन खिन्न हो गया था ...और आज इतने वर्षों के पश्चात गंगा के पावन तट पर, वह भी ऋषिकेश में ...इतनी भीड़ के सामने निर्लज्ज साधु द्वारा अनाथ लड़की पर अश्लील गालियों की बौछार एवं भीड़ की तमाशाई मनोवृत्ति तथा आधुनिक समाज में सहज संवेदना-करुणा के अभाव ने  मन को एक बार फिर दुखी कर दिया. मैं सोचने पर विवश हो गया ......पंचायती राज का सपना क्या ऐसी ही भीड़ के हाथों में सौंपकर पूरा हो सकेगा ?  जन साधारण को राज का अधिकार सौंपकर किस न्याय और व्यवस्था की आशा की जा रही है ? जनता यदि इतनी ही आत्मानुशासित होती तो शासनमुक्त समाज न बन गया होता !


झरने सी झरती निर्मल हंसी -  


        ऋषिकेश से आगे की पूरी यात्रा में हिमालय की उच्च पर्वत-श्रेणियों, हरी-भरी घाटियों, पार्श्व में बहती पवित्र जलधारा और चीड़ के वृक्षों ने मुझे बराबर लुभाए रखा. हिमालय का दिव्यत्व प्रकट होने लगा था . मन से ऋषिकेश का विषाद धीरे-धीरे छटने लगा. 
      हिमालय ने भारत को बहुत कुछ दिया है ....हम ऋणी हैं देव स्थान हिमालय के . मुझे तो वहाँ के कण-कण में जीवन-दर्शन दिखाई दे रहा था . ......चाहे वह हिमालय का सर्पीला मार्ग हो .......हिमाच्छादित उच्च शिखर हों ....... लम्बे-लम्बे वृक्ष हों ......कठोर शिलाएं हों ........दुर्गमता हो ........वहाँ के लोगों के जीवन की कठिनाइयाँ हों ........वहाँ का सूर्योदय हो ....सूर्यास्त हो ....वहाँ का सब कुछ दर्शन की दिव्यता से ओतप्रोत था.
      मैं प्रकृति के रहस्यमय सौंदर्य में डूबा हुआ था कि तभी एक झटके के साथ यथार्थ के रूक्ष पटल पर आ गया. हिमालय के घुमावदार सर्पीले मार्ग पर गाडी में ही कुछ सहयात्रियों को वमन होने लगा था. उनके पास बैठी  इज़्राइली लड़की ने चिल्लाकर गाड़ी रुकवाई. 
     वमन पीड़ितों की सामान्य सेवा सुश्रुषा के पश्चात साथ के लोग निकट के ढाबे में विश्राम करने लगे. कुछ लोग इधर-उधर चहल कदमी करने लगे. सड़क पर टहलते-टहलते इज़्राइली  लडकी से मेरी चर्चा होने लगी. अचानक मैंने पूछ दिया -" यासर अराफात को एक शांतिप्रिय नेता के रूप में प्रचारित किया गया है ...आपके क्या विचार हैं ?"
      लड़की ने अजीब  सा मुंह बनाकर कोई भी टिप्पणी करने से मना कर दिया. फिर किंचित दुखी हो कर बोली -"हालात बहुत खराब हैं ......क्या आप एरियेल शेरोन को नहीं जानते ? ........यासर ....अरा.....फ़ात ......."
      उसने फिर कडुआ सा मुंह बनाया. वह रुक-रुक कर बोल रही थी. मैं उसके प्रश्न से अचकचा गया, बोला -"हाँ, क्यों नहीं...किन्तु मैं वर्त्तमान सन्दर्भ में यासर अराफात के बारे में आपकी प्रतिक्रिया जानना चाहता हूँ" . लड़की एक बार फिर बुदबुदाई -"या.....स.....र .......अ...रा....फा...त... केवल खुराफात ......." और फिर चुप हो गयी.वह शून्य में कहीं देखती हुयी कुछ सोचने लगी थी. 
     मुझे लगा, मेरा प्रश्न उसे दुखी कर गया. मुझे ऐसा नहीं पूछना चाहिए था, किन्तु हम भारतीयों की इच्छा सदैव दूसरों के बारे में बहुत कुछ जानने की बनी रहती है. मैंने ध्यान दिया, यासर अराफात के स्थान पर यदि एरियल शेरोन की चर्चा की होती तो वातावरण कदाचित इतना बोझिल न हुआ होता. यह हमारी मानसिकता है, हम लोग अपने विरोधियों के विषय में अधिक रूचि लेते हैं. हम मुशर्रफ़ पर घंटों चर्चा कर सकते हैं जबकि हमें अपनी स्थिति का वास्तविक आकलन करना चाहिए. 
     मैंने उसे प्रसन्न करने की दृष्टि से लटकती हुयी चट्टानें दिखाईं, सीढ़ियों वाले खेत दिखाए और कुछ जडी-बूटियाँ भी. अंततः मुझे सफलता मिल ही गयी, उसके चेहरे पर प्रसन्नता वापस आयी, वह हँस दी.....सामने झरते झरने सी निर्मल हँसी. हम लोगों ने झरने के पास जा कर उसके निर्मल जल से मुँह धोया तो अच्छा लगा. झरने को वहीं हँसता छोड़ हम फिर आगे बढे. 


