अभी तक आप पढ़ चुके हैं कि पिच्चेकट्टा पर्वत से नीचे उतरते समय सिद्धांत के चेहरे पर विदुषी के चुम्बनों की वारिश होने लगी ...जिसके साक्षी बने लल्ली और सुबोध. अब आगे पढ़िए ...
दोनों ध्रुवों को ऐसी अप्रत्याशित स्थिति में देख कर जहाँ सुबोध हतप्रभ खडा रह गया वहीं लल्ली लज्जा से मुंह नीचे कर वापस जाने लगी. यूँ बस्तर की घोटुल परम्परा में पल्लवित-पुष्पित लल्ली के लिए यह आचरण लेश भी अशोभनीय या अकरणीय नहीं था ...पर सात वर्ष उत्तर-प्रदेश में रहने का ही यह प्रभाव था कि उसे इस घटना ने लज्जावेष्टित कर दिया था. निरंतर संपर्क में रहने के कारण किसी समूह के आचार-विचार और परम्पराओं से कोई व्यक्ति प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता. घोटुल में रहकर सामाजिक आचार-विचार, कला, कृषि आदि की ज्ञान परम्पराओं के साथ-साथ यौनाचार की भी विधिवत शिक्षा प्राप्त लल्ली बिठूर प्रवास के सात वर्षों में ही "सहज" को "असहज" मानने का संस्कार लेकर बस्तर वापस आयी थी......लजाती कैसे न !
विदुषी की मनः स्थिति भी समझी जा सकती है...अपने उच्छ्रंखल आचरण के आवेश की समाप्ति पर स्त्री आत्मनिन्दित न हो ऐसा कम ही देखा जाता है. सो उसने भी लजा कर पल्लू से चेहरा ढंकने का प्रयास किया गोया पसीना पोछ रही हो.
सिद्धांत के पास कहने के लिए कुछ नहीं था. ऐसी विषम स्थिति में किसी पुरुष का आचरण किस प्रकार का होना चाहिए...यह उसने किसी पुस्तक में पढ़ा ही नहीं था. पुस्तकों को ही जीवन का अंतिम सत्य मानने वाले सिद्धांत के आदर्शों की ह्त्या हो चुकी थी. उसे लगा कि बड़े यत्न से रक्षित उसके ब्रह्मचर्य की आज धज्जियां उड़ गयीं हैं और अब गर्व करने लायक कुछ भी नहीं बचा है उसके पास. किंकर्तव्यविमूढ़ हो सिद्धांत वहीं बैठ गया.
कुछ पलों की निः शब्दता के बाद सुबोध ने स्थिति को संभालने का प्रयास किया- "अरे सिद्धांत ! आज इतनी दूर निकल आये घूमने .....गायत्रीमंदिर वाले पुजारी जी पूछ रहे थे आपको .........................."
सिद्धांत वैसा ही बैठा रहा ...उसी मुद्रा में. सुबोध को लगा कि उसके पास भी शब्दों का अकाल पड़ गया है आज. आगे और क्या कहे ...कुछ समझ नहीं आया .
तभी सब को आश्चर्यचकित करती हुयी विदुषी ने बड़ी मृदुता और सहज भाव से सिद्धांत का हाथ पकड़ा जैसे कि कुछ हुआ ही न हो और बोली- "चलिए, घर नहीं चलना क्या ?"
हाथ छुड़ाकर सिद्धांत फफक पडा .......
विदुषी ने बड़े स्नेह से उसके शिर पर हाथ रख दिया .......कुछ देर चुप रही फिर संयत होकर कहा- "मुझे गलत मत समझो सिद्धांत, मन का द्वंद्व जब टूटता है तो गहरी जमी धारणा के खंडित होने से अहम् को चोट लगती ही है. आप स्वयं को पहचानें ...बस, मेरा यही प्रयास था. कठोर से कठोर व्यक्ति के अन्दर भी एक सहज निर्मल सरिता का स्रोत होता है ...उसे बहने देना चाहिए. बाँध बनेगा तो पानी का दबाव अपने आसपास तोड़फोड़ करेगा ही. सहज वृत्तियों की स्वाभाविकता का दमन कभी शुभ परिणाम नहीं दे सकता. नदी के किनारे की असंयत धारा में हिलकोरें लेते तिनकों के भटकाव से अच्छा है नदी की मध्यधारा में बह कर सागर तक पहुँचना.........................."
सिद्धांत को संयत होने में समय लगा. आत्मग्लानि के बोध से हुयी अश्रुवर्षा ने पीड़ा के घने कुहासे को छाँटने में सहयोग किया. जब सिद्धांत का मन कुछ हलका हुआ तो सुबोध ने हाथ पकड़ कर उसे उठाया. तभी लल्ली बोली- " सिद्धांत ! अभी तक शिर मुड़ाने का मोह नहीं छोड़ पाए आप ? एक बार बाल बड़े कर के भी तो दिखाइये ....देखूं तो कैसे लगते हैं आप ?"
