संतों के प्रवचनों में माया के ठगिनी होने के आरोपों के साथ उसके परित्याग करने का सन्देश हम सब न जाने कितनी बार सुन चुके हैं. पर इस ठगिनी का परित्याग हो कैसे, यह कोई नहीं बताता. जनसाधारण के लिए " परित्याग कर दो " कह देने से काम नहीं चलता. एक प्रश्न और भी है, माया का परित्याग क्यों ? संतों के प्रवचन एक साधारण व्यक्ति के मन में माया के परित्याग की कोई स्पष्ट रूपरेखा बना सकने में सफल नहीं हो सके हैं.
किसी किसान के लिए बड़ा दुष्कर है अपनी कृषिउपज के अपर्याप्त मूल्य प्राप्त होने या प्राकृतिक प्रकोप से हुयी क्षति को माया मानकर अप्रभावित बने रहना. किसी चिकित्सक के लिए भी दुष्कर है शरीर में हो रही किसी वैकृतिक प्रक्रिया को माया मान कर उसका परित्याग कर देना. परिवर्तन ही तो कारण है भौतिक जगत का और इस सार युक्त संसार का....जिसे हम "संसार निस्सार है" कहकर उपेक्षित करते रहे हैं. चार पुरुषार्थों के लिए कर्म योग सिखाने वाला भारतीय दर्शन अनायास माया के परित्याग की बात कैसे कर सकता है ? कहीं हम ही तो माया के स्वरूप को समझने में त्रुटि नहीं कर रहे ?
जो स्थिर नहीं है ....सतत परिवर्तनशील है ..गतिशील है ....वह जगत है, क्षरणयुक्त है, नाशवान है, भौतिक है पर संसार की अपेक्षा से उपेक्षणीय नहीं है ...इसलिए असत्य नहीं है ...सारवान है यह संसार. फिर इस सारवान संसार का परित्याग कैसे हो ? ...क्यों हो ? भौतिक और पराभौतिक विज्ञान के सम्मिलित दृष्टिकोण से देखें तो परिवर्तन ही माया समझ में आती है. इस परिवर्तन का परित्याग कैसे हो ?
परिवर्तन ही ब्रह्माण्ड के व्यक्त स्वरूप की अनिवार्य शर्त है. इसकी उपेक्षा जीवन की उपेक्षा है ...उस जीवन की जो चार पुरुषार्थों का साधन है ......और मोक्ष का भी. चीनी दर्शन में व्यक्त जगत के सभी विपरीत पक्षों को एक-दूसरे का पूरक माने जाने के कारण भौतिक एवं आध्यात्मिक पक्षों का समान समावेश किया गया है. बौद्ध दर्शन भी परिवर्तन और रूपांतरण को प्रकृति का अनिवार्य तत्व मानता है. सुख और दुःख परस्पर सापेक्ष हैं ...पाप और पुण्य भी.....और ये स्थितियाँ भी परिवर्तनशील हैं. तब पलायन से काम नहीं चलने वाला ....इनसे होकर आगे बढ़ना होगा. ...इन्हें स्वीकार करना होगा....सभी विपरीत ध्रुवों के मध्य एक गत्यात्मक संतुलन बनाना होगा....यही है छाया और प्रकाश का परिवर्तन कारी चक्र जिसे चीनी दर्शन के प्रतीक रूप में ताई ची तू के नाम से जाना जाता है. अभी हम अन्धकार की ...तम की बात नहीं कर रहे हैं ...छाया की बात कर रहे हैं ...छाया, जो प्रकाश का दूसरा ध्रुव है .... और प्रकाश को किसी के द्वारा अवरोधित करने का परिणाम है. यह अवरोध ही विस्तार है दोनों ध्रुवों का. हम इस विस्तार के किसी बिंदु पर खड़े हैं. हमारा सारा संघर्ष इन्हीं अवरोधों को लेकर है. एक समाप्त होता है तो दूसरा आ जाता है ....दूसरा समाप्त होता है तो तीसरा .....क्रम सतत चलता रहता है....पलायन की कहीं कोई गुंजाइश नहीं. प्रकाश और छाया के मध्य के विस्तार में परिवर्तनों और रूपांतरणों की माया है जो इस ब्रह्माण्ड का स्वभाव है. एनर्जी और मैटर का पारस्परिक रूपांतरण गत्यात्मक है ....YIN और YANG दो विपरीत स्थितियाँ है ...और बीज रूप से एक दूसरे के अन्दर समाई हुयी हैं किन्तु उनके मध्य एक निश्चित संतुलन है. यह संतुलन ही जापानियों के ZEN दर्शन का सार है. जापानी लोग निष्क्रिय जीवन की अपेक्षा सक्रिय एवं फलप्रद जीवन की साधना करते हैं. ZEN साधना भारतीयों का संन्यास नहीं अपितु जीवन के स्वभाव को सहजता से प्राप्त होने देने की प्रक्रिया है.