दानी भिक्षु    


      गंगोत्री पहुँच कर मौनी बाबा के आश्रम में स्थान मिल सका. वहाँ पहले से ऑस्ट्रिया, जर्मनी एवं कनाडा के बहुत से विदेशी डेरा जमाये हुए थे.  अगले दिन गंगोत्री के आकाश पर गर्वीले मेघ दिन भर सूर्य से आँख-मिचौली खेलते और हिमालय की उत्तुंग चोटियों को सहलाते-सहलाते अपराह्न तक थक कर अंततः बरस ही पड़े. गंगोत्री मंदिर के निकट ऊपर सूर्य कुंड के मार्ग में एक रोचक दृश्य देखने को मिला. मार्ग के किनारे पंक्तिबद्ध बैठे भिखारियों को काले कुर्ते वाला एक साधु पैसे बाँट रहा था. मैं कौतुहल से उसे देखने लगा. सबको पैसे बाँट चुकाने के पश्चात जब वह स्वयं भी पंक्ति के अंतिम छोर पर जाकर बैठ गया और आने-जाने वाले तीर्थ-यात्रियों के सामने हाथ फैलाने लगा तो मैं आश्चर्य चकित रह गया. मेरी उत्सुकता बढ़ती ही जा रही थी. मैं बहुत देर तक देखता रहा, कुछ समय पश्चात वह उठा और भिक्षा में मिले पैसों को फिर अपने साथी भिखारियों में बाटने लगा. 
   मुझे डेनियस बेर्विक की याद आ गयी, यार्कशायर में जन्मा युवा पत्रकार जिसने १९८३-८४ में गंगासागर से गोमुख तक आठ माह लम्बी अपनी ऐतिहासिक पदयात्रा में न जाने कितनी बार धार्मिक स्थलों में गंदे भिखारियों और गाँजा पीते साधुओं को बड़ी वितृष्णा से देखा था. मैं सोचने लगा भला आज का यह दृश्य देख कर उसके मन में कैसी धारणा बनती ! 
    आश्रम वापस आकर मैंने काले कुर्ते वाले साधु की घटना अपने साथ की सहयात्री महिला को बतायी. उन्होंने हँसते हुए बड़े ही सहज ढंग से मेरे कौतुहल पर टिप्पणी की -"इसमें आश्चर्य क्या ...उसने कुछ मनौती मान रखी होगी ...."
  उनकी सहज व्यावहारिक बुद्धि ने मुझे अवाक कर दिया. जो घटना मेरे लिए कौतुकपूर्ण थी वह उनके लिए कितनी सामान्य थी. मुझे अपनी बुद्धि पर तरस आया. 


