मनोज भैया !...सलिल भैया !
एगो सच्चा खीसा सुनावतानी ....
.......................
वर्षों बाद
बड़ी हुलस के साथ
मैं गाँव गया था,
सोचा था ....
नीम को निहारूंगा
डालकर उसके नीचे खटिया.
बैठूंगा थोड़ी देर
बूढ़े बरगद के नीचे,
करूंगा बातें
उसकी लाल-लाल कोंपलों से.
पूछूंगा हाल
उसकी लटकती जड़ों से.
खेत में जा सहलाऊंगा
मूंगफली की पत्तियाँ
कुरेद कर देखूंगा उसके सुतरे -
मूंगफली कितनी बड़ी है अभी
फिर दबा दूंगा माटी में बड़े प्यार से.
पूछूँगा गन्ने से
अब मैं बड़ा हो गया हूँ
उंगली तो नहीं चीर दोगे मेरी ?
वह हँस कर झूम उठेगा ..
कहेगा -
मेरी पत्तियों को छेड़ोगे
तो सजा आज भी मिलेगी.
मैं कहूंगा -
रे घमंडी !
आज तक नहीं बदला तू
वह भरे गले से कहेगा ,
आँखों में भरकर आंसू -
तू भी कहाँ बदला रे !
तभी आवाज़ देगी मुझे
खेत में झूमती हरी-हरी मटर
मैं कहूंगा -
फलियाँ आज भी कितनी नवेली सी हैं ...
वह लजा कर कहेगी-
अब वह बात कहाँ !
खाद ने चूस लिया सारा रस
अब तो बस ....
......................
कल्पना के पंख
टूट गए एक ही झटके में.
मैं गाँव में ही
गाँव को खोजता रहा
बूढा बरगद
कहीं खोजने से भी नहीं मिला.
गन्ने का स्थान मिर्च ने ले लिया था.
मटर के खेत की जगह
कोल्ड स्टोरेज खड़ा था
और......
नीम का पेड़
अब मात्र हमारी कल्पना में रह गया था .....
छुटकू ने कटवा दिया है उसे......
रोज-रोज पत्तियाँ गिराता नीम
उसकी नयी नवेली बहू को
बिलकुल भी पसंद नहीं है.
"नयी रोशनी"
सूरज के इतने ख़िलाफ़ क्यों है ......?
अँधेरे का रहस्य गहराता जा रहा है
वैज्ञानिक कहते हैं .....
कि कृष्ण विवर में बहुत शक्ति होती है .....
प्रकाश को भी निगल लेती है.....
सचमुच मुझे डर लगने लगा है....
मैं वापस आ गया हूँ
अब कभी गाँव नहीं जाऊंगा.
वहाँ
एक विकलांग शहर उग रहा है.
गज़बे लिखले हउआ अउर कसम खइले हउआ कि तोहार ना पढ़ब!
जवाब देंहटाएंकौशलेन्द्र जी,..
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर लिखा आपने,..अब तो गाँव का परिवेश बदल रहा है ..
सुंदर प्रस्तुति..बधाई अच्छी कोशिश ...
मेरे नई पोस्ट..आज चली कुछ ऐसी बातें, बातों पर हो जाएँ बातें
ममता मयी हैं माँ की बातें, शिक्षा देती गुरु की बातें
अच्छी और बुरी कुछ बातें, है गंभीर बहुत सी बातें
कभी कभी भरमाती बातें, है इतिहास बनाती बातें
युगों युगों तक चलती बातें, कुछ होतीं हैं ऎसी बातें......
ए हो पांडे जी ! ठीके जनले हउआ, कसमे खइले हईं ...लीटी-चोखा खिअइबा का ....? कहs तs आयीं ....फ़ोकट मं पढ़े ना आइब.
जवाब देंहटाएंबनारस के ठंडी मं मूड़ी के मफलर गले मं सरक जाला ...सांप नियन ......आ ओह पटरी से आवत नगिनिया से हम कइसे निपटब ? खुद त अंगुरी चबात हउआ ...हम का चबाइब ?
धीरेन्द्र जी ! हमारे जंगल में आपके प्रथम आगमन पर स्वागत है .....आपकी नयी पोस्ट का अवलोकन किया है.
"नयी रोशनी"
जवाब देंहटाएंसूरज के इतने ख़िलाफ़ क्यों है ......?
सत्यपरक चिंतन!! शुभकामनाएं
चढ़ियेगइल लीटी-चोखा हमरे कपारे पे! साइत निकारेके परी...अउर बोलाइब तs आवे के परी..। अबहिन त हमार फोकटवाला थंकू से काम चलाईंजी...थंकू।
जवाब देंहटाएंई कविता मा सलिल भैया के खोजत रहला त सोचलीं की बता देई ऊ आजकल केहर ब्यस्त हउअन। अकेल्ले हमहीं नाहीं बुतायल हई माहुरिया से।
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंkaushalendr sir - beautiful beautiful expression - very touching
जवाब देंहटाएंthanks for this ...