मंगलवार, 12 जून 2012

सोनागाछी .

च्चीस अगस्त को मुम्बई के गेटवे ऑफ़ इण्डिया और झवेरी बाज़ार में उग्रवादियों द्वारा दो भयानक बम विस्फ़ोट किये गये । मुम्बई भ्रमण के लिये आये पाठक जी विस्फ़ोट से कुछ ही मिनट पहले गेटवे ऑफ़ इण्डिया से होकर निकले थे। मृत्यु और जीवन के बीच समय की एक क्षीण रेखा को पार कर वे विजयी हो चुके थे पर यह विजय उन्हें प्रसन्नता नहीं दिला सकी। धमाके की आवाज़ सुनकर वे वापस पलटे। क्षत-विक्षत शवों और रक्तरंजित घायलों को देख भावुक हृदय पाठक जी वहीं रो पड़े। अनायास ही उन्हें पत्नी और बच्चों की स्मृति ने आ घेरा।

  इस भीषण आतंकी घटना के पश्चात् उनके जीवन में दो महत्वपूर्ण परिवर्तन हुये। एक तो यह कि वे अब नियमित रूप से पूजा-पाठ करने लगे थे और दूसरा यह कि उन्होंने नियमित दैनन्दिनी लेखन को अपना मित्र बना लिया। आतंकवादी घटना ने उन्हें जीवन के प्रति संवेदनशील बना दिया था। समाज की हर छोटी-बड़ी घटना का वे सूक्ष्मावलोकन करते और फिर अपने तरीके से उसका विश्लेषण करते। रात में जब वे उस विश्लेषण को शब्दों के परिधान से सुसज्जित करते तो उनकी दैनन्दिनी में वह घटना एक कहानी बन जाती।

 अभी कुछ दिन पहले वे अपने नगर के एक परिचित सेठ के साथ उनके व्यापारिक कार्य में सहयोग करने कोलकाता गये थे। वहाँ से लौटते ही वे लिखने के लिये अधीर हो उठे, स्नान व भोजन से निवृत्त होकर जब वे बैठे तो जो कहानी कागज पर उतरी वह कुछ इस प्रकार थी-

दिनांक- 09-09-2003, कोलकाता। होटल नीरानन्द से नीचे उतरकर सेठ धरमचन्द ने टैक्सी चालक को आदेश दिया- “के.सी. दास की दुकान।“

टैक्सी में बैठते-बैठते सेठ जी ने अपने ज्ञान को प्रकट किया, बोले- “दुनिया में रसगुल्ले की खोज सबसे पहले इसी दुकान में हुयी थी।“

थोड़ी ही देर में टैक्सी के.सी. दास की दुकान के सामने खड़ी थी। दुकान में पहुँचते ही सेठ जी ने कूपन ख़रीदा और नौकर से फ़रमाया – “दो जगे रसगुल्ला और सन्देस लिआ।“

हम दुकान के ऊपरी हिस्से में चले गये, वहाँ मुश्किल से सात-आठ मेजों के लिये ही स्थान था। हम लोग पीछे की अंतिम मेज पर पहुँचे। मुझे रसगुल्लों से अधिक उन चित्रों ने आकर्षित किया जो कलाप्रेमी हलवायी ने दीवाल पर एक पंक्ति में टाँग कर सजा रखे थे। हलवायी की कलात्मक अभिरुचि प्रशंसनीय थी। ये आधुनिक पेंटिंग्स थीं और शायद महंगी भी। मैं उठकर एक पेंटिंग के समीप गया, अभी देख ही रहा था कि सेठ जी ने पुकारा- "पाठक जी !"

आकर देखा, मेज़ पर मिठाई लग चुकी थी। मैंने उन्हें अब और प्रतीक्षा कराना उचित नहीं समझा।

वहाँ से निकलकर गाड़ी में बैठते ही ड्रायवर ने पूछा-"अब कहाँ?”

सेठ जी बोले- "धरमतल्ला चल ......नहीं, पहले सियालदह....। भोजन वहीं जीमेंगे।"

रास्ते में हुगली के पुल से होकर जाते समय सेठ धरमचन्द ने अचानक प्रश्न किया- "पाठक जी ! आपने देखा, कलकत्ते में पति-पत्नी के बीच उमर का अंतर कितना है? बाप-बेटी जैसा नहीं लग रहा आपको?”