...........कितना छोटा हूँ - 


     सुबह जब सो कर उठा तो देखा, धूप अच्छी तरह बिखरी हुयी है और आश्रम के एक और एक विशाल प्रस्तर खंड पर कोई विदेशी अपनी छोटी सी बच्ची के साथ बैठा धूप खा रहा था और सामने से हमारे साथ की भगतिन जी गंगा में डुबकी लगाकर भीगे कपड़ों में काँपती चली आ रही हैं.गंगामैया के प्रति सम्पूर्ण भारत की अद्भुत भक्तिभाव का प्रतिनिधि स्वरूप देख-देख कर पुलकित होता रहा. फिर तो प्रतिदिन ही यह दृश्य देखने को मिलता रहा. हमारे दल में वे ही प्रातः सर्व प्रथम उठकर गंगा के हिम से शीतल जल में डुबकी लगा आतीं फिर आश्रम में आकर नल के स्वच्छ जल से पुनः स्नान करतीं. चालीस वर्षीया भगतिन जी धार्मिक महिला हैं स्नानोपरांत वे नियम से गंगोत्री मंदिर जातीं और मैं जैसे-तैसे नल के तरल हिम से स्नान कर धूप में बैठ जाता. इतने दिनों में एक दिन भी गंगोत्री मंदिर में दर्शनार्थ नहीं जा सका. 
     मेरा गंतव्य गोमुख था. उन्नीस किलोमीटर की कष्ट साध्य पद-यात्रा के पश्चात गोमुख के दिव्य दर्शन की कल्पना मात्र से ही मैं अभिभूत था. गोमुख में कोई मंदिर न होने के कारण भगतिन जी के लिए वहाँ कोई आकर्षण नहीं था अतः उन्होंने शेष लोगों के साथ बद्रीनाथधाम की यात्रा के लिए प्रस्थान किया और मैंने गिने-चुने कुछ लोगों के साथ दो दिन तक और मार्ग की थकावट उतारने के पश्चात गोमुख के लिए. 
    मात्र तीन किलोमीटर ही ऊपर चढ़ने के पश्चात सहयात्रियों की हिम्मत जवाब दे गयी. नौ वर्ष के नन्हें अचिन्त्य ने सस्वर अपनी व्यथा सुनायी -" आगे चला तो बेहोश हो जाऊंगा, नींद आ गयी तो वहीं सो जाऊंगा". 
 मैंने रुक कर पीछे देखा, वह एक शिला पर चढ़कर बैठा था. फिर सामने एक बड़े से हिमनद को देखकर उसने और जोड़ा -"नीचे नदी ऊपर आसमाँ, बीच में है बर्फ मैं हूँ कहाँ"  मैं मुस्कराकर उसके पास लौटा और कहा- यह तो कविता हो गयी. 
उसकी बातें सुनकर मुझे किंचित आश्चर्य हुआ. देवभूमि हिमालय में नन्हाँ अचिन्त्य दार्शनिक हो उठा था. उसकी बड़ी-बड़ी आँखें हिमालय के शुभ्र शिखरों पर जमी थीं. उसने बिना मेरी और देखे ही कहा - "...........इन सबके सामने मैं कितना छोटा हूँ ......मैं और भी आगे जाना चाहता हूँ किन्तु अब थक गया हूँ" 
     मेरे सामने धर्म-संकट आ खडा हुआ. सहयात्रियों के साथ वापस नीचे उतर जाऊँ या उन्हें वहीं छोड़कर आगे बढ़ जाऊँ ? अन्ततः तय हुआ कि मुझे भी अपने सह यात्रियों के साथ ही नीचे उतरना है. तभी मैंने ऊपर से पगडंडी जैसे संकीर्ण पहाडी मार्ग पर कुछ टट्टुओं को नीचे उतरते देखा. ...टट्टुओं पर बैठे हट्टे-कट्टे संपन्न घर के से प्रतीत होने वाले तीर्थयात्री .....कुछ युवक ...कुछ युवतियाँ .  
     पगडंडी पर टट्टू पर्वत की ओर थे और उनकी लगाम हाथ में थामे पैदल दौड़ते पहाड़ी साईस गंगा की ओर वाले पूर्णतः असुरक्षित किनारे की ओर. पीठ पर स्वस्थ्य और युवा तीर्थ यात्रियों (? ) का बोझ लादे टट्टू जब ढलान पर दौड़ते हुए उतरते तो साथ दौड़ते साईसों को देख मुझे उनके अब-तब फिसलने का डर लगने लगता. ज़रा सा पग डगमगाए या असंतुलित हो कि सैकड़ों फिट नीचे गंगा की गोद में समाने में कोई बाधा न होगी. कितने जीवट के होते हैं ये पहाड़ी !... या कि उदर की आग ने बना दिया है उन्हें ऐसा. तीर्थ यात्रा करके पुण्य कमाने का यह उपाय, मैदान के संपन्न लोगों का पहाड़ के निर्धन लोगों के साथ क्रूर परिहास सा लगा मुझे. कल एक युवती टोकरी में बैठकर गोमुख जाने के लिए कुली खोज रही थी. ...सस्ते कुली. उसकी खोज और कुलियों से मोलभाव को लेकर मेरा मन दुःख और विद्रोह से भर गया था. मुझे लगा, नाना आचार-विचार वाले इन तीर्थ यात्रियों को देख कर मूक हिमालय को दिन भर में न जाने कितनी बार लजाना पड़ता होगा. ...और गंगा ! संभवतः यह सब सह न पाने के कारण ही क्रोध में दिन-रात गरजती-उफनती रहती है यहाँ. 
       मैं कल्पना करने लगा - एक अधेड़ कृशकाय पहाड़ी की पीठ पर बंधी टोकरी में बैठी स्वस्थ्य तरुणी. अधेड़ ऊबड़-खाबड़ पथरीली पगडंडी पर हांफता हुआ चढ़ाई पर आगे बढ़ता जा रहा है ....और तरुणी  टोकरी में बैठी आराम से ऊँघ रही है ......तीर्थयात्रा का पुण्य लाभ तरुणी के खाते में जमा होता जा रहा है. 
     मेरा विद्रोही मन हिमालय की दिव्यभूमि में भी सहज नहीं हो पा रहा था. ये तथाकथित शिक्षित सभ्य लोग क्या सचमुच मनुष्य ही हैं ? ...शायद मनुष्य ही हैं ....पशु तो किसी की विवशता पर इतना क्रूर आचरण नहीं कर सकते न ! इसी पाखण्ड को सभ्य समाज में "धर्म" का स्थान प्राप्त है ....और मैं बचपन से ऐसी धार्मिकता देख-देख कर ही अधार्मिक और विद्रोही हो गया हूँ. यह कैसी धार्मिकता है जहाँ पुण्य कमाने के लिए कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता, कोई तप नहीं करना पड़ता ...मात्र कुछ मूल्य देकर इसे बड़ी आसानी और गर्व के साथ क्रय किया जा सकता है. 