किंचित कृत्रिम स्मित से लल्ली की ओर देख सिद्धांत आज्ञाकारी बालक सा उठ खड़ा हुआ. तब तक कुछ मछुआरे उधर से निकले, पूछा- " मछरी लेबे का साब ? अब्बी च निकारे हों तरिया ले "
उत्तर लल्ली ने दिया-"ए साहब मन मछरी नी खायं ".
इस घटना के कई दिन बाद भी सिद्धांत सहज नहीं हो सका. शालाध्यापन के बाद शेष समय वह अपनी खोली में बैठा गायत्री मन्त्र के जप में लगा रहता. पर मन एकाग्र होने के स्थान पर और भी भटकने लगा. बचपन में "ब्रह्मचर्य की रक्षा" पुस्तक में पढ़ा वाक्य 'बिंदु पात मृत्यु का आमंत्रण है अतः हर स्थिति में वीर्य की रक्षा करना चाहिए' उसकी प्रेरणा का स्रोत रहा था. किन्तु विदुषी का तर्क भी तो उपेक्षणीय नहीं "...असंयत धारा में हिलकोरें लेते तिनकों के भटकाव से अच्छा है नदी की मध्यधारा में बह कर सागर तक पहुँचना."
....किन्तु जीवन में नदी की मध्य धारा ..यह क्या है? सिद्धांत के मन में प्रश्न उठा. किससे पूछूं....सुबोध से पूछूं .....नहीं, विदुषी से ही पूछूँ क्या.
विदुषी .....
विदुषी का ध्यान आते ही पिच्चेकट्टा के सागौन वन का वह एकांत दृश्य जीवंत हो उठा. चुम्बनवर्षा के दाह की अनुभूति अभी तक ज्यों की त्यों थी. सिद्धांत के पूरे शरीर में विद्युत् धारा सी दौड़ने लगी.....ओह .....पाप भी कितना सम्मोहक होता है. व्यतीत पल पुनः जीवंत होकर दहक उठे.......
ओह ! विदुषी..... ! तुम नहीं जानतीं तुमने एक ब्राह्मण को पथ भ्रष्ट करने का पाप किया है. हे वेदमाता गायत्री ! रक्षा करो मेरी........
ॐ भूर्भुवः स्वः तत् सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धी महि ........मन्त्र जप का स्वर ऊंचा हो जाता....पर सागौन वन में लगी चुम्बन वर्षा का दाह कम होने का नाम ही नहीं लेता.
ओह विदुषी .......
नहीं ...अपराध मेरा ही था, ऋषियों के निर्देश के बाद भी ...उपनयन संस्कार के समय दी गयी गुरु शिक्षा के बाद भी .....एकांत में स्त्री का साथ करने का अपराधी तो मैं ही हूँ. विदुषी को दोष क्यों दूं.
तभी उसके मन में विचारों की श्रंखला आगे बढ़ी.......कोई पुण्य भी कभी इतना सम्मोहक लगा हो .....ऐसा उसे स्मरण नहीं. यह पाप ही इतना सम्मोहक क्यों होता है, पुण्य क्यों नहीं ?
सचमुच, इस पर तो कभी विचार ही नहीं किया उसने. किन्तु इससे पहले कोई पाप इतना सम्मोहक लगा भी तो नहीं ....
"चट्टोपाध्याय जी ! घर में हैं क्या ?"
स्त्री स्वर से विचार श्रृंखला भंग हुयी. कौन है ....
तब तक पुरुष स्वर भी सुनायी दिया- " कहाँ रहते हैं महाशय ...कितने दिन हो गए, दर्शन ही दुर्लभ हैं आपके."
अब सिद्धांत के जी में जी आया. यह तो सुबोध है ...और स्त्री स्वर ?....लल्ली होगी..
आश्वस्त हो उठकर बाहर आया. सागौनवन में लगी चुम्बन वर्षा के दाह की स्मृति से कुछ समय के लिए मुक्ति मिली. कुछ औपचारिक वार्ता के बाद लल्ली ने ही पूछा- "आजकल बाहर नहीं निकलते हैं क्या ? सब्जी-भाजी लेने भी आते नहीं देखती हूँ ...."
सिद्धांत ने नेत्र बंद कर लिए, जैसे चिंतन की मुद्रा में हो, फिर धीरे से कहा- " साधना करना चाहता हूँ पर एकाग्रता भंग हो गयी है. उस दिन पिच्चेकट्टा ......."
