रविवार, 27 दिसंबर 2020

फिसल रहा है किसान आंदोलन...

यह त्रासदीपूर्ण सच है कि कृषि उत्पादों का न्यायसंगत लाभ किसानों को नहीं मिल पाता । यह सच आज़ादी के पहले का भी है और आज़ादी के बाद का भी । ब्रिटिश इण्डिया में किसानों पर लादी गयी नील और कपास की खेती ने भी भारतीयों को आंदोलन के लिये विवश किया था । स्वतंत्र भारत में भी किसानों को समय-समय पर आंदोलन के लिये विवश होते रहना पड़ा है । वर्ष 2020 के अंतिम माह में एक बार फिर पञ्जाब और हरियाणा के किसानों ने दिल्ली की ओर कूच किया और नये कृषिसुधार कानूनों के विरुद्ध मोर्चा खोल दिया । किसी भी आंदोलन को प्रारम्भ करना मुश्किल होता है, उससे भी अधिक मुश्किल होता है प्रारम्भ किये गये आंदोलन को किसी और की झोली में जाने से बचा पाना । यह ठीक किसी भी स्वतंत्रतासंग्राम के लिये किये गये आंदोलन की तरह होता है जहाँ क्रांति कोई और करता है, सत्ता का प्रसाद कोई और ले जाता है ।

भारत के किसान आंदोलनों में अगले कई सालों तक याद किया जाता रहेगा 2020 का किसान आंदोलन । हमारे सामने प्रस्तुत किये गये वर्तमान परिदृश्य के अनुसार परिश्रम से कभी हार न मानने वाले पञ्जाब और हरियाणा के किसान ग़रीब हैं और कृषि सुधार कानूनों के विरुद्ध दिल्ली की सीमाओं पर आंदोलनरत हैं । किसान आंदोलन में और भी कई लोगों ने प्रवेश पाने में सफलता पा ली है जो प्रधानमंत्री के मरने और ख़ालिस्तान ज़िंदाबाद के नारे लगा रहे हैं । टीवी पर वक्तव्य देने वाले कई तथाकथित किसान नेताओं द्वारा अपमानजनक शब्दों से प्रधानमंत्री का विरोध किया जा रहा है, उन्हें झूठा और किसानों का हत्यारा कहा जा रहा है । भारत के आम आदमी ने चौंककर देखा कि किसान आंदोलन डीविएट होकर एक राजनैतिक आंदोलन का रूप लेने लगा है । आंदोलन की पवित्रता और मूल उद्देश्यों को बचा पाना आंदोलनकारियों के लिये एक बहुत बड़ी चुनौती बनता जा रहा है ।

किसान आंदोलन में कई संस्थाओं द्वारा आंदोलनकारियों के जीवन को सहज और अरामदायक बनाने के लिये अत्याधुनिक संसाधन उपलब्ध करवाये गये हैं । ये कौन लोग हैं जो ग़रीब किसानों के लिये धन की वर्षा किये दे रहे हैं ?

हम आपको तीस साल पीछे ले चलते हैं । यह कानपुर की आलू मण्डी है जहाँ आढतियों का एकछत्र साम्राज्य है । कई जिलों के किसान ट्रकों में अपना आलू लेकर यहाँ आते रहे हैं और आढ़तिये उनकी आवभगत करते रहे हैं । यहाँ ग़रीब किसानों को रिझाने के लिये कई चीजें हैं, मसलन सुबह-सुबह मलाई वाली चाय, नाश्ते में खोये की मिठाइयाँ, होटल में भोजन की व्यवस्था, रात में सोने के लिये आरामदायक व्यवस्था, और इस सबसे बढ़कर मीठी-मीठी बोली । मौसम के तेवरों को झेलने के अभ्यस्त किसान को आलू मण्डी में ससुराल का सा आभास होने लगता है और सम्मोहित किसान इन चंद दुर्लभ क्षणों को भरपूर जी लेना चाहता है । इस बीच आढ़तिये व्यापारियों से सौदा करते हैं, मोल-भाव करते हैं, किसान का माल तौलवाते हैं, आलू के कुल भार में से आलू में लगी मिट्टी का औसत भार घटा कर व्यापारी से कीमत लेते हैं और फिर किसान से हिसाब-किताब करते हैं । किसान को विदा करने का समय समीप आता है तो आढ़तिये उसे बिल थमाते हैं जिसमें आलू की कीमत में से बारदाना और तौलाई के मूल्य से लेकर धर्मादा खाता के लिये दानराशि और किसान को उपलब्ध करवायी गयी सभी सेवाओं का बाजार मूल्य काट कर शेष राशि उसे बड़े प्यार से थमा दिया करते हैं ।