मैं चौंका, “अयँ ! .....मैने तो ध्यान नहीं दिया"

सेठ बोले- “तो आपने कल से आज तक कलकत्ते में देखा क्या?”

मुझे लगा- कोलकाता में देखने-समझने का यह भी एक विषय है। सचमुच, अभी तक आते-जाते किसी भी जोड़े पर मैंने लेश भी ध्यान नहीं दिया था। मनुष्यों की भीड़ से छलकते इस जंगल में किस-किस् पर ध्यान केन्द्रित किया जाय! मैं उनके प्रश्न का क्या उत्तर देता? यह तो अच्छा था कि बिहारी ड्रायवर बातचीत में बराबर हिस्सा ले रहा था। उसने इसके सामाजिक, आर्थिक, पारिवारिक...कई कारण गिनाये।

सेठ जी ने कहा- "सवाल जे नईं है कि उमर में इतना अंतर क्यों है, बाल्कि जे है कि इसका परिणाम क्या होगा? क्या इनका अपना दाम्पत्य जीवन और साथ ही समाज भी इसके दुष्प्रभावों से अछूता रह सकेगा कभी?”

ड्रायवर चुप रहा, मैं भी। फिर सेठे जी ने अपने जीवन के गूढ़तम अनुभवों के आलोक में इसके निश्चित परिणाम गिनाने प्रारम्भ किये। वे एक पक्षीय बोलते रहे, बीच-बीच में ड्रायवर हाँ में हाँ मिलाता रहा। मुझे इस विषय में कोई रुचि नहीं थी, सो चुप ही रहा।

सियालदह पहुँचकर ड्रायवर ने एक छोटे से भोजनालय के सामने गाड़ी रोक दी। वहाँ आसपास की गन्दगी से उठ रही दुर्गन्ध से सेठ जी कुपित हो गये, बोले -"यहाँ कौन जीम सकेगा? जल्दी ले चल यहाँ से।"

ड्रायवर ने पूछा- "तब और कहाँ?”

उत्तर मिला- "सोनागाछी।"

ड्रायवर ने एक खीझ भरी दृष्टि से उनकी ओर देखकर गाड़ी आगे बढ़ा दी।

   सोनागाछी मेरे लिये एक नितांत नया अनुभव सिद्ध हुआ। सभ्य और गणमान्य लोगों की दृष्टि में वह कोलकाता का सड़ा हुआ नासूर था, जीवित नारी अंगों का सड़ाँध मारता बाज़ार था, मरे हुये लोगों का ज़िन्दा मरघट था, पाप का कुण्ड था, समाज को नर्क में ढकेलने वाले पापियों का अड्डा था....और भी न जाने कितनी वर्ज्य विशेषतायें थीं सोनागाछी की ।

  पर सच कहूँ, मुझे तो वह नारी के फटे हुये और मैले-कुचैले अंग-वस्त्रों सा ही प्रतीत हुआ। सोनागाछी....फटा और गन्दा ....किंतु रंग-बिरंगा.......। रंग-बिरंगा तो इतना कि भद्रगण भी उसके आकर्षण में डूबने से स्वयं को बचा नहीं पाते। इतना गन्दा और त्यक्त्य होते हुये भी भीड़ से मुक्ति नहीं मिलती उसे, वहाँ तो बलबलाये समाज से निकलकर छलकती रहती है भीड़ ....दिन-रात। इसीलिये तो सोनागाछी अपने जन्म से ही पीड़ित है अनिद्रा के रोग से।

  सभ्य गणमान्य, जिन्हें दिन में किसी के द्वारा स्वयं के पहचाने जाने का भय़ रहता है, रात के अन्धेरे में छलकते रहते हैं वहाँ। सोनागाछी को जागना पड़ता है तब....भूखे पेट के लिये। किंतु दूर से आने वाले देशी-विदेशी पर्यटकों, व्यापारियों एवम् उत्तर-प्रदेश और बिहार से आये श्रमिकों को अपने पहचाने जाने का भय नहीं होता। पहचान छिपी रहे तो सोनागाछी का हर ग्राहक भद्र और गणमान्य ही बना रहता है। इसीलिये कुछ लोग तो निर्भय हो दिन में भी वहाँ जाने से संकोच नहीं करते। रात का थका-निचुड़ा सोनागाछी दिन में भी सो नहीं पाता तब....पेट के लिये, स्पन्दित होता रहता है अहार्निश ....बिना किसी परिवाद के।