अभी छाया और प्रकाश की चर्चा की. अब तम को लें, सत्व और तम दो ध्रुव हैं जिनका विस्तार है रज. सृष्टि के आरम्भ के पूर्व जब सतो गुण नहीं था ......प्रकाश नहीं था .....ऊर्जा का कोई स्पष्ट स्वरूप नहीं था ....अव्यक्त के व्यक्त होने से पूर्व ......न कर्ता था न कर्म ...तब तीनो आदि गुण अव्यक्तावस्था में थे...यह प्रकाश और अन्धकार से परे की कोई स्थिति थी. मैटर जब अस्तित्व में आया तभी प्रकाश भी अस्तित्व में आया. मैटर की माया से विरक्ति इतनी सहज नहीं है. स्वाभाविक परिवर्तन को स्वीकारना और उसे होने देना भी सहज नहीं है. जब हम स्वाभाविकता को स्वीकार कर लेंगे तो माया के आकर्षण का मोह स्वतः ही समाप्त हो जाएगा. गीता का कर्म योग भी परिणाम से निर्लिप्त रहते हुए कर्म किये जाने का है ....स्वाभाविक कर्म....जिसे होना ही है. जीवन से मृत्यु तक के विस्तार का हर परिवर्तन स्वाभाविक ही तो है.
किसी किसान के लिए बड़ा दुष्कर है अपनी कृषिउपज के अपर्याप्त मूल्य प्राप्त होने या प्राकृतिक प्रकोप से हुयी क्षति को माया मानकर अप्रभावित बने रहना. किसी चिकित्सक के लिए भी दुष्कर है शरीर में हो रही किसी वैकृतिक प्रक्रिया को माया मान कर उसका परित्याग कर देना. परिवर्तन ही तो कारण है भौतिक जगत का और इस सार युक्त संसार का....जिसे हम "संसार निस्सार है" कहकर उपेक्षित करते रहे हैं. चार पुरुषार्थों के लिए कर्म योग सिखाने वाला भारतीय दर्शन अनायास माया के परित्याग की बात कैसे कर सकता है ? कहीं हम ही तो माया के स्वरूप को समझने में त्रुटि नहीं कर रहे ?
जो स्थिर नहीं है ....सतत परिवर्तनशील है ..गतिशील है ....वह जगत है, क्षरणयुक्त है, नाशवान है, भौतिक है पर संसार की अपेक्षा से उपेक्षणीय नहीं है ...इसलिए असत्य नहीं है ...सारवान है यह संसार. फिर इस सारवान संसार का परित्याग कैसे हो ? ...क्यों हो ? भौतिक और पराभौतिक विज्ञान के सम्मिलित दृष्टिकोण से देखें तो परिवर्तन ही माया समझ में आती है. इस परिवर्तन का परित्याग कैसे हो ?