मण्डी में आलू का मूल्य मिलने से पहले ही किसान एक ख़रीददार बन जाता है ...कई सुविधाओं का । किसान की उपज का मूल्य घर में आने से पहले ही निर्मम मण्डी के तौर तरीकों की भेंट चढ़ने लगता है जो व्यापार का एक सोलह आने कठोरता वाला दस्तूर है ।

कानपुर के आसपास के कई जिलों के किसान वर्षों से आलू की खेती करते रहे हैं, कभी नफ़ा तो कभी नुकसान को झेलते रहे हैं और माँग करते रहे हैं कि उनके क्षेत्र में आलू से स्टार्च और अल्कोहल बनाने की फ़ैक्ट्रीज़ स्थापित की जाएँ जिससे किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य मिल सके । इन किसानों में सैफई के किसान भी हैं और कन्नौज के किसान भी जहाँ डॉक्टर राममनोहर लोहिया के सिद्धांतों पर राजनीति करने वाले किसान हितैषी नेताओं की सरकार लम्बे समय तक राज करती रही है ।    

आंदोलन से पहले किसान को अपनी समस्याओं के मूल स्वरूप को पहचाना होगा और फिसलकर राजनीतिज्ञों के चंगुल में जाने से स्वयं को बचाना होगा ।


गुरुवार, 24 दिसंबर 2020

भारत पर बलोचों और पख़्तूनों का ऋण...


पैंतीस साल की तरुणी क़रीमा बलोच अब इस दुनिया में नहीं है । पाकिस्तानी सेना द्वारा की जा रही बलोचों के साथ अमानवीय प्रताड़नाओं और निर्दोष युवाओं की हत्या के विरुद्ध आवाज़ उठाने वाली बलोच एक्टीविस्ट क़रीमा बलोच को अपहरण और तीन दिन तक प्रताड़नाओं के बाद कनाडा में मार दिया गया । करीमा की किस्मत महबूबा मुफ़्ती जैसी नहीं थी । दोनों विरोध के स्वर उठाती रही हैं किंतु करीमा को मार दिया गया, जबकि भारत में रहते तक महबूबा की ज़िंदगी को कोई ख़तरा नहीं है । करीमा ने उस देश की सेना के अत्याचारों का विरोध किया जिसने उसके देश पर हमला करके उसे बलात अपने कब्ज़े में ले लिया है । महबूबा अपने ही देश की उस सेना का विरोध करती रही हैं जो उन्हें संरक्षण देती रही है । करीमा आक्रमणकारी देश पाकिस्तान से आज़ादी चाहती थीं । महबूबा अपने ही देश भारत से आज़ादी चाहती हैं । करीमा का विरोध क्रांति है, महबूबा का विरोध बगावत है । करीमा की क्रांति उस बलोच समाज के लिये है जो निर्दोष है और जिसके अधिकारों को पिछले तिहत्तर सालों से कुचला जाता रहा है । महबूबा की बगावत उस देश के विरुद्ध है जिसने उन्हें वह सब कुछ दिया जिसकी वह कभी वास्तविक हकदार नहीं रहीं ।

भारत और पाकिस्तान में यह भी एक मौलिक अंतर है कि वहाँ विरोध के स्वरों को बुरी तरह कुचल दिया जाता है जबकि भारत में विरोध के स्वर रातोरात सेलिब्रिटी हो जाते हैं और उन्हें वी.आई.पी. सुविधायें दे दी जाती हैं ।

ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान की तरह करीमा भी भारत को बलोचों का कर्ज़दार बनाकर विदा हो गयीं । इसी साल रक्षाबंधन पर करीमा ने भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को राखी भेजकर बलोचों की आवाज़ की रक्षा की याचना की थी ।