  व्यस्त कोलकाता के जीवित रहने में सोनागाछी के इस स्पन्दन की भी एक अस्वीकृत सहभागिता है। कोलकाता को जीवन देने वाले थके-हारे श्रमिकों, भ्रमण पर आये पर्यटकों, पाप कर्म से धनवान बने मनचलों, अपने शरीर की पाशविक शक्ति के बल पर भयादोहन एवं स्थानीय आतंक से अपनी जीविका चलाने वाले बलवान मानुषों और यहाँ तक कि बड़े-बड़े सरस्वतीपुत्रों एवं लक्ष्मीपतियों तक को जीवन की ऊर्जा प्राप्त होती है यहाँ की सड़ी हुयी खाद की ऊर्जा से। भद्रजनों को जीवन की एकरसता से मुक्ति मिलती है यहाँ आकर। सरकारी नौकरी में पदोन्नति का कच्चा "माल" मिलता है यहाँ की मण्डी में। और कभी-कभी व्यापारिक समझौतों पर ठप्पा भी लगता है यहीं की ऊर्जा से प्रेरणा पाकर।

  अपने पेट की भूख मिटाने के लिये यहाँ आकर शरणागत हुयी किसी स्त्री का शरीर न जाने कितने पुरुषों की भूख मिटाने का साधन बन जाता है....धरती की तरह। भूख,जो शरीर से शांत होती है....। भूख, जो रोटी से शांत होती है...। इस भूख को मिटाने वालों में हैं असंख्य ग्राहक। इस भूख को मिटाने वालों में हैं इंसानियत के निर्दयी दलाल, व्यवस्था को अव्यवस्थित बनाये रखने में व्यस्त रहने वाली पुलिस, अवसर मिलते ही देश को बेच देने में भी संकोच न करने वाले राजनेता, धनलोलुप चिकित्सक और अवसरवादी ब्यूटीपार्लर्स भी। ये सब सोनागाछी के सहव्यवसायी हैं ...घात लगाकर बैठे हुये। सोनागाछी इन्हें भी पोषण देता है। इतने-इतने परिवारों को पालने की क्षमता रखने वाला सोनागाछी सड़ा नासूर या ज़िन्दा मरघट कैसे हो सकता है भला ! वह तो जीवित है, अहर्निश स्पन्दनशील है....अपनी तिरस्कृत और अनादृत शक्ति से भी स्पन्दित।

  सेठ धरमचन्द जीवन के सत्तावन वसंत देख चुके थे और इतनी ही बरसातें भी। वे आज भी बरसात में आग लगा देने की अदम्य चाहत से सराबोर थे।

  मुख्य मार्ग से अन्दर की ओर मुड़ते ही टैक्सी धीमी हो गयी। मैने देखा, सड़क पर सोनागाछियाँ थीं ...उनके दलाल थे। सोनागाछियाँ घरों के अन्दर भी थीं और घरों के बाहर भी, छज्जों से झाँकती हुयीं भी थीं और ज़िन्दगी की डोर से लटकती हुयीं भी। भाँति-भाँति की सोनागाछियाँ ...बाला, किशोरी, यौवना, तरुणी....सभी वयस की...अपने स्वर्णगात को मिट्टी बनाने न जाने कहाँ-कहाँ से आकर यहाँ डेरा जमाये हुयी थीं। अपनी जड़ों को निर्ममता से काटकर फेक चुकीं ये सोनागाछियाँ न जाने किस पुष्प-पल्लव की आशा के स्वप्न में जी रही थीं।

  मैंने दिन के उजाले में साफ-साफ देखा, सड़क पर ही निर्लज्ज अंग प्रदर्शन और मोलभाव। मांसल स्पर्श, भोग, भावना, विवशता, नैतिकता, मानवता...सब का मोलभाव। स्वर्णगात धन की वर्षा करता था..स्वर्णगाछ बनकर, विनिमय में लक्ष्मी का निर्लज्ज और पाषाणी प्रयोग।

  मानव शरीर की मण्डी ...सोनागाछी....माटीगाछी....। यहाँ आकर तो अश्लीलता को भी अपनी परिभाषा नये सिरे से गढ़नी होगी।





  टैक्सी के धीमी होते ही रूप के कई दलालों ने आकर घेर लिया। उन्होंने खींसें निपोर दीं। एक बिहारी ने पूछा- “क्या चाहिये सेठ ?”

