विक्रम संवत दो हज़ार अड़सठ के पूस माह के कृष्ण पक्ष द्वादशी का ब्राह्म मुहूर्त. कोहरे में डूबी धरती. ठिठुरते पेड़-पौधे. सीपल्स (...... की हिन्दी नहीं मालुम ...'अन्खुड़ियों' से काम चल जाये तो चला लीजिये ) के हरे कम्बल में लिपटी कलियाँ. ठण्ड में नीले पड़े होठों वाले फूलों की पंखुड़ियां. मोटी रजाइयों में दुबके बच्चों को अपने सीने से लगाए मम्मियाँ. ऑफिस लेट हो जाने की चिंता के बाद भी रजाई में सर ढके पापा लोग. बाहर निकलने में आनाकानी करता सूरज.....और पाले की परवाह किये बिना ......या यूँ कहिये कि उनको चुनौती सी देते हुए पूरब वाले बाग़ में खिरनी के पेड़ की ऊंची-ऊंची डालियों पर ब्राह्म मुहूर्त में कलरव के साथ अपनी दिनचर्या प्रारम्भ होने की सूचना देते परिंदे.
मैं उनकी कलरव का अभ्यस्त हूँ. वही, रोज की तरह विगत स्मृतियों की चर्चा .....कल के अनुभव....इंसान की करतूतों पर टिप्पणियाँ और आज कौन समूह किस दिशा में दाना-पानी की तलाश में जाएगा इस पर बुजुर्गों का दिशा निर्देश .....यही सब ...पर आज परिंदों ने जिस तरह हमारे ज्ञान, धरती के प्रति हमारी चिंता-व्याकुलता और उसकी सुरक्षा योजना को लेकर हमारी पूरे एक वर्ष की मेहनत और धुआँधार प्रचार का परिहास उड़ाया उससे मैं बहुत व्यथित हुआ हूँ. उन्हें हमारा परिहास उड़ाने की जगह सोकर उठने के बाद अपने दाना-पानी की तलाश में कहीं उड़ जाना चाहिए था. पर नहीं, उन्होंने हमारा परिहास उड़ाया.
शुरुआत उस नन्हें चंचल परिंदे चूंचूं ने की थी, " बापू ! दुनिया के खात्मे को लेकर आपने कोई योजना नहीं बतायी. आदमी को देखिये, कितने चिंतित हैं ...अगले वर्ष ठीक आज के ही दिन दुनिया ख़त्म होने वाली है. कोई खगोलीय पिंड आकर धरती से टकराने वाला है. वे लोग चिंतित हैं ....चिंतित हैं ...बहुत चिंतित हैं .....धरती को कैसे बचाया जाय इसकी योजनायें बना रहे हैं. कुछ लोगों ने तो साल भर पहले से ही लोगों को आगाह करना शुरू कर दिया था .....अगले वर्ष इक्कीस तारीख के बाद बाइस दिसंबर सन दो हज़ार बारह की सुबह दुनिया ख़त्म हो जायेगी. महंगी-महंगी किताबें लिख मारी हैं लोगों ने .....नेट पर विज्ञापन आ रहे हैं ....सावधान ! सारे भविष्यवक्ताओं, वैज्ञानिकों, चिंतकों, साधुओं, कवियों, खगोलविदों और ऐरे-गैरे नत्थूखैरों की भविष्यवाणी सत्य होने में मात्र एक वर्ष शेष रह गया है....अधिक जानने के लिए खरीदें हमारी पुस्तक ......मात्र ....डॉलर में. शीघ्र करिए ...सीमित स्टॉक.....सिर्फ आपके लिए "
भुनभुन चिड़िया ने भी चूंचूं के सुर में सुर मिलाया ..."हाँ ठीक ही तो .....दादू तो एकदम बेफिक्र हैं ...इन्हें दुनिया ख़त्म होने की कोई चिंता ही नहीं है. रोज सुबह उठो ...गपियाओ और उड़ चलो दाना-पानी के लिए ...बस. पता नहीं ये इंसानों की तरह चिंतित होना कब सीखेंगे. दो हज़ार ग्यारह ख़त्म होने वाला है और ये अभी तक ज़रा भी चिंतित नहीं हैं ...एक साल रह गया है दुनिया ख़त्म होने में ...."
खीखी चिड़ा ने ख्हिस से हंस दिया.....उसकी यह पुरानी आदत है ...बच्चों का मज़ाक उड़ाना. सो वह बोला - " कब से कह रहा हूँ दादा से कि इन बच्चों को इंसानी शहरों की तरफ मत भेजा करो. स्कूली बच्चों के मध्याह्न भोजन-उच्छिष्ट के लोभ ने इन्हें संस्कार भ्रष्ट कर दिया है. इंसानी बच्चों की सोहबत में न जाने कैसी ऊट-पटांग बातें सीख रहे हैं. अब दादा ही संभालें इन्हें मैं तो चला धान वाली टपरिया."