अखण्ड भारत के पक्षधर रहे ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान को पाकिस्तान सरकार ने जेल में डाल दिया । लगभग दो दशक तक पाकिस्तान की जेल में रहने के बाद जेल से छूटते ही सीमांत गांधी 1970 में सबसे पहले भारत ही आये थे और उन्होंने पख़्तूनों को पाकिस्तान से आज़ादी दिलाने की लड़ाई में साथ देने की अपील की थी । भारत के स्वतंत्रता आंदोलन संग्राम में उनके योगदान को विस्मृत नहीं किया जा सकता । ख़ान को अपने अंतिम दिनों तक भारत से एक ही मार्मिक शिकायत रही थी – “हमें भेड़ियों के लिये छोड़ दिया”।

मोतीहारी वाले मिसिर जी मानते हैं कि करीमा से बहुत पहले बादशाह ख़ान भी जाते-जाते शेष भारत को पख़्तूनों का कर्ज़दार बना गये थे । इस तरह अखण्ड भारत की माँग करने वाले बलोचों और पख़्तूनों का अपने मातृदेश भारत पर बहुत बड़ा ऋण है । बलोचों और पख़्तूनों के प्रति उनके मातृदेश भारत का नैतिक दायित्व बनता है जिसे गम्भीरता से पूरा किया जाना चाहिये ।   

शनिवार, 19 दिसंबर 2020

असभ्य...

क्रोध से उफनते अनियंत्रित जलप्रवाह को

जब नहीं रोक सकेंगे तुम्हारे कोई भी प्रयास

छिपाने लगेंगे मुँह

तुम्हारे सारे चमत्कार

असमर्थ हो जायेगी बुलेट ट्रेन

रह जायेंगे अवाक

ध्वनि की गति से उड़ने वाले वायुयान

दिखाने लगेंगी ठेंगा

संदेश ले जाने वाली सारी सूक्ष्म तरंगें

डूब जायेंगे अंतिम कंगूरे भी

तब, खण्ड प्रलय के बाद

बचे रहेंगे

कुछ गीत

कुछ नृत्य

और

हिमालय की उत्तुङ्ग चोटियों पर

चराते हुये याक

कुछ चरवाहे ।

बसेगी

फिर ....एक नई दुनिया

उन्हीं चरवाहों से

लिखा जायेगा जिन्हें असभ्य

नयी दुनिया की नई किताबों में ।

दानद्वेष...

भारत में दान की एक उदार परम्परा रही है जिसने भारत की आर्य संस्कृति को और भी समृद्ध किया है । जैसा कि हर स्वस्थ परम्परा के साथ होता है, समय के साथ-साथ इस परम्परा में भी क्षय होता रहा जिसके कारण भारतीय समाज में दानवीरों की संख्या नगण्य सी होने लगी । हमारे समाज में जहाँ दानदाताओं की कमी हुयी है वहीं दान लेने वालों की भी कमी हुयी है । दीपदान और पुस्तकदान जैसी हमारी उत्कृष्ट दान परम्परायें भी अब बहुत कम देखने को मिलती हैं ।

दान के मामले में हमारा अनुभव बहुत विचित्र रहा है । दानद्वेष (Aversion to donation) का यह मामला दानदाता की ओर से नहीं बल्कि दान ग्रहण करने वाले की ओर से है । पुस्तकों से लगाव रहने के कारण हमारे पास उत्कृष्ट हिंदी साहित्य और दर्शनशास्त्र से लेकर मेडिकल साइंस जैसे विभिन्न विषयों पर पुस्तकों का बहुत अच्छा संकलन हो गया है । हमारा मानना है कि अच्छी पुस्तकें अधिक से अधिक सुपात्र पाठकों तक पहुँचनी चाहिये, यही सोचकर हमने पिछले लगभग एक दशक से शिक्षण संस्थाओं और पुस्तकालयों को पुस्तकें दान करने का सिलसिला प्रारम्भ किया है । दुःखद यह है कि हमें इन दोनों ही स्थानों में सुपात्रता का प्रायः अभाव ही देखने को मिला है । अभी तक मात्र एक विद्यालय, एक पुस्तकालय और एक व्यक्ति ने ही पुस्तकदान को सहर्ष स्वीकार किया शेष लोगों ने पुस्तकदान लेने में या तो उदासीनता दिखायी या फिर बहुत आनाकानी की । हमारे शिक्षित समाज के इस आइने को भी देखना और जानना सुधीजनों के लिये आवश्यक है ।