“चाइनीज़ मिलेगी ?”

“मिलेगी"

“.....और गोवानी?”

“सब मिलेगी, गाड़ी से नीचे तो आइये।"

“भाव बोल ...!" - सेठ जी ने उसी तरह पूछा जैसे कि वे प्रायः शहद, शतावरी, सफ़ेद मूसली या विडंग ख़रीदते समय पूछा करते हैं।

दलाल ने कहा - “ऐसे कैसे सेठ....! अन्दर आइये, माल देखिये, पसन्द कीजिये ....भाव तो तभिये न होगा।" ...अपने व्यापार में वह भी पारंगत था।

“ठीक है, खाना खाकर एक घण्टे में आयेंगे अभी।" -सेठ ने आश्वासन दिया।

“आइयेगा ज़रूर ....दिल खुश कर देंगे आपका।

मैने देखा, एक साँवली सी युवती जो जो केवल अधोवस्त्रों में थी, मेरी ओर इस तरह देख रही थी जैसे कि मिन्नतें कर रही हो। वह दलालों की भीड़ से अलग सड़क के एक ओर खड़ी थी...चुपचाप। मैने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी पर उसकी बोलती आँखों और उदास चेहरे को पढ़ने की एक बार चेष्टा अवश्य की। इतने में गाड़ी आगे बढ़ गयी। युवती ललचायी दृष्टि से देखती रही।

गाड़ी दूसरी गली में मुड़कर वाप मुख्य मार्ग पर आ गयी। ड्रायवर ने पूछा- ”अब किधर?”

उत्तर मिला- "बहू बाजार चल।"                                                                       

                                                                // 2 //

 

   दिनांक 10-09-2003, आज मैंने सेठ जी को होटल में ही विश्राम करने की सलाह दी जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। यह मेरे लिये एक तरह से मुक्ति का सुअवसर था। कुछ पल चैन से साँस लेने के लोभ में मैं होटल छोड़कर बाहर खुली हवा में आ गया। प्रातः काल समाचार पत्र से पता चल गया था कि कोलकाता में इन दिनों मैदान में राष्ट्रीय पुस्तक मेला लगा हुआ था। भारत के किसी भी महानगर का यह सबसे बड़ा मैदान है, सुविख्यातईडेन गार्डेन इसी मैदान के बीच में है। टैक्सी पकड़कर मैदान पहुँचा और विशाल पुस्तक मेला देखकर मन प्रसन्न हो गया।

 

  पुस्तकें ख़रीदकर अभी चलने को ही था कि तभी किसी परिचित से चेहरे की एक झलक दिखायी दी। वह एक बंग्ला पुस्तक उलट-पुलट रही थी। मुझे आश्चर्य हुआ, यहाँ कोलकाता में कौन परिचित हो सकता है मेरा, ध्यान से देखा, पीले सलवार-कुर्ते में बड़ी-बड़ी आँखों वाली एक साँवली युवती, साथ में थी कोई गोरी तरुणी, बंग्ला साड़ी में। सोचने लगा, कौन हैं ये लोग ? कहीं देखा तो है। मैं अभी अपनी उधेड़बुन था कि तभी पीले सलवार-कुर्ते वाली युवती की दृष्टि मुझ पर पड़ी। वह हड़बड़ाकर पुस्तक वहीं छोड़ बाहर निकलने का उपक्रम करने लगी। अचानक याद आ गया, अरे यह तो वही है, कल वाली.... सोनागाछी.... माटीगाछी।सलीके के परिधान में पहचान में ही नहीं आ रही थी। मैं तुरंत आगे बढ़कर उसके सामने आ गया, बोला –“सुनिये !”

  वे दोनो अनसुनी कर आगे बढ़ गयीं। ऐसी स्त्री के दो रूप देखकर आश्चर्य हुआ मुझे। किंतु इससे इतना तो स्पष्ट हो ही चुका था कि स्त्री कितनी भी निर्लज्ज क्यों न हो जाय, समाज में भद्र दिखने और नार्योचित सम्मान पाने की चाह उसके अंतस में बनी ही रहती है।

  मैंने गौर किया, सोनागाछी तो यह आज लग रही है, पीले सलवार-कुर्ते में ..... स्वर्णगात सी .... कंचन कामिनी। कल तो माटीगाछी थी यह। मैं तेजी से आगे आकर उन दोनो का रास्ता छेकता हुआ बोला – “सुनिये तो, मुझे कुछ काम है आपसे....।“

साथ की तरुणी बोली –“क्या है ?”