परिवर्तन ही ब्रह्माण्ड के व्यक्त स्वरूप की अनिवार्य शर्त है. इसकी उपेक्षा जीवन की उपेक्षा है ...उस जीवन की जो चार पुरुषार्थों का साधन है ......और मोक्ष का भी. चीनी दर्शन में व्यक्त जगत के सभी विपरीत पक्षों को एक-दूसरे का पूरक माने जाने के कारण भौतिक एवं आध्यात्मिक पक्षों का समान समावेश किया गया है. बौद्ध दर्शन भी परिवर्तन और रूपांतरण को प्रकृति का अनिवार्य तत्व मानता है. सुख और दुःख परस्पर सापेक्ष हैं ...पाप और पुण्य भी.....और ये स्थितियाँ भी परिवर्तनशील हैं. तब पलायन से काम नहीं चलने वाला ....इनसे होकर आगे बढ़ना होगा. ...इन्हें स्वीकार करना होगा....सभी विपरीत ध्रुवों के मध्य एक गत्यात्मक संतुलन बनाना होगा....यही है छाया और प्रकाश का परिवर्तन कारी चक्र जिसे चीनी दर्शन के प्रतीक रूप में ताई ची तू के नाम से जाना जाता है. अभी हम अन्धकार की ...तम की बात नहीं कर रहे हैं ...छाया की बात कर रहे हैं ...छाया, जो प्रकाश का दूसरा ध्रुव है .... और प्रकाश को किसी के द्वारा अवरोधित करने का परिणाम है. यह अवरोध ही विस्तार है दोनों ध्रुवों का. हम इस विस्तार के किसी बिंदु पर खड़े हैं. हमारा सारा संघर्ष इन्हीं अवरोधों को लेकर है. एक समाप्त होता है तो दूसरा आ जाता है ....दूसरा समाप्त होता है तो तीसरा .....क्रम सतत चलता रहता है....पलायन की कहीं कोई गुंजाइश नहीं. प्रकाश और छाया के मध्य के विस्तार में परिवर्तनों और रूपांतरणों की माया है जो इस ब्रह्माण्ड का स्वभाव है. एनर्जी और मैटर का पारस्परिक रूपांतरण गत्यात्मक है ....YIN और YANG दो विपरीत स्थितियाँ है ...और बीज रूप से एक दूसरे के अन्दर समाई हुयी हैं किन्तु उनके मध्य एक निश्चित संतुलन है. यह संतुलन ही जापानियों के ZEN दर्शन का सार है. जापानी लोग निष्क्रिय जीवन की अपेक्षा सक्रिय एवं फलप्रद जीवन की साधना करते हैं. ZEN साधना भारतीयों का संन्यास नहीं अपितु जीवन के स्वभाव को सहजता से प्राप्त होने देने की प्रक्रिया है.
अभी छाया और प्रकाश की चर्चा की. अब तम को लें, सत्व और तम दो ध्रुव हैं जिनका विस्तार है रज. सृष्टि के आरम्भ के पूर्व जब सतो गुण नहीं था ......प्रकाश नहीं था .....ऊर्जा का कोई स्पष्ट स्वरूप नहीं था ....अव्यक्त के व्यक्त होने से पूर्व ......न कर्ता था न कर्म ...तब तीनो आदि गुण अव्यक्तावस्था में थे...यह प्रकाश और अन्धकार से परे की कोई स्थिति थी. मैटर जब अस्तित्व में आया तभी प्रकाश भी अस्तित्व में आया. मैटर की माया से विरक्ति इतनी सहज नहीं है. स्वाभाविक परिवर्तन को स्वीकारना और उसे होने देना भी सहज नहीं है. जब हम स्वाभाविकता को स्वीकार कर लेंगे तो माया के आकर्षण का मोह स्वतः ही समाप्त हो जाएगा. गीता का कर्म योग भी परिणाम से निर्लिप्त रहते हुए कर्म किये जाने का है ....स्वाभाविक कर्म....जिसे होना ही है. जीवन से मृत्यु तक के विस्तार का हर परिवर्तन स्वाभाविक ही तो है.
एक अच्छे / चिंतनपरक आलेख पे इतना प्रतिक्रियात्मक सन्नाटा देख कर दुःख हुआ !
जवाब देंहटाएं( बड़ी मेहनत से एक टिप्पणी लिखी थी जो गूगल महराज लील गये देखता हूं जो दोबारा लिख पाऊं )
अली जी ! जंगल के इस कोने में आपके प्रथम आगमन पर आपका हार्दिक स्वागत है .
जवाब देंहटाएं@ इतना प्रतिक्रियात्मक सन्नाटा देख कर दुःख हुआ!
अभी तक पूरे विश्व में आठ लोग इस आलेख को पढ़ चुके हैं. टिप्पणी इतनी आवश्यक नहीं है जितना आवश्यक है इस पर चिंतन कर अपने अन्दर के सन्नाटे को तोड़ना.
डॉक्टर साहब!
जवाब देंहटाएंथा नहीं इसलिए विलम्ब हुआ.. मेरी हाजिरी यहाँ पर हमेशा लगती है.. कुछ सीखता हूँ, कुछ अभिव्यक्त कर पाता हूँ, कुछ तर्क प्रस्तुत कर लेता हूँ.. अपनापन सा लगता है हर पोस्ट में..
आज की पोस्ट का व्यावहारिक पक्ष सचमुच एक नयी सोच को जन्म देता है!! आभार डॉक्टर साहब!!