बात को बीच में ही काटकर सुबोध बोला- "तुम राई का पर्वत बना रहे हो सिद्धांत. उस दिन पिच्चेकट्टा में जो भी हुआ उसी से इतने व्यथित हो न ! किन्तु बाहर जो भी हुआ उससे तो कई गुना अधिक तुम्हारे अन्दर हुआ है ...और वह अभी तक स्थिर है ....जम गया है बर्फ की तरह. पिघलने दो उसे. जिन आदर्शों की स्वप्निल दुनिया में रहते हो तुम उसका अस्तित्व इतना नहीं है कि उसके सहारे जीवन जिया सके."
थके से स्वर में सिद्धांत ने धीरे से कहा- " तो क्या पुस्तकों में जो भी लिखा है वह सब झूठ है. ....माया का परित्याग .....मोक्ष की साधना ....समाधि ....झूठ है यह सब ? "
सुबोध ने कहा- "मैं किसी को झूठ नहीं कहता ...किन्तु यह जो इतने निषेधों से जीवन को बाँध रखा है वह भी तो सत्य नहीं कहा जा सकता"
लल्ली ने परिहास किया, "इन्हें घोटुल में भेजना चाहिए था"
सिद्धांत ने मुंह बनाया. कहा कुछ नहीं. सुबोध ही बोला- "पाप और पुण्य हमारे मन की धारणाएं हैं. यदि हम जान-बूझ कर ....अपने स्वार्थ के लिए किसी का अहित नहीं करते हैं ...या समाज की किसी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करते हैं तो हमारा कोई कृत्य पाप कैसे हो सकता है ? स्त्री-पुरुष के सहज संबंधों को पाप कहना कहाँ तक उचित है ?"
सिद्धांत ने बीच में ही प्रतिवाद किया, कहा- "आप कहना चाहते हैं कि उस दिन विदुषी का आचरण मर्यादित था ?"
सुबोध ने बचाव किया -" यह इस बात पर निर्भर करता है कि किसी भी आचरण के पीछे कर्ता का उद्देश्य क्या है. मनुष्य का आचरण बड़ा ही व्यापक है...कई बातें समाहित होती हैं उसमें. यौन पवित्रता के साथ ही समाज और राष्ट्र के प्रति भी पवित्रता हो तभी किसी का आचरण स्तुत्य हो पाता है. मेरी दृष्टि में तो समाज और राष्ट्र के प्रति पवित्र आचरण ही सर्वोपरि है. ..........राष्ट्र की अपेक्षा केवल यौन संबंधों की पवित्रता को ही प्रमुखता देना कूप मंडूकता ही है . नहीं सिद्धांत! ...अतिवाद है यह .....और किसी भी अतिवाद का कोई वास्तविक लक्ष्य नहीं हुआ करता......
बस्तर के आदिवासियों को देखो, स्त्री-पुरुष के संबंधों को जितनी सहजता और निश्छलता के साथ इन्होने स्वीकार किया है वह अपने आप में अद्भुत है ...और अनुकरणीय भी. सहजता ....तरलता .....किन्तु मर्यादा भी. क्या यह किसी सभ्य आचरण का प्रतीक नहीं ? ढेरों आदर्शों के बाद भी हमारा सभ्य समाज वैश्यावृत्ति, बलात्कारों और छिछोरेपन के घृणित शाप से मुक्त नहीं है....क्या यह ढोंग नहीं है हमारे समाज का ? मैं जानता हूँ, अभी तुम इसे कम्युनिस्ट विचारधारा का अभिशाप कहने लगोगे किन्तु......"
तभी परछी के बाहर किसी की पदचाप ने वार्ता में एक विराम की घोषणा की. सुबोध ने बाहर झांक कर देखा तो प्रसन्न हो कर बोला, "आइये विदुषी जी ! आपकी ही कमी थी....."
यह जानकार कि विदुषी का आगमन हुआ है, सिद्धांत के चेहरे पर एक अवर्णनीय व्यथा का भाव तिर गया. परछी के द्वार पर आकर विदुषी ने अन्दर प्रवेश करने की कृत्रिम औपचारिकता निभायी. सिद्धांत का कोई उत्तर न पाकर भी वह अन्दर आ गयी. लल्ली ने ही उठकर उसका स्वागत किया और अपने पास बैठा लिया. सब लोग चुप रहे ...जैसे कि वे सब सिद्धांत को सहज होने का अवसर दे रहे हों.