मैंने कहा – “यहाँ नहीं, यदि आपकी ख़रीदारी हो गयी हो तो मेले से बाहर चलें ?”

तरुणी ने कुछ सोचकार सहमति में सिर हिलाकर अनुमति दी। सोनागाछीचुप ही रही।

सड़क पार करके हम लोग विशाल मैदान के किनारे-किनारे चलने लगे। थोड़ी देर बाद सोनागाछी की ओर संकेत करते हुये मैंने तरुणी से कहा- “मुझे इनसे कुछ बात करनी है।“

सोनागाछी फिर भी चुप थी। मैंने उसे लक्ष्य कर कहा- “रोज कितना कमा लेती हैं आप ?”

कहना तो बहुत कुछ चाहता था पर समझ नहीं पा रहा था कि शुरू कहाँ से करूँ। वह चुप रही। कल से अभी, इस क्षण तक उसके मुँह से एक भी शब्द नहीं सुना था मैंने। सोचा, कहीं गूँगी तो नहीं ! वह कभी मेरी ओर देखती कभी आकाश की ओर अनंत में।

साथ की तरुणी ने बताया- “यह हिंदी नहीं जानती।“

फिर किंचित रुककर उसने मुझसे पूछा – “आप कबसे जानते हैं इसे ?”

मैंने कुछ सकुचाते हुये उत्तर दिया – “बस कल से ही।“

तरुणी ने विनय के स्वर में कहा – “हमें जाने दीजिये, घर पहुँचना है जल्दी।“

मैंने कटाक्ष किया – “घर ! आपका भी घर होता है ? अच्छा छोड़िये, यह बताइये ये कौन सी भाषा जानती है ?”

“बांग्ला।“

“ओह ! तब तो मुश्किल है, मैं बांग्ला नहीं जानता।“

“तब जाने दीजिये हमें।"

“नहीं, मुझे जानना है इनसे। ..........................कितनी ज़रूरतें हैं इनकी ? पूरी हो जाती हैं सब ....इस तरह ?”

“क्या करेंगे जानकर ? ब्याह करेंगे ? हमारी किस्मत बदलेंगे ? दया करेंगे हम पर ? .....आप जाइये बाबू ! सोनागाछीको अपनी किस्मत पर जीने दीजिये।“

मैंने कहा – “नहीं, कर तो मैं कुछ भी नहीं सकूँगा किंतु सोना को माटी होते देख दुःख तो होता ही है न!”

तरुणी कुछ झल्ला कर बोली – “तब क्या करें कि सोना माटी होने से बच जाये ? पुरुष की सहानुभूति में भी कोई न कोई स्वार्थ छिपा रहता है, सोना को माटी बनाने की ज़िद में पीछे कौन है भला ?” तरुणी ने एक ही झटके में निरुत्तर कर दिया मुझे।

हम बातें करते हुये आगे बढ़ रहे थे । सामने पेड़ के नीचे एक आदमी डाभ बेच रहा था। मैंने तरुणी को डाभ पीने के लिये आमंत्रित किया पर वह मुझसे पीछ छुड़ाने के लिये बेचैन सी दिखी। बहुत अनुरोध करने पर ही तैयार हुयी। पास पहुँचकर मैंने उससे तीन डाभ तैयार करने को कहा। तीनो लोग चुप थे, तरुणी कुछ खिन्न सी थी और सोनागाछीनिर्विकार।

जब तक डाभ तैयार होता हमने कुछ और जानने की गरज़ से पेड़ की छाया में एक ओर खड़े होकर बातें करना शुरू किया। तरुणी ने बताया कि सोनागाछीबांग्ला के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं समझ पाती थी। हिन्दी उसके लिये दुर्बोध भाषा थी ।