हिमालय की हिमाच्छादित शुभ्र चोटियाँ मुझे अपनी ओर निरंतर आकृष्ट किये जा रही थीं. मैं उठा, सहयात्रियों से कहा कि वे वहीं विश्राम करें मैं थोड़ी दूर और आगे जाकर फिर वापस आ जाऊंगा. मैं आगे बढ़ चला......गोमुख की ओर. मार्ग में कई बार सोचा बस अब और आगे नहीं सहयात्री प्रतीक्षारत होंगे....वापस चलना चाहिए. किन्तु हर बार कोई अज्ञात शक्ति मुझे अपनी ओर पूरी शक्ति से खींचने लगती. सम्मोहित सा मैं सोचता, अच्छा थोड़ी दूर और.......और यह क्रम न जाने कितनी बार चला. 
      भोजवासा अब थोड़ी ही दूर और रह गया था. आकाश में सूर्य पश्चिम की ओर झुकता जा रहा था. सहयात्रियों की चिंता ने एक बार पुनः मुझे उद्विग्न कर दिया. अंततः गोमुख को दूर से ही प्रणाम कर प्रकृति के अनुपम सौंदर्य और विधाता की अनुपम रचना के आगे श्रद्धानत हो मुझे वापस लौटना पडा. इस समय मेरी आँखों में हाई स्कूल की उस जर्मन छात्रा का हँसमुख चेहरा था जिसने कल ही हँसते-हँसते बताया था कि उसके सहयात्रियों के साथ न देने पर भी कैसे वह अकेली ही गोमुख तक चली गयी थी. गोमुख पहुंचकर उसने हिमाच्छादित शुभ्र शिखरों को वचन दिया था - " मैं फिर आऊँगी ....अगले वर्ष ........और उसके अगले वर्ष भी. "
     वापसी में नीचे उतरते समय देवगंगा के पास नीचे छूटे हुए सहयात्रियों को ऊपर आते देख आश्चर्यमिश्रित सुखानुभूति हुयी मुझे. नन्हाँ अचिन्त्य उत्साहित था - "मैं तो और आगे जाऊंगा" .
      कदाचित मेरी तरह उसे भी हिमालय की दैवीशक्ति अपनी ओर आकृष्ट कर रही थी, यद्यपि वह  थका हुआ था ...किन्तु अन्य लोग अब और आगे जाने को तैयार न थे . निराशा में अचिन्त्य रो उठा. 