हमारे शहर में एक बहुत बड़ी शिक्षण संस्था है । मन में आया कि पुस्तकदान के लिये इससे अधिक उपयुक्त स्थान और क्या हो सकता है! बस, हमने एक थैले में बहुत सी पुस्तकें भरीं और पहुँच गये शिक्षण संस्था में किंतु हमारे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब संस्था के कर्मचारी ने पुस्तकें देखे बिना ही दान में स्वीकार करने से साफ़ इंकार कर दिया । हमारे समझाने-बुझाने का भी उस कर्मचारी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा किंतु अंत में उस कर्मचारी ने सुझाव दिया कि यदि संस्था के मालिक सिफ़ारिश करेंगे तो वह ये पुस्तकें स्वीकार कर लेगा । हम थैला उठाकर संस्था के  मालिक के पास पहुँचे और उनसे निवेदन किया कि वे अपने कर्मचारी से पुस्तकें स्वीकार करने की सिफ़ारिश कर दें । हमारे आश्चर्य ने सीमाओं से परे जाकर कुछ और आयाम तय करते हुये हमारी आँखें निकालकर हमारी हथेली पर रख दीं जब संस्था के मालिक ने भी पुस्तकें देखे बिना ही लेने से साफ इंकार कर दिया । हमने यह सोचा भी नहीं था कि हमें ये पुस्तकें वापस लेकर आना होगा । हमने मोर्चा सँभाला और मालिक को मनाने में जुट गये । एक बहुत लम्बी चर्चा के बाद अंततः मालिक ने कृपा की और अपने कर्मचारी को बुलाकर सिफ़ारिश कर दी । हम ख़ुश हुये ।

संस्था के कर्मचारी को यह सिफ़ारिश शायद अच्छी नहीं लगी, उसने एक ओर उँगली से संकेत करते हुये उपेक्षा से कहा अपना थैला वहाँ छोड़ दीजिये । हमने कहा, हम पुस्तकें निकालकर वहाँ रख देंगे आप बाद में यथास्थान रख लीजियेगा । कर्मचारी ने कहा, थैले में से निकाल कर रखेंगे तो हमारी कोई ज़िम्मेदारी नहीं होगी, आप थैले सहित छोड़ कर जाइये । हमें कर्मचारी की आज्ञा का पालन करना पड़ा ।

इस घटना के बाद से अब हम अपने शहर की किसी संस्था को पुस्तकें दान करने से डरने लगे हैं । यह हमारी असफलता है कि हम अपने शहर में पुस्तकदान के लिये सुपात्र संस्थाओं को खोज नहीं पा रहे हैं । अब हम सोच रहे हैं कि हमें अपनी पुस्तकों के भंडार का एक हिस्सा काँगड़ा मेडिकल कॉलेज को और एक हिस्सा नैनीताल की जिला लाइब्रेरी को देना चाहिये, किंतु बस्तर से काँगड़ा और नैनीताल तक इतनी पुस्तकें लेकर जाना इतना सरल है क्या!


गुरुवार, 10 दिसंबर 2020

यात्रा...

धूप में तपिश

तब भी थी, आज भी है

हवायें

तब भी चलती थीं, आज भी चलती हैं

जल

तब भी प्यास बुझाता था, आज भी बुझाता है

चिड़ियाँ

तब भी कलरव करती थीं, आज भी करती हैं

केवल समय

कुछ और आगे बढ़ गया है ।

गर्भ में

आशाओं का भण्डार लिये

एक कली

लिखकर अपने पीछे एक उत्तराधिकार

मुरझा कर

झर चुकी है

झरी हुयी पंखुड़ियों को

अब कुछ भी अच्छा नहीं लगता

न धूप, न हवा, न जल और न चिड़ियों का कलरव ।

काल सापेक्ष है यह सम्पूर्ण यात्रा

मिलन और विरह की तरह । 

बुधवार, 9 दिसंबर 2020

एक आंदोलन ज़हर के विरुद्ध भी क्यों नहीं...

खुजली...