इस बार की चुप्पी विदुषी ने ही तोड़ी...एक अप्रत्याशित घोषणा के साथ, बोली - "मैं भानुप्रतापपुर छोड़कर जा रही हूँ. जाने से पहले आप सब से क्षमा माँगने आयी हूँ. सिद्धांत अभी तक सहज नहीं हो सके हैं ......मैं इन्हें इनके स्वप्नलोक से यथार्थ लोक में लाने में असफल रही .....इन्हें पीड़ा हुयी ...इसका दुःख है मुझे ."
वातावरण में अनायास ही एक उत्सुकता के जन्म लेने से कुछ ऊर्जा का संचार हुआ. लल्ली ने पूछा- " कहाँ जा रही हैं ....क्यों जा रही हैं ...कब जा रही हैं?"
उत्तर चौंकाने वाले थे. सभी लोग जैसे आकाश से धरती पर आ गए हों. विदुषी ने रहस्योद्घाटन किया- "बीजापुर ...................चर्च में सेवा करूंगी ........................आज ही जा रही हूँ"
एक संक्षिप्त रहस्योद्घाटन के बाद वातावरण पुनः बोझिल हो उठा. सुबोध के मुंह से निकला - "चर्च में सेवा ..? क्या कह रही हो विदुषी ? कहीं तुमने भी तो ....."
एक नीरस मुस्कान के साथ विदुषी ने कहा- " हाँ ! आपने ठीक समझा ...मैं चर्च जा कर क्रिश्चियन बन गयी हूँ .....बहुत लोग हैं जिन्हें हमारी सेवा की आवश्यकता है "
एक गहन पीड़ा के साथ सिद्धांत ने अपना मौन तोड़ा - " तो तुमने भी हिन्दुओं का सनातनधर्म त्याग ही दिया ?"
विदुषी बोली- "मैंने त्यागने की नहीं अपनाए जाने की बात कही है ...मैंने क्रिश्चियन धर्म अपना लिया है."
सिद्धांत ने प्रतिवाद किया- " एक को छोड़ा तभी तो दूसरे को अपनाया. दुखी जनों की सेवा के लिए क्रिश्चियन धर्म अपनाना आवश्यक था क्या ...उसके बिना सेवा कार्य नहीं हो सकता ? सनातनधर्मी हिन्दू बने रहकर सेवा कार्य में कोई बाधा थी क्या ? ....या कि उनके लिए वर्ज्य है यह ?"
विदुषी चुप रही. उसके चेहरे पर शान्ति का शांत सागर था ....द्विविधा से मुक्ति के बाद की सी शान्ति ......
वह चुपचाप उठी और बाहर की ओर जाने लगी......अपने सभी सीमित परिचितों को बेचैन करके .......असीमित अपरिचितों की दुनिया की ओर ...उनकी बेचैनी दूर करने के एक स्वप्न मृग के साथ.
सिद्धांत चिल्लाया - "देशद्रोह है यह .....इस देश की धरती .....अपने पूर्वजों और इस समाज के प्रति इससे बड़ी और कोई अकृतज्ञता नहीं हो सकती ....."
विदुषी ने एक कुटिल मुस्कान के साथ कहा- " भारत के सभी सनातनधर्मी हिन्दू देशभक्त हैं .......जान कर प्रसन्नता हुयी सिद्धांत चट्टोपाध्याय जी ! "
शब्दशक्ति के प्रयोग में कुशल विदुषी के इस घातक प्रहार से सभी लोग तिलमिला कर रह गए. अभिधा में शक्तिपात करती तो निश्चित ही प्रहार इतना गंभीर न हुआ होता.
अनायास ही सिद्धांत ने उठकर विदुषी का हाथ पकड़ लिया, बोला- "नहीं विदुषी, मैं तुम्हें इस तरह देशद्रोही नहीं बनने दूंगा."
सुबोध और लल्ली भी सामने आ गए पर विदुषी को कोई रोक न सका. उसने एक ही झटके से सिद्धांत के हाथ से अपना हाथ छुडाया और तीव्र गति से बाहर निकल गयी.
इस बार का खग्रास सभी के लिए कुछ अधिक ही अशुभ रहा. इसके बाद की कहानी में किसी को रूचि नहीं होगी....किन्तु उपसंहार आवश्यक है इसलिए बता देता हूँ.
विदुषी को बीजापुर के लिए प्रस्थान किये अभी मात्र तीन ही दिन हुए थे कि पूरे भानुप्रतापपुर में शोक छा गया. उत्तरप्रदेश के गाजियाबाद से आकर बस्तर में बसे शुक्ल परिवार की वर्षों पहले उग्रवादी हिंसा में हुयी मृत्यु के बाद एक मात्र जीवित बची विदुषी भी बीजापुर जाते ही हिंसा की भेट चढ़ चुकी थी. सुबोध उसके पार्थिव शरीर को लाने बीजापुर गया था. वापस आकर उसने जो भी बताया वह और भी हृदय विदारक था.