जब हिमालय भी बौना सा लगा - 


         हम लोग वापस आ गए. नीचे आते-आते रात हो चुकी थी. आश्रम में पहुंचकर देखा, मेरे प्रकोष्ठ के आगे चार-पांच विदेशी युवतियाँ एक कनाडाई साधु को घेर कर लकड़ी के फर्श पर बैठी थीं. साधु के सिर के बाल भारतीय साधुओं की तरह जटाओं वाले थे और उसकी काली घनी दाढी खूब लम्बी थी. उसने खादी का पायजामा और कुर्ता पहन रखा था. गिटार बजाते-बजाते वह झूम-झूम कर गा रहा था   ".........जय अमर नाथ गंगे ............. जय विश्वनाथ शम्भो.........." साथ की युवतियाँ भी तन्मय हो उसका साथ दे रही थीं. आश्रम के ठीक सामने शोर मचाती गंगा भी  एक स्वर से गाये जा रहे थी "..........हर-हर ....हर-हर ....हर-हर ........". मुझे अच्छा लगा और उनके पास ही एक ओर बैठ गया. थोड़ी देर बाद उन्होंने ॐ नमः शिवाय का समवेत स्वर में जाप शुरू कर दिया. इस बार मैं भी उनके साथ था. वे लोग प्रसन्न हो गए. और जब ॐ नमः शिवाय का जाप समाप्त हुआ तो ऑस्ट्रियाई युवती ने एक अधूरा श्लोक सुनाकर मुझसे आग्रह किया कि मैं उसे सस्वर पूरा सुनाऊँ (उसे पूरा श्लोक मालुम नहीं था.) कदाचित वह कोई वैदिक ऋचा रही होगी या फिर किसी उपनिषद् का कोई श्लोक. मेरा चेहरा मुरझा गया. यहाँ तो बचपन में रटवाए गए दो-चार श्लोकों के अतिरिक्त और कुछ आता ही नहीं था. मैंने लजाते हुए क्षमा याचना की. साधु नेत्र बंद किये अभी भी गिटार पर ॐ जय जगदीश हरे ....की धुन बजाये जा रहा था. ऑस्ट्रियाई युवती ने मेरी ओर मुस्करा कर जैसे आँखों ही आँखों में कहा - कोई बात नहीं. और फिर अपने नेत्र बंद कर गाना प्रारम्भ किया - " ईशा वास्यमिदं सर्वं यद्किन्चित जगत्याम् जगत् ........." 
   अब मैं पानी-पानी हो उठा . मुझे अपने जीवन में  इतनी लज्जा संभवतः पहले कभी नहीं आयी थी. अपनी ही भूमि में उन अहिंदीभाषी विदेशियों के समक्ष मैं बौना हो गया था. मेरी आँखों के कोने नम थे. सामने अन्धेरा और भी गहरा हो गया था .......और उस अँधेरे में हिमालय के उत्तुंग शिखर भी  अदृश्य हो चुके थे.  मोमबत्ती अंतिम साँसे ले रही थी. अनायास मुझे लगा, मैं ही नहीं मेरी आस्था भी उनके समक्ष बौनी हो गयी थी. 
             कनाडायी साधु अँधेरे में गिटार पर गा रहा था - "सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः  ................."                                           

14 टिप्‍पणियां:

  1. जैसे मकान की नींव मजबूत हो तो उस पर इमारत भी मजबूत बन सकती है, वैसे ही गीता पढना मन को तैयार करने में शायद काम करता है (साधना?) ,,, ऐसा मैं अपने अनुभव से भी कह सकता हूँ - मैंने सन '८४ में पहली बार उसे पढ़ा जब मेरे मन में भी कई प्रश्न जमा हो गए थे (कूड़ेदान में कई वर्षों से एकत्रित कूड़े समान!)...और जाना योगियों द्वारा कई वर्षों के अनुभव के आधार पर संकलित विचार, जीवन का सार, कि मानव जीवन में क्या लक्ष्य अपेक्षित है आम आदमी से...बचपन में पढ़ते थे वाक्य कि 'आदमी केवल रोटी पर ही नहीं जीता',,,यानि 'रोटी, कपड़ा, मकान' पाने के तथाकथित 'सत्य' के अतिरिक्त भी मानव से 'परम सत्य' को खोजना भी अपेक्षित है, क्यूंकि मानव रूप में ही उसे पाना संभव है किन्तु काल-चक्र द्वारा रचित माया जाल तोडना भी अर्जुन के केवल मछली की परछाईं देख उसकी आँख भेदने समान है द्रौपदी का हाथ पाने के लिए (अमावस्या के बाद चाँद भी, सूर्य से प्रकाशित हो, कटोरे में तैरती मछली समान ही दीखता है !)...