डाभ का पानी पीकर हम फिर पैदल ही आगे बढ़े। इस बीच तरुणी कुछ सहज हो गयी थी और मेरे प्रति आश्वस्त भी । तब उसने बताया कि नन्दिता, जिसे मैं बारम्बारसोनागाछी (सोने के पेड़ पर चढ़ने वाली) सम्बोधितकर रहा हूँ, मूलतः बांग्ला देश की है । उसके दादा, परदादा और लकड़ दादा ...पीढ़ियों से चटगाँव के पास किसी गाँव के रहने वाले थे । सदियों से वे हिन्दुस्तानीथे। विभाजन के पश्चात् भी उनका परिवार उसी गाँव में रहा किंतु अब वे हिन्दुस्तानी न रहकर पाकिस्तानी हो गये थे । उनका परिवार मुक्ति-युद्ध के पश्चात् भी वहीं रहता रहा, अपने गाँव के पैतृक घर में ....अपने पूर्वजों की धरती पर । उनकी नागरिकता, उनकी पहचान एक बार फिर बदली । इस बार वे पाकिस्तानी से बांग्लादेशीहो गये थे । फिर हुये जातीय दंगे ...धार्मिक उन्माद ... मारकाट, लूट, अपहरण और पलायन ...। वहाँ से पलायन करके भारत आने वाले अब मूल हिन्दुस्तानी नहीं वरन् विदेशी और शरणार्थीहो गये थे । उन्नीस सौ छियालीस में चटगाँव के जो परिवार भारतीय थे, अब भारत की धरती में भी विदेशी और शरणार्थी थे ।

किंतु नन्दिता तो यहाँ पलायन करके नहीं आयी थी। उसके माँ-बाप को बांग्लादेशमें हिन्दू होने का दण्ड भोगना पड़ा । वे जातीय दंगों में मारे गये । नन्हीं नन्दिता किसी तरह अपहरणकर्ताओंके हाथ लगकर न जाने कितने घरों का दानी-पानी अपने उदर में डालती, सीमापार गाँव-गाँव डोलती अंततः कोलकाता की मानुष-मंडी में लाकर बेच दी गयी थी । उसकी अब कोई जाति नहीं थी, कोई धर्म नहीं था, कोई राष्ट्रीयता नहीं थी । अब वह थी निर्दयी पुरुष के लिये मात्र एक सोने का गाछ भर जो दिन-रात जब चाहो हिलाने से सोना देती थी ...सिर्फ़ सोना ...। सोनागाछी अब उसकी जाति थी, सोनागाछीही धर्म और सोनागाछी ही उसकी राष्ट्रीयता। स्वयं तो वह सर्वांग सोनागाछी थी ही।

  बस, इतना ही परिचय है उस पीले सलवार-कुर्ते वाली, चुप-चुप और खोयी-खोयी रहने वाली युवती का। कॉपी-पुस्तकों की दुनिया में रमा और माँ-बाप के लाड़-दुलार में पला बचपन न जाने कब धर्म की छीना-झपटी में नोच-नोच कर तार-तार किया जा चुका था । और जब उसने होश संभाला तो पता चला कि वह तो न जाने कब की किशोरी हुये बिना ही औरत बन चुकी थी। अब तो वह सपने भी देखने लायक नहीं रह गयी थी। उसका वर्तमान ....उसका भविष्य ...उसके सपने ...सब कुछ हिन्द महासागर की अथाह गहरायी में समाधि ले चुका था.... किसी वैभव शाली टूटे जहाज की तरह। समाज में प्रतिदिनन जाने कितने ऐसे वैभवशालीटाइटेनिक टूटते और जलसमाधि लेते रहते होंगे, इसका तो लेखा-जोखा रखने की भी आवश्यकता नहीं समझी गयी कभी। धर्म के नाम पर हुयी हिंसायें कितना अधार्मिक कृत्य करती हैं ....एक मासूम के सपनों को कितनी निर्दयता से तबाह कर दिया गया था। इस भयानक उत्पीड़न पर मानवाधिकार आयोगों को भी समय नहीं मिलता ... कि वे तनिक भी चिंतन कर सकें कभी।

मेरे और नन्दिता के बीच पसरी भाषायी दुर्बोधतासे उत्पन्न हुयी संवादहीनता और भी कष्टकारी थी। मैंने तरुणी से निवेदन किया –“क्या जीवनयापन का कोई और उपाय नहीं हो सकता ?”