विदुषी के मृत्यु परीक्षण की रिपोर्ट में यौनहिंसा प्रमाणित हुयी थी. विदुषी के मृत्यु वाले दिन ही चर्च का पादरी कहीं अंतर्ध्यान हो गया था.
भानुप्रतापपुर के लोगों ने हिन्दू विधि-विधान से विदुषी के पार्थिव शरीर का अंतिम संस्कार किया. उस दिन पूरा नगर खंडी नदी के घाट पर उमड़ आया था ...पर सिद्धांत उस भीड़ में कहीं नहीं था.
विदुषी के अंतिम संस्कार से लौट कर आते ही सुबोध को सूचना मिली कि लल्ली को कुछ हो गया है .....वह अचेत पड़ी है. सुबोध भागा-भागा लल्ली के घर की ओर गया. अब लल्ली को क्या हुआ !
सुबोध के मन में लल्ली के जीवन की सारी घटनायें एक-एक कर घूम गयीं. कैसे एक युवक ने विवाह का प्रलोभन दे कर वर्षों लल्ली का उपभोग किया और फिर एक दिन अनायास ही अपने समाज की लड़की को ब्याह लाया. अबोध लल्ली के हाथ पर गर्भपात के लिए चिकित्सक की फीस के पैसे रखकर जब सुरेश चंदेल जाने लगा था तो लल्ली ने भी वे पैसे वहीं धरती पर रख कर और सुरेश को दूर से ही पयलगी कर अपने मायके का रुख किया......बिना किसी को कोई दोष दिए . उसके बाद अचानक ही प्रौढ़ हो गयी लल्ली ने समाज सेवा का जो व्रत लिया तो अपना सम्पूर्ण जीवन ही वंचितों को समर्पित कर दिया.
सुबोध ने वहाँ जाकर देखा तो लल्ली को महिलाओं की भीड़ से घिरा पाया. अब तक उसे चेत हो आया था. सुबोध को देखते ही लल्ली फूट पड़ी. जैसे-तैसे करके इतना ही कह सकी कि सिद्धांत विक्षिप्त हो गया है ....वह निर्वस्त्र हो कर घूम रहा है.
समाप्त .
हर कहानी सुखान्त नहीं होती ....बल्कि यूँ कहें कि कुछ ही कहानियाँ होती हैं जो सुखान्त हो पाती हैं. आखिर हमें अपने चारो ओर घटने वाली घटनाओं के प्रति कुछ तो संवेदनशील होना ही चाहिए. वैचारिक अतिवाद, असहिष्णुता, धर्मांतरण और यौनशोषण की नित्य होती घटनाओं की असंख्य कहानियों का कोई एक शीर्षक कैसे हो सकता है ?
डॉक्टर साहब!
जवाब देंहटाएंपिछली पोस्ट पर टिप्पणी नहीं दे पाया था, कारण क्रमशः वाली कहानियां मैं पीछे से पढ़ना शुरू करता हूँ अर्थात जबतक अंतिम अंक उपलब्ध न हो जाये..
यह कथा पढते हुए कभी 'चित्रलेखा' का ध्यान हो आया और कभी ओशो के विभिन्न प्रवचनों का.कुछ कथाएं प्रतिक्रया की मोहताज नहीं होतीं.. और डॉक्टर साहब, यह रचना एक मील का पत्थर है.. अंत में सिद्धांत का नंगा घूमना देखकर लगा कि काश उसने प्रारम्भ में ही स्वयं को नंगा कर लिया होता तो यूं नंगा न फिरना पड़ता..
झकझोरकर रख दिया है आपने.. शीर्षक चाहे कुछ भी हो, कथानक तो वही रहेगा न!!
kahaani ka ant padhkar na to asahaj hui na stabdh. kyonki bastar ki zindagi jaisa ki suna hai bahut hi sahaj aur saral hai, desh ke anya hisso se bilkiul alag ek anokhi duniya. is kahani ke sabhi paatra hamare aas paas hi rahte hain aur aisi ghatnaayen bhi hoti hain. nischit hi ye koi kahani nahin balki aapke saamne ghatit koi sach hai. bahut achchhi tarah aapne ise prastut kiya hai. aabhar.
जवाब देंहटाएंकौशलेन्द्र जी ,
जवाब देंहटाएंटिप्पणी बाद में करूँगा पहले यह बताइये कि क्या यह कहानी संस्मरणात्मक है या फिर इसे लेखक ने अपने तईं विकसित किया है ?