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  2. आपका यात्रा-संस्मरण अतेयंत रोचक है....
    इसे पढ़ कर यात्रा का आनंद आ गया.

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  3. बहुत सुन्दर और ज्ञानवर्धक यात्रा प्रसंग !
    जीवंत होकर मूर्तिमान हो उठे दृश्य !
    बहुत बधाई !

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  4. आपका यह संस्मरण प्रकृति, मानव प्रवृत्ति और जीवन के विभिन्न रूपों को दर्शाता बड़ी ही रोचक लगा पढने में।

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  5. मैं देख रहा था - परस्पर होड़ सी लगा रही दीपनौकाओं का परस्पर टकराना, टकराकर किसी का आगे निकल जाना...किसी का जल-समाधि ले लेना. जीवन की प्रतियोगिता, कामनाओं की सफलता की प्रतियोगिता .............दृश्य मुझे जाने-पहचाने से ...प्रतिबिम्ब से लग रहे थे .
    @ मैं सोचने पर विवश हो गया ......पंचायती राज का सपना क्या ऐसी ही भीड़ के हाथों में सौंपकर पूरा हो सकेगा ? जन साधारण को राज का अधिकार सौंपकर किस न्याय और व्यवस्था की आशा की जा रही है ? जनता यदि इतनी ही आत्मानुशासित होती तो शासनमुक्त समाज न बन गया होता !
    @ मुझे तो वहाँ के कण-कण में जीवन-दर्शन दिखाई दे रहा था . ......चाहे वह हिमालय का सर्पीला मार्ग हो .......हिमाच्छादित उच्च शिखर हों ....... लम्बे-लम्बे वृक्ष हों ......कठोर शिलाएं हों ........दुर्गमता हो ........वहाँ के लोगों के जीवन की कठिनाइयाँ हों ........वहाँ का सूर्योदय हो ....सूर्यास्त हो ....वहाँ का सब कुछ दर्शन की दिव्यता से ओतप्रोत था.
    @
    मैं कल्पना करने लगा - एक अधेड़ कृशकाय पहाड़ी की पीठ पर बंधी टोकरी में बैठी स्वस्थ्य तरुणी. अधेड़ ऊबड़-खाबड़ पथरीली पगडंडी पर हांफता हुआ चढ़ाई पर आगे बढ़ता जा रहा है ....और तरुणी टोकरी में बैठी आराम से ऊँघ रही है ......तीर्थयात्रा का पुण्य लाभ तरुणी के खाते में जमा होता जा रहा है.

    @ अब मैं पानी-पानी हो उठा . मुझे अपने जीवन में इतनी लज्जा संभवतः पहले कभी नहीं आयी थी. अपनी ही भूमि में उन अहिंदीभाषी विदेशियों के समक्ष मैं बौना हो गया था. मेरी आँखों के कोने नम थे. सामने अन्धेरा और भी गहरा हो गया था .......और उस अँधेरे में हिमालय के उत्तुंग शिखर भी अदृश्य हो चुके थे. मोमबत्ती अंतिम साँसे ले रही थी. अनायास मुझे लगा, मैं ही नहीं मेरी आस्था भी उनके समक्ष बौनी हो गयी थी.


    गुरु जी आपकी लेखनी को नमन .....

    एक-एक शब्द नगीना है ....
    आपके विचार , आपकी भावनाएं तो बस नमन योग्य हैं .....
    क्या कहूँ ....समझ नहीं पा रही ....
    पढ़ती गई और डूबती गई .....
    आपके विचार और राजेन्द्र जी के विचार लगभग मिलते जुलते हैं
    इस संस्मरण में कहानी की सी रोचकता है ...
    अद्भुत प्रतिभा है आपके पास ....

    हाँ इसे किसी पत्रिका में जरुर भेज दीजिएगा .....