उसने कहा – “निर्दयी परिस्थितियों के चक्रवातोंमें फंसी कोई लड़की जिसे बलात झोंक दिया गया हो दरिन्दोंकी कामभट्टीमें, और क्या उपाय कर सकती है जीवन यापन का ? और हो भी कोई उपाय तब भी उसमें जीवन के प्रति मोह ही कितना बच पाता है ? कौन सा आकर्षण शेष रह पाता है उसके जीवन में जिसके लिये वह कोई अन्य उपाय करे ? अनाथ लड़की तो कहीं भी सुरक्षितनहीं होती, आपके समाज में तो और भी नहीं । पुरुष के नेत्रों की परिधानभेदी सूक्ष्म किरणें हर क्षण पीछा करती रहती हैं उसका । जानते हो, अनाथ लड़की तो केवल मांस भर होती है, बस ....और कुछ नहीं ।“

तरुणी ने झकझोर कर रख दिया था मुझे । मैंने हाथ जोड़कर कहा – “आपके रूप में समाज ने बहुत कुछ खोया है । काश ! मैं कुछ भी दुःख बाँट सकता आपका । जिस सभ्य समाज ने जन्म दिया है सोनागाछी को, उसके उद्धार का भी पूरा उत्तरदायित्व उसी पर है । आपके अनंत दुःखों के कारणों के उत्तरदायित्व से बच कैसे सकते हैं हम ?”

तरुणी रूक्षता से तनिक मुस्कराकरबोली – “चलिये ! देह के अतिरिक्त भी कुछ “और” देखने का प्रयास तो किया आपने। हमारे लिये तो इतना सुख ही बहुत है।“

मैंने कहा – “फिर भी, विचार करके देखना, शायद बाहर आने का कोई मार्ग शेष हो । ...कभी मेरी आवश्यकता हो अवश्य याद करना ...शायद आपके कुछ काम आ सकूँ ...।”

तरुणी ने बीच में ही हाथ जोड़कर कहा – “आप हमसे मिलने आयेंगे ....?”

मैंने स्वीकृतिमें सिर हिला दिया।

चलते-चलते मैंने हाथ जोड़कर नन्दिता को भी नमस्कार किया। इस पर उसका आश्चर्य से मुँह खुला रह गया। अभी तक पाषाण बनी रही नन्दिता अनायास ही आश्चर्य और अप्रतिम सुखानुभूति से अभिभूत हो उठी। संभवतः उसे किसी नागरिक से इस आदर की आशा न रही होगी। एक ही क्षण में उसने न जाने क्या पा लिया था ....कदाचित कोई बड़ी अमूल्य निधि, जिसे वह संजो नहीं पा रही थी। प्रति नमस्कार में उसने भी हाथ जोड़कर अपाने माथे से लगा लिये। दुःखों के अथाह सागर में उसे मानो एक बूंद मीठे पानी की मिल गयी हो । उसकी आँखें बन्द थीं और चेहरे पर थी एक असीम सुखानुभूति । इन क्षणों को वह पूरी तरह आत्मसात कर लेना चाह रही थी।

जब हम चारो ओर से बरसने वाली नफ़रत के अभ्यस्त हो जाते हैं तो नफ़रत की यह आग तो बर्दाश्तहो जाती है पर प्रेम की एक बूंद भी कभी संयोग से टपक पड़े तो बर्दाश्त नहीं होती । मैंने देखा, नन्दिता के दोनो दीर्घ और निर्मल नयनों के स्थान पर अनवरत बहने वाले दो झरने बन गये थे ।

यद्यपि भाषा के अवरोध का अब कोई अर्थ नहीं रह गया था तथापि मेरे लिये अब और वहाँ खड़े रहना संभव नहीं था। मन ही मन मैंने स्तुति की – “या देवी नारी शरीरेषु विवशता रूपेण संस्थिता, नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यैनमो नमः ।“

 

                                                           ॥ समाप्त ॥

 







          

1 टिप्पणी:

  1. कौशलेन्द्र भाई संवेदनशील रचना। बधाई।वेदना, करुणा और दुःखानुभूति को उजागर करती रचना। इस कथा की सबसे अच्छी बात मुझे लगी कि अपने मन की सच्ची बातें लेखक सीधे-सीधे अपने ही मुख से उत्तम पुरुष में कह रहा है और पाठक को इस तरह उन भावों के साथ तादातम्य अनुभव करने में बड़ी सुगमता होती है।

    जवाब देंहटाएं

टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.