कहानी पढ़ने के लिए आप सबका धन्यवाद! मुझे संतोष है कि मैं अपनी वेदना आप सब तक पहुंचा सका. जहाँ तक संस्मरण या कहानी के विकास की बात है ....तो ऐसा प्रश्न पूछे जा सकने की संभावना थी. वस्तुतः यह कहानी कई घटनाओं का संयुक्त संस्मरण है. जैसी कि कहानियों की परम्परा है...स्थान, समय और नाम में परिवर्तन करना लेखक का अधिकार है और कई दृष्टियों से उचित भी. कुछ घटनाओं को मैंने अधूरा छोड़ दिया है...क्योंकि मुझे वैसा करना ठीक लगा....यथा, सिद्धांत की एक माह तक मेरे द्वारा चिकित्सा की गयी थी ....एक दिन उसके नाना ने आकर खबर सुनायी कि किसी ट्रक से कुचलकर उसकी भी मृत्यु हो गयी है. मेरे लिए इनमें से कोई भी पात्र दिवंगत नहीं हुआ है ...न कभी होगा. हमारे आसपास अभी भी दो सिद्धांत हैं और कई विदुषियाँ भी......हम किसी को भी बचा नहीं पा रहे हैं. लल्ली खुद ही संभल गयी, सुरेश चंदेल पहले ही शासकीय सेवा में था ....विवाह के बाद उसने अपना अन्यत्र स्थानान्तरण करवा लिया.
जवाब देंहटाएंसंविधानप्रदत्त धार्मिक स्वतंत्रता की आड़ में धर्मांतरण की कुटिल लीला .....दैहिक शोषण ......अपने ही अंतर्द्वंद्व में उलझकर विक्षिप्त होते लोग ......गिरकर संभलने वाली लल्लियाँ और सीधे सरल सुबोध जैसे पात्र बस्तर से लेकर सीमावर्ती उड़ीसा तक में सरलता से मिल जायेंगे. व्यक्तिगत रूप से मैं लल्ली से सर्वाधिक द्रवित हुआ हूँ .....उसने जीवन भर सबको दिया है ..कभी किसी से कुछ लिया नहीं .....जब भी लल्ली का चेहरा मेरे सामने आता है मेरी आँखें जार-जार बह उठती हैं.
कौशलेन्द्र जी ,
जवाब देंहटाएंजैसा कि मैने कहा कि टिप्पणी बाद में करूँगा सो अब टिप्पणी ...
कहानी आपने आस पास की घटनाओं को गूंथ कर कही है सो उसकी अगढ़ता दिखती है ! इसके बावजूद आप वह सन्देश दे पाते हैं जो देना आपने तय किया था ! पहली किश्त में पात्रों की बाँध किनारे की उपस्थिति उनकी प्रतिक्रिया से बड़ी अस्वाभाविक लगती है जैसे कि सिद्धांत और विदुषी एकांत यायावरी और साहचर्य के लिए साथ निकलते तो हैं पर नायिका का स्पर्श नायक को पाप जैसा लगता है ! क्या यह अपराध बोध अन्य दो पात्रों की उपस्थिति के कारण हुआ यह केवल आप ही बेहतर कह सकते हैं ! खैर इस कथा के कुछ बिंदु जो मुझे स्पष्ट हुए ...
(१) लल्ली 'स्थानीय' पीड़ित है जिसे एक 'बहिरागत' सुरेश चंदेल ने छला भले ही वह अपनी परवरिश जन्य सामर्थ्य के कारण जीवन में संघर्ष कायम रख पाई ! सुबोध और उसके बाँध घूमने का प्रसंग समझ में नहीं आया !
(२) विदुषी और सिद्धांत भी बहिरागत जोड़ा है अतः उनका प्रेम अज्ञात कारणों से असहज है अप्राकृतिक है !
(३) विदुषी को सिद्धान्त की धर्मनिष्ठता या भीरुता या खोखले आदर्शवाद के कारण छल मिला जबकि वो स्वयं गाजियाबाद के शुक्ल की ब्राह्मण पुत्री है और सिद्धांत से कमतर नहीं है !
(४) जिसका हाथ स्वयं सिद्धांत ना थाम सका तद्जन्य उसके मार्ग भटकाव पर उसे 'देशद्रोही जैसा' कहना भयंकर अपरिपक्वता है !
(५) विदुषी बहिरागत थी और पलायन कर गया वह पादरी भी बहिरागत था जिस पर यौन हिंसा का संकेत यह कथा देती है !
तो फिर बिंदु क्रमांक १-४ तक में बहिरागतों की शिकार लल्ली मात्र ही स्थानीय है वर्ना स्थानीय जनसमुदाय का इस असहज प्रेम कथा /शोषण / संबंधों की भीरुता से क्या लेना देना ?