महीनों दवाइयाँ खाने के बाद भी यदि खुजली ठीक नहीं हो रही है तो अपनी जीवनशैली पर ध्यान देना होगा । जीवनशैलीजन्य दुष्प्रभावों को दवाइयों से समाप्त नहीं किया जा सकता ।

एक्ज़ीमा, सोरियासिस और टीनिया जैसे चर्म रोगों के अतिरिक्त अग्न्याशय, लिवर, किडनी और थायरॉयड की समस्याओं के कारण भी खुजली हो सकती है । सही चिकित्सा से इन्हें ठीक या नियंत्रित किया जा सकता है किंतु जो खुजली तमाम दवाइयों के बाद भी ठीक नहीं होती उसके आगे हर कोई हथियार डालता दिखायी देता है । ओपियॉइड जैसी दवाइयों के स्तेमाल से होने वाली खुजली ओपियॉइड का स्तेमाल बंद कर देने से ठीक की जा सकती है किंतु उन रसायनों का क्या जिन्हें डियो, साबुन और खाद्यपदार्थों के रूप में हम अपनी जीवनशैली में सम्मिलित कर चुके हैं ?

दूध से लेकर सब्जियों, फलों और अनाजों में भी हम बेशुमार ज़हर घोलते जा रहे हैं । कौन घोल रहा है यह ज़हर? कहाँ से मिलता है व्हाइट और ग्रीन रिवोल्यूशनर्स को यह ज़हर ? कोई प्रतिबंधित क्यों नहीं करता इन तमाम ज़हरों को ? किसान और डेयरी वाले कोई संगठन इस ज़हर के विरुद्ध कोई आंदोलन क्यों नहीं करते ? आम जनता ख़ुशी-ख़ुशी इस ज़हर को क्यों अपने शरीर में झोंकती जा रही है ? स्वास्थ्य सीमाओं का निरंतर उल्लंघन करते रहने के लिये आप दोषी किसे ठहरायेंगे ?

अभी हमने केवल ज़हरीले रसायनों की बात की है, जेनेटिकली मोडीफ़ायड फसलों की बात फिर कभी करेंगे जो मनुष्य की नस्ल के लिये ही गम्भीर चुनौती बन चुकी हैं ।

एक आंदोलन इसके लिये भी क्यों नहीं?

दवाइयों का विशाल मार्केट होता है, मार्केट में ग्राहकों की भीड़ होती है । ग्राहकों की संख्या में निरंतर वृद्धि मार्केट का उसूल होता है । इशारा स्पष्ट है, जो समझे उसका भला, जो ना समझे उसका भी भला ।

हवा में ज़हर है, पानी में ज़हर है, अन्न में ज़हर है, फलों-सब्जियों और दूध में भी ज़हर है जिसके कारण असाध्य बीमारियों की बहार है । ज़हर हमारे चिंतन में भी व्याप्त हो चुका है । भारत में सेरिब्रल पैल्सी, कैंसर, ओबेसिटी, डायबिटीज़, थायरॉयड, मल्टीपल ओवेरियन सिस्ट, फ़ाइब्रॉयड यूटेरस, ऑब्सेसिव कम्पल्सिव बिहैवियर, अल्ज़ाइमर और पार्किंसंस जैसी गम्भीर बीमारियाँ बढ़ती ही जा रही हैं । क्या इनके कारणों की व्यापकता पर भी कभी कोई समुद्रमंथन होगा ? 

दिल्ली की सीमाओं पर अन्नदाता आंदोलनरत हैं ...किंतु उनकी माँगों में खाद्यपदार्थों में ज़हर घोलने वाले रसायनों पर प्रतिबंध लगाये जाने की माँग़ सम्मिलित नहीं है ।

हमारे आदरणीय अन्नदाता गोभी पर ज़हरीली दवाई स्प्रे करते हैं जिससे वह अगले दिन तक बेचने लायक हो जाय । हमारे पूज्य अन्नदाता लौकी, बैंगन, तरबूज आदि के डंठल में इंजेक्शन लगाते हैं जिससे अल्पसमय में ही वह सब्जी इतनी बड़ी हो जाय कि उसे तुरंत बेचा जा सके । फसल के परिपक्व होने में लगने वाले प्राकृतिक समय तक कोई प्रतीक्षा नहीं करना चाहता । किसानों को एक-दो दिन में ही अपेक्षित परिणाम चाहिये, फिर भले ही वह ज़हर के इंजेक्शन द्वारा क्यों न मिले ।

भ्रूण को विकसित होने में लगने वाली निर्धारित अवधि में कटौती करके उसे रातोरात विकसित कर डालने की मानसिकता इस धरती से मनुष्यों को समाप्त कर देगी ।

प्राकृतिक विकास में लगने वाले समय को क़ैद करने की रावणी वृत्ति व्यापक हो चुकी है । एक आंदोलन इसके लिये भी क्यों नहीं होना चाहिये ?