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  6. आदरणीया हीर जी ! आपकी टिप्पणी से स्पष्ट है कि आपने पाठक धर्म का बड़ी गंभीरता और इमानदारी से पालन किया है.........विषय वस्तु के आकलन के प्रति आपका न्याय वन्दनीय है. मेरी लेखनी के साथ सच्चे सहयात्री की तरह आपकी यात्रा अनुकरणीय है ............आप हर मोड़ पर उसके साथ रही हैं .......उसके हर्ष और विषाद में समानरूप से सहभागी बनी हैं ....मैं अभिभूत हुआ. लेखक और पाठक के बीच यह एक इमानदार सेतु है .....मैं आपके पाठक धर्म के आगे पूरी विनम्रता से अपना शीश नवाता हूँ. ऐसे पाठकों को मेरा बार-बार अभिनन्दन .....

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  7. क्षमा प्रार्थी हूँ हरकीरत जी और कौशलेन्द्र जी ("जाकी रही भावना जैसी..." जैसे आपने भी तुलसीदास के शब्द दोहराए)... बुरा न मानना जब मैं स्कूल में था तो मुझे अपने सहपाठी, जिसने नौवीं कक्षा में संस्कृत को चुना, उससे सुनने को मिला (भाषा के शिक्षक के विचार) कि गीता को हर व्यक्ति अपने अपने दृष्टिकोण से पढ़ता है, जिस कारण एक ही पुस्तक में लिखे गए विचारों की भिन्न भिन्न व्याख्याएं और टिप्पणियां पढने को मिल जायेंगी (गाँधी, मुंशी, राधाकृष्णन आदि के लिखे जैसे)...जिस कारण "हरी अनंत हरी कथा अनंता..." द्वारा प्राचीन किन्तु हमसे अधिक ज्ञानी हिन्दुओं ने सार निकाल कहा "सत्यम शिवम् सुंदरम",,,जो मेरे अपने निजी विचार से हर व्यक्ति को निमंत्रण देता है सत्य अथवा सत्व यानी सार तक पहुँचने के लिए किसी भी मार्ग से किसी भी स्थान में रहते,,,न कि 'धर्म' आदि में उलझ पानी की बूंदों के भंवर में सदैव गोल गोल घूमते रहने समान... जैसे पहाड़ों का अपना निजी महत्व है, वैसे मंदिर आदि और अन्य कई व्यक्ति विशेष का भी समय समय पर देखने को मिल सकता है...

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  8. .

    @--यह हमारी मानसिकता है, हम लोग अपने विरोधियों के विषय में अधिक रूचि लेते हैं. हम मुशर्रफ़ पर घंटों चर्चा कर सकते हैं जबकि हमें अपनी स्थिति का वास्तविक आकलन करना चाहिए...

    बहुत ही सारगर्भित पंक्ति है ...यदि दूसरों की ख़ुशी का ध्यान रखा जाए तो एक अनोखा आनंद मिलता है । अपने लिए तो सभी जीते हैं ।

    .

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  9. जे सी बाबा जी ! ॐ नमोनारायण ! धर्म रूढ़ हो गया है आज ...परिमार्जन की आवश्यकता है ....समाज में विमर्श ......नवीनता और परिमार्जन का अभाव हो गया है इसलिए आज का धर्म पाखण्ड से अधिक और कुछ नहीं......उच्च शिक्षित भी इसी धारा में बहे चले जा रहे हैं ....सभी को पुण्य चाहिए ....बिना पुण्य का कार्य किये .....ज़रुरत मंद को धेला नहीं देंगे ...मंदिर में सोना चढ़ा देंगे .....हमारे मंदिर आज भी अमीर हैं ....जनता गरीब है ....पहले मंदिरों की समाज के लिए जो भूमिका हुआ करती थी, आज कहाँ है

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  10. कौशलेन्द्र जी, आपने जो देखा उसका एक दम सही और बहुत सुन्दर वर्णन किया, इसमें कोई दूसरी राय नहीं हो सकती...
    मेरा केवल यह कहना है कि जब बच्चा शिशु अवस्था में होता है तो उसमें जिज्ञासा होती है,,, उसको बाहरी वस्तुएं आकर्षित करती हैं,,,वो तितलियों का पीछा करता है आदि, आदि...
    किन्तु जब वो बड़ा हो जाता है, उम्र के साथ अनुभव प्राप्त कर वो अंतर्मुखी हो जाता है,,, अब तितली पास से निकल जाये तो शायद देखता भी नहीं है,,,
    और जो कुछ सूचना आदि उसने आरम्भ में अल्पायु में ग्रहण की, उसके विश्लेषण करने की उसकी क्षमता बढ़ गयी होती है,,,