कूँ चिड़िया बड़ी सयानी थी, उसने खीखी की बात का समर्थन किया, बोली- "बच्चो ! दुनिया ख़त्म होने की पहली सूचना विधाता हम परिंदों को ही देता है ...हमें तो अभी तक ऐसी कोई सूचना मिली नहीं है ..इसलिए तुम लोग निश्चिन्त रहो.....और फिर यदि कभी ऐसा हुआ भी तो विधाता की शान में कोई क्या हिमाकत कर सकेगा ...कोई है इतना ताकतवर जो धरती को बचा सके ? इन इंसानों से छोटे-मोटे सूनामी तो रोके नहीं जाते ...उसकी छोड़ो ...इंसानी व्यवस्था इंसानी अव्यवस्था तक को तो संभाल नहीं पाती धरती को बचायेंगे क्या ख़ाक? ये इंसान धरती की सबसे अवसरवादी प्रजाति है जो मौत में से भी व्यापार के सूत्र निकाल लेती है ....आदम हउआ की औलादें हैं ये ......बात-बात पर हउआ खड़ा करके पैसे कमाना इनकी फितरत है .....सो ये किताबें लिखकर बेच रहे हैं ..और बेवकूफों को और भी बेवकूफ़ बना रहे हैं . धरती से कोई पिंड टकराने वाला होगा भी तो क्या उसे रोक लेंगे ये मुए .....?"
नीनू चिड़ा इंसानों से बहुत चिढा रहता था, उसे मौक़ा मिल गया...."ये आदम हउआ की हरामजाद औलादें ........."
गिग्गी चिड़ा ने नीनू को बीच में ही डाँटा, बोला - "पहले तमीज सीखो, इंसानों की तरह ये अपशब्द बोलना कब से सीख लिया तुमने .....हमारे संस्कारों की इस तरह उपेक्षा करते शर्म नहीं आयी तुम्हें. हम परिंदे हैं ..हमारी उच्च संस्कृति है ...इसीलिए पूरी धरती पर हमारा साम्राज्य है ...हमें कहीं वीसा नहीं लेना पड़ता ...कोई पासपोर्ट नहीं दिखाना पड़ता ...ईश्वर ने हमारी सर्वोत्कृष्ट संस्कृति के कारण ही हमें ये अखंड वरदान प्रदान किये हैं. खबरदार जो अब कभी किसी को भी गाली दी."
माहौल अनायास ही गंभीर हो गया. चूंचूं और भुनभुन को लगा कहीं अब उनकी भी खबर न ली जाय....सो उन्होंने बात बदलते हुए पूछा, " आज हम जंगल की नदी वाले कछार की तरफ जाएँ क्या...उधर इंसानी बच्चे नहीं आते? "
तुलसी इस संसार में, निर्भय होकर सोय
जवाब देंहटाएंअनहोनी होनी नहीं, होनी हो सो होय।
कभी नास्त्रेअदेमस, कभी माया वालों का 2012, कभी UN का एड्स हौव्वा तो कभी कुछ और - भयादोहन भी मार्केट का एक फ़ंडा है शायद। लेकिन डाक्टर साहब अपने को मस्त लगा जब पढ़ा कि मैक्सिको में इसी कयामत को सेलिब्रेट करने के लिये जश्न शुरू हो रहा है।
हव्वा की औलाद तो हमेशा से अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मरने पर आमादा रही है, शुक्र है कि इस दुनिया में हम दोपायों के अलावा और प्रजातियां भी हैं।
balak is katha ko padh khush hua........
जवाब देंहटाएंpranam.
यह रचना आधुनिक अनुकरण प्रवृत्ति और अपसंस्कृति की दशा का वास्तविक चित्रण है।
जवाब देंहटाएंसार्थक चिंतन !
जवाब देंहटाएंपरिंदों के हवाले से हमने भी कुछ लिखा था कभी http://ummaten.blogspot.com/2009/11/blog-post_17.html
एक सनसनाता...करारा...तमाचा...हमारी अवसरवादी वृत्ति पर...
जवाब देंहटाएं@ हरे कम्बल में लिपटी कलियाँ. ठण्ड में नीले पड़े होठों वाले फूलों की पंखुड़ियां.
@ पूरब वाले बाग़ में खिरनी के पेड़ की ऊंची-ऊंची डालियों पर ब्राह्म मुहूर्त में कलरव के साथ अपनी दिनचर्या प्रारम्भ होने की सूचना देते परिंदे.
बहुत सुन्दर प्रस्तुतिकरण कौशलेन्द्र जी...
चूंचूं...भुनभुन...खीखी..कूँ..नीनू...गिग्गी....मुझे तो आपका यह नामकरण भी बहुत पसंद आया......
सुंदर सार्थक सटीक चित्रण बेहतरीन पोस्ट,......
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