सोमवार, 23 नवंबर 2020

अथ वैक्सीन कथा...

कितनी भरोसेमंद होगी एण्टीकोरोना वैक्सीन

कोरोना के बाद अब बारी है एण्टीकोरोना वैक्सीन की । वैक्सीन बन जाने के समाचारों के साथ ही दुनिया भर में टीकाकरण की कल्पनायें की जाने लगी हैं । अगले दो-तीन महीने बाद कोरोना के जींस हमारी कोशिकाओं में होंगे जहाँ कोशिकाओं को उनसे दोस्ती करनी होगी और फिर पहले से तय युद्धनीति के अनुसार हमें उनके रहस्य जानकर कोरोना के किले को ढहाना होगा । लाख टके का एक सवाल फिर भी हमारी ओर झाँकता है कि आने वाली वैक्सीन्स कितनी भरोसेमंद साबित होंगी ।

फ़ॉर्मा लैब्स से समाचारों के निकलते ही वैक्सीननिर्माता कम्पनीज़ के शेयर्स ने भागना प्रारम्भ कर दिया है । मॉडर्ना के शेयर्स तो कई महीने पहले से ही भाग रहे हैं और अब प्फ़ाइज़र, कैडिला और पैनेसिआ के शेयर्स भी भागने लगे हैं । अभी तक लगभग तेरह प्रकार के एण्टीकोरोना वैक्सीन अपने क्लीनिकल परीक्षण के अंतिम दौर में पहुँच चुके हैं जबकि क्लीनिकल परीक्षण के दूसरे और तीसरे चरण की दौड़ में चौवन, और प्रीक्लीनिकल वैक्सीन के एक्टिव इन्वेस्टीगेशन के चरण में लगभग सत्तासी प्रकार के वैक्सीन अभी भी प्रयोगशाला स्तर पर अध्ययन और परीक्षण की स्थिति में हैं । इस दौड़ में आगे निकल चुकी तेरह वैक्सीन्स में भी जो तीन सबसे आगे हैं वे हैं –ऑक्सफ़ोर्ड-एस्ट्राज़ेनेका की डीएनए बेस्ड वैक्सीन “ChAdOx1 nCoV-19” जिसके रीसस मैकाक के ऊपर किये गये प्रारम्भिक परीक्षण सफल नहीं हो सके थे; दूसरी है मॉडर्ना की वैक्सीन mRNA-1273”, और तीसरी वैक्सीन है ज़ायडस कैडिला निर्मित डीएनए बेस्ड “ZyCov-D”

अनुमान है कि क्लीनिकल परीक्षण की दौड़ में सम्मिलित भारत बायोटेक इंटरनेशनल हैदराबाद द्वारा निर्मित Intranasal ChAd Vaccine सैद्धांतिक रूप से कहीं अधिक सफल होने की सम्भावना है । एण्टीकोरोना वैक्सीन बनाने की प्रतिस्पर्धा में सिगरेट बनाने वाली दुनिया की दूसरी बड़ी कम्पनी ब्रिटिश-अमेरिकन टोबैको (BATS.L) भी शामिल है जिसके लिये काम करने वाली केण्टुकी बायोप्रोसेसिंग ने वैक्सीन बनाने के लिये तम्बाखू के पत्ते में पायी जाने वाली एक प्रोटीन का स्तेमाल किया है । इस वैक्सीन का प्रीक्लीनिकल चरण पूरा हो चुका है और अब क्लीनिकल परीक्षण के प्रथम चरण की अनुमति की प्रतीक्षा की जा रही है । टोबेको प्रोटीन बेस्ड वैक्सीन एण्टीबॉडीज़ के साथ-साथ टी. सेल्स भी उत्पन्न करती है इसलिये यह वैक्सीन भी कहीं अधिक सफल होने वाली है ।