    और अब वो क्यूँ? कैसे? आदि प्रश्न स्वयं से, और अन्य से भी करने लगता है...उसमें साधारणतया 'सत्य' को जानने की इच्छा जाग चुकी होती है..
    इस कार्य में प्राचीन ग्रथ आदि उसके सहायक हो सकते हैं...किन्तु उसके लिए इच्छा भी भीतर से ही उठनी आवश्यक है...
    एक अंग्रेजी कहावत है कि घोड़े को एक अकेला ही सक्षम है पानी तक ले जाने में/ किन्तु बीस व्यक्ति भी उसको पानी जबरदस्ती नहीं पिला सकते "...

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  11. जी ! बाबा जी ! सत्य कथन है आपका. बालक की जिज्ञासा मानवीय स्वभाव का एक भाग है. पर वह उचित-अनुचित का विवेक नहीं रखता .....जब तक इस योग्य होता है तब तक स्वार्थ का विशिष्ट ज्ञान उसे प्राप्त हो चुका होता है. आध्यात्म एक अन्वेषण की चीज़ है ...दस साधुओं के प्रवचन भी उसे ज्ञान पिपासु नहीं बना सकते ...यह आग तो अन्दर से होनी चाहिए. हम बाहर से आग होने का प्रदर्शन अवश्य करते हैं ...अन्दर स्वार्थ भरा पडा है...परिणाम होता है पाखण्ड और केवल पाखण्ड. मैं इसी का तो विरोधी हूँ.

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  12. "शिवोहम" (यानि मैं सर्वगुण संपन्न अनंत और अजन्मा परमात्मा हूँ, और सब प्राणी उसी का अंश, आत्मा, तो हैं किन्तु उन को अभी समय लगेगा यह आभास होने में) जाना प्राचीन ज्ञानी 'हिन्दू' ने, जो 'परम सत्य, निराकार ब्रह्म को पा लिया अंतर्मुखी बन, मन को साध कर, शून्य से जुड़...

    गीता में कोई भी पढ़ सकता है कि कृष्ण ने कहा, 'जो औरों को गाली देते हैं वास्तव में वो मुझे ही गाली दे रहे होते हैं क्यूंकि में सबके भीतर विराजमान हूँ',,, 'यद्यपि वो भी 'माया' के कारण है',,, 'क्यूंकि वास्तव में सम्पूर्ण सृष्टि मेरे भीतर ही समाई है',,, (साधारण कहनियों में इसे दर्शाया गया, "यशोदा ने कृष्ण के मुंह में ब्रह्माण्ड देखा")...

    साधारण शब्दों में ही 'माया' को सारांश में विष से आरंभ कर चार स्तर (चार युगों) में अमृत पाने की कथा, 'क्षीर सागर मंथन',,, और विस्तार में त्रेता के राम और द्वापर के कृष्ण अदि की "लीला" के माध्यम से दर्शा गए प्राचीन ज्ञानी जो सिद्ध पुरुष थे,,, और प्राचीन हिन्दू, जैसा सभी को पता होगा, पहुंचे हुए खगोल शास्त्री भी थे और उन्होंने मानव को ब्रह्माण्ड का प्रतिरूप जाना, ब्रह्माण्ड के सार, सौरमंडल के ९ ग्रहों (सूर्य से शनि) के माध्यम से बना...जिसको समझने के लिए या तो हस्तरेखा ज्ञान, अदि के गहन अध्ययन द्वारा समझा जा सकता है कि काल-चक्र को (नादबिन्दू विष्णु, शून्य से अनंत, शिव, तक) समझने के लिए प्राचीन हिन्दू पहले भी अथक प्रयास कर चुके हैं ...किन्तु वर्तमान, कलियुग होने के कारण, अज्ञानता वश हम यदि सत्य तक न पहुँच पाएं तो यह तो काल का ही दोष होना चाहिए क्यूंकि प्राचीन ज्ञानी तो कह गए ही गए कि समय का पहिया सतयुग से कलियुग की ओर, यानि उल्टा चलता है - ब्रह्मा के एक दिन में, एक बार नहीं हजार बार !

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  13. वाह कौशलेन्द्र जी,
    आपके सामने हमारे यात्रा वर्णन कुछ नहीं है,

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  14. दिल को लुभाने वाला यात्रा संस्मरण ! बहुत बढ़िया !

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टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.