धर्मान्तरण बहिरागतों का आयोजन / उससे आधी अधूरी टक्कर बहिरागतों का आयोजन / यौन असहजता / शोषण , बहिरागतों का आयोजन / जीवन तनाव और मानसिक संतुलन खोना बहिरागतों की अपनी जीवनचर्या ! इसमें बस्तर की स्थानीयता जो अत्यंत सहज है ,के हाथ केवल छल ही आता दिखता है जोकि उन्हें बहिरागतों का मान ना मान मैं तेरा मेहमान की तर्ज़ वाला तोहफा है :(
( कथा से इतर एक घटना जो नेलसनार में हुई थी , कि पादरी पर उसके ड्राइवर की पत्नी ने यौन शोषण का आरोप लगाया था वर्ना ब्राह्मण परिवार की किसी कन्या के ईसाई मिशनरी होने और इस तरह की घटना में मारे जाने का वाकया दक्षिण ,मध्य बस्तर में सुना नहीं या शायद हुआ हो ? स्मरण नहीं )
अद्भुत
जवाब देंहटाएंकहानी का शब्द-शिल्प,बुनावट का सौंदर्य, इसमें छुपा दर्शन, धर्म-मर्म के बीच का द्वंद्व..और सबसे बड़ी बात जीवन के वास्तविक धरातल पर पात्रों की मौजूदगी का एहसास कहानी को शिखर पर ले जाते हैं। इस पर तो लम्बा विमर्श छिड़ सकता है। इसे पढ़ते ही लगता है कि लेखक कहानी के आस पास ही जी रहा है..सहज प्रश्न था अली सर का और वैसा ही सहज उत्तर भी पढ़ने को मिला।
बस्तर के सीने में चुभे नश्तर को उघाड़ कर रख दिया है आपने कि देखो! कितने ज़ख्म हैं यहां..।
:( पहली कड़ी पढते हुए अन्दाज़ भी नहीं था कि कथा इतनी मार्मिक हो जायेगी।
जवाब देंहटाएंआप सभी ने इस किस्से को पढ़ने के लिए समय दिया, इसके लिए धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंसलिल भाई ! सिद्धांत जैसे कुछ लोग आजीवन द्वंद्व में फसे रहते हैं. आदर्शों के पुस्तकीय आकर्षण और इन्द्रियों के बलात निग्रह की पारस्परिक अभिक्रिया से सिद्धांत जैसे लोगों का आचरण निर्मित होता है....इनका अपना स्वयं का कोई चिंतन नहीं होता ....ऋषियों के चिंतन को आत्मसात करने के लिए स्वयं का चिंतन आवश्यक है जो सिद्धांत के पास नहीं था. चिकित्सकीय जीवन में बहुत विचित्र आचरण और खूब उलझे व्यक्तित्व वाले लोगों से मिलना होता रहता है....
अली जी ! इतनी अच्छी समीक्षा के लिए आपका ऋणी हूँ....हृदय से आभारी हूँ.
@ कहानी आपने आस पास की घटनाओं को गूंथ कर कही है सो उसकी अगढ़ता दिखती है
इसे आप किस्सा कह सकते हैं. मैंने कई चरित्रों को आपस में गूंथने का अनाड़ीपन किया है. कोई बहाना नहीं बनाऊंगा .... शिल्प की अगढ़ता मुझे भी लग रही है. ....किन्तु आपकी समीक्षा दिशानिर्धारक होने से प्रशंसनीय है. ऐसी समीक्षाएं स्वागत योग्य हैं.
@ पहली किश्त में पात्रों की बाँध किनारे की उपस्थिति उनकी प्रतिक्रिया से बड़ी अस्वाभाविक लगती है जैसे कि सिद्धांत और विदुषी एकांत यायावरी और साहचर्य के लिए साथ निकलते तो हैं पर नायिका का स्पर्श नायक को पाप जैसा लगता है !
सिद्धांत से हुयी प्रारम्भिक चर्चा में ही विदुषी ने स्पष्ट कर दिया है कि "..... आपका मन चाहता क्या है ...प्रायः यही नहीं पता होता है आपको"
नायक अपने अंतर्द्वंद्व से उबर नहीं पाता .....किन्तु विदुषी उसके अंतर्मन को भलीभांति बांच पाने में समर्थ है ...वह बिंदास भी है ........इसी कारण सिद्धांत की गांठें खोलने में उसका सहयोग करना चाहती है ...किन्तु सिद्धांतविहीन सिद्धांत अपने आवरणों के मोह से ग्रस्त है. ऐसा आचरण पुरुषों में ही देखने को मिल सकता है स्त्रियों में नहीं ......कम से कम मेरा अनुभव तो यही है.
@ सुबोध और उसके बाँध घूमने का प्रसंग समझ में नहीं आया !
बस्तर में मितान परम्परा रिश्तों की बड़ी ही अनूठी और निश्छल परम्परा है. सुबोध और लल्ली के बीच संवेदनाओं का आत्मीय रिश्ता है ....जोकि स्वाभाविक है. पता नहीं लल्ली आज कहाँ होगी ...पर मेरे और उसके बीच एक आत्मीय रिश्ता बन चुका है. यही रिश्ता सुबोध और उसके बीच प्रकट हुआ है.
@ विदुषी और सिद्धांत भी बहिरागत जोड़ा है अतः उनका प्रेम अज्ञात कारणों से असहज है अप्राकृतिक है !
सिद्धांत प्रेम में नहीं.. प्रेम के द्वन्द में है. प्रेम कभी असहज और अप्राकृतिक नहीं होता ....बशर्ते वह प्रेम ही हो ....दैहिक आकर्षण नहीं. यदि हम सिद्धांत के मन का विश्लेषण करें तो स्पष्ट जाएगा कि उसका द्वंद्व प्रेम को वासना और अपवित्र समझने के कारण है ..यही उसकी अपरिपक्वता है. वह प्रेम और वासना के अंतर को समझ नहीं पा रहा है .
बिंदु ३- विदुषी जीवन को यथावत स्वीकार करना चाहती है ...बिना किसी आवरण के. इसीलिये वह बिंदास है ....और इसके लिए उसके पास पर्याप्त तर्क भी हैं.
बिंदु ४- सहमत हूँ, यही अपरिपक्वता समाज से लेकर शासन तक सभी जगह व्याप्त दिखाई दे रही है.
बिंदु ५- दोनों बहिरागत हो भी सकते हैं और नहीं भी....अब तो बस्तर के ही स्थानीय लोग भी पादरी बन रहे हैं. तथापि, बहिरागत होने से ही किसी को कुछ भी करने की आधिकारिक स्वतंत्रता प्राप्त नहीं हो जाती.
@ बस्तर की स्थानीयता जो अत्यंत सहज है ,के हाथ केवल छल ही आता दिखता है जोकि उन्हें बहिरागतों का मान ना मान मैं तेरा मेहमान की तर्ज़ वाला तोहफा है :(
स्थानीय और बहिरागत की जीवन शैली में भिन्नताएं हैं पर इस किस्से में यह मूल विषय नहीं है. मूल विषय है आदर्शों के पाखण्ड में फसा चरित्र, बस्तर की निश्छलता, बस्तरिया का शोषण और धर्मांतरण का फैलता जाल.
@.बहिरागतों की शिकार लल्ली मात्र ही स्थानीय है वर्ना स्थानीय जनसमुदाय का इस असहज प्रेम कथा /शोषण / संबंधों की भीरुता से क्या लेना देना ?
परिवेश कोई भी हो ...स्थानीय या बहिरागत में हम समाज को बाँट नहीं सकते...दोनों एक-दूसरे पर प्रभाव डालते ही हैं. परम्पराओं और विचारों का आदान-प्रदान मनुष्य समाज की स्वाभाविक परम्परा है. बिठूर में सात वर्ष रहकर लल्ली ने भी कुछ नए विचार और परम्पराएं सीखी हैं ...इसीलिये सिद्धांत और विदुषी को ऐसी स्थिति में देखकर मुह फेर लेती है. ( आजकल स्कूलों में चुम्बन और आलिंगन बिलकुल सामान्य बात हो गयी है ). समाज में एक-दूसरे से लेना-देना न होने के कारण ही समाज में विकर्षण बढ़ रहा है ...आपसी संबंधों की मधुरता यांत्रिक औपचारिकता में ढल गयी है.यह समाज का विघटन ही है.
@ अनुराग जी !
जवाब देंहटाएंपहली कड़ी पढते हुए अन्दाज़ भी नहीं था कि कथा इतनी मार्मिक हो जायेगी।
बस्तर का जीवन और इंग्लैण्ड की वारिश एक सी है. पल भर में क्या से क्या हो जाएगा ..कुछ पता नहीं. पहाडी नदी सा है यहाँ का जीवन ......अभी कुछ देर पहले उफान पर ....और अभी बिलकुल शांत. यहाँ की कुछ जनजातियों में मृत्यु को उत्सव की तरह मनाये जाने की परम्परा है. नाचते-गाते ढोल बजाते शव यात्रा के दृश्य शायद केवल बस्तर में देखने को मिल सकते हैं . हो सकता है कि रजनीश पर यहाँ का भी कुछ प्रभाव पडा हो.
पाण्डेय जी ! आपके विमर्श का स्वागत है ...प्रतीक्षा रहेगी ......