नाना प्रकार की इन वैक्सीन्स की रोगप्रतिरोधक क्षमता, सुरक्षा के स्तर और सुरक्षा की अवधि के बारे में अभी भी कोई अंतिम निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता । सामान्यतः किसी वैक्सीन की गुणवत्ता के परीक्षणों में तीन मानकों Safety, efficacy और effectiveness को ध्यान में रखा जाता है, जिसके परीक्षणों और निष्कर्षों में हड़बड़ी नहीं की जा सकती । ये परीक्षण कई चरणों में पूरे किये जाते हैं जिसमें कम से कम दो साल तो लग ही जाते हैं । एण्टीकोरोना वैक्सीन के मामले में कुछ प्रयोगशालाओं ने क्लीनिकल परीक्षण के पहले और दूसरे चरणों को एक साथ निपटाने की हड़बड़ाहट की है । यह अच्छी बात है कि इस दौड़ में सम्मिलित किसी भी भारतीय कम्पनी ने कोई हड़बड़ाहट नहीं की है और बड़े धैर्य के साथ सभी चरणों के निष्कर्षों का अध्ययन किया है ।

आशा है कि अगले दो से तीन माह में कोरोना की वैक्सीन हमारे लिये उपलब्ध हो जायेगी । यह एक राहत हो सकती है किंतु सजग चिकित्सक का काम तो वैक्सीन आने के बाद प्रारम्भ होने वाला है । वैक्सीन का उपयोग प्रारम्भ हो जाने के बाद भी निरीक्षण, परीक्षण, सर्वेक्षण और विश्लेषण के अध्ययन का सिलसिला समाप्त नहीं होगा ...यह चलता रहेगा और नये निष्कर्ष प्राप्त किये जाते रहेंगे । सैद्धांतिकरूप से जेनेटिक इन्जीनियरिंग द्वारा तैयार वैक्सीन को पूरी तरह निरापद नहीं माना जा सकता, दीर्घावधि में इनके उपद्रव सामने आ सकते हैं । स्पष्ट है कि हमें संक्रमण से बचने के लिये अन्य विकल्पों पर भी काम करना होगा ।

रविवार, 22 नवंबर 2020

नींद नहीं आयेगी

नींद नहीं आयेगी...

दस-बारह / सड़क के आवारा कुत्ते / घूम रहे हैं झुण्ड में / कभी इस / तो कभी उस मोहल्ले में / तलाशते हैं / किसी मनमौजी / अकेले कुत्ते को / टूट पड़ते हैं फिर उस पर / बुरी तरह / नहीं देते भागने / अपने चंगुल से ।

किसने किससे सीखा / यूँ टूट पड़ना / किसी पर / आदमी ने कुत्तों से / या कुत्तों ने आदमी से / पता नहीं / आज रात / फिर मुझे नींद नहीं आयेगी ।  

भौंक रहे हैं / बुरी तरह नोच रहे हैं / सारे कुत्ते / बेचारे / उस एक कुत्ते को / जो नहीं था शामिल / उनके गैंग में ।

घूमने लगे हैं / चित्र / मेरी आँखों के सामने / ज़र्मनी और फ़्रांस में हुये / तहर्रुश गेमिया के / आज रात / फिर मुझे नींद नहीं आयेगी ।   

कलाकारों की राह पर...

नहीं जाते जेल / बेल पर घर लौट आते हैं / पकड़े गये कलाकार / पीत हुये गाँजा / लेते हुये कोकीन / नाचते हुये गाते हुये / देते हुये संदेश, कि / दम मारो दम / मिट जाए गम / बोलो सुबह-शाम / हरे कृष्णा हरे राम ।

किशोर और किशोरियों की पीढ़ी / चल पड़ी है / कलाकारों की राह पर, / कूद पड़ी है / गहरे समंदर में ।

समुद्र मंथन के लिये / क्यों / तैयार नहीं होता कोई / नये भारत में ?

कुकुरमुत्ते

तलाश रहती है उन्हें / यौनशोषण, क्रूरता, हत्या / और अन्याय की ।

वे / घटनाओं को होने देते हैं / बढ़ने देते हैं / पकने देते हैं / फिर, जैसे ही पक कर टपकती है / कोई घटना / टूट पड़ते हैं उस पर / शातिर भेड़िये / बनाने के लिए / एक स्मारक / जिस पर गाड़ सकें / झण्डा / अपनी महानता का ।

तलाश रहती है उन्हें / पत्तों के टूट कर गिरने की / झंझावातों में / पेड़ों के टूट कर धराशायी होने की / और फिर / जैसे ही सड़ने लगती हैं / टूटी हुयी पत्तियाँ / गिरे हुये पेड़ / वे सब टूट पड़ते हैं उन पर / और जमा लेते हैं अपनी जड़ें / मृत पत्तियों / और पेड़ों की सड़ती देह पर / फिर उगाते हैं वहाँ / रंगबिरंगे, सुंदर, आकर्षक / कुकुरमुत्ते / यानी परी का छाता / जिसकी छाया में / खेलते / और खिलखिलाते / बढ़ते जाते हैं कुछ लोग / कदम-कदम आगे / राजसिंहासन की ओर ।

स्मारक...

महीनों / वह संघर्ष करती रही / अकेली / जूझती रही / न्याय के लिये ।

एक दिन / जला दिया उसे / पकड़कर जिंदा ही / कुछ लोगों ने ।

मर गयी लड़की / तड़पती हुयी / अकेली ।

मरते ही उसके / टूट पड़ी वहाँ / करुणानिधानों की भीड़ / अब / लड़की की लाश नहीं थी अकेली / भीड़ / बहा रही थी / न्याय की गंगा ।

बन रहा है गाँव में / लड़की की जली हुयी लाश पर / एक भव्य स्मारक / जो ले जायेगा / करुणानिधानों को / राजसिंहासन की ओर ।  

शनिवार, 21 नवंबर 2020

भीड़ की ज़िद...

        कोरोना विषाणु के कारण बदली हुयी परिस्थितियों में अनुकूलन के सुरक्षात्मक उपाय स्थापित करने के लिये हमें अपनी जीवनशैली में महत्वपूर्ण परिवर्तन करने होंगे । वर्जनाओं की भूमि पर रचे गये इस तरह के परिवर्तनों के लिये भीड़ तैयार नहीं है । भारत के अतिबुद्धिजीवी मानते हैं कि “लोकतंत्र में सेंसरशिप का कोई स्थान नहीं होता”, हर व्यक्ति को अपनी ज़िंदगी अपने तरीके से जीने की आज़ादी होनी चाहिये ।

 भीड़, लोकतंत्र की आवश्यकता है । भीड़, लोकतंत्र की समस्या है । भीड़ में  लोकतंत्र की समस्याओं के समाधान खोजने का कोई अर्थ नहीं है । भारत के अतिबुद्धिजीवी लोग भीड़ से अपना पोषण प्राप्त करते हैं, वे सदा भीड़ के समर्थन में रहते हैं और भीड़ को बाढ़ के पानी की तरह बहने के लिये नियंत्रणमुक्त बनाये रखना चाहते हैं । नियंत्रणमुक्त जीवन जीने वाले लोगों से आत्मसंयम की अपेक्षा का क्या अर्थ है! यह भीड़ यदि इतनी ही आत्मसंयमित और ज्ञानवान होती तो न कोई संक्रमण फैलता और न यह वैश्विक व्याधि होती ।

कोरोना को भीड़ से प्रेम है, अनियंत्रित हो जाना भीड़ का स्वभाव है, उसे कोरोना से बचाना गम्भीर चुनौती है । फ़िल्मों और टीवी कार्यक्रमों में अश्लीलता और हिंसा आदि की मर्यादा को लेकर अभी हाल ही में अभिनेता दिलीप ताहिल और फ़िल्म समीक्षक मयंक शेखर ने बड़ी तल्ख़ टिप्पणियाँ करते हुये आम आदमी को अपनी ज़िंदगी के निर्णय स्वयं लेने और आत्मसंयम की सीमा स्वयं तैयार करने की स्वतंत्रता प्रदान किये जाने के लिए बड़ी उग्र वकालत की थी । यह वही आम आदमी है जो कोरोना से बचाव के लिये सुझाए गए उपायों को अपनाने से इंकार कर देता है, जगह-जगह थूकता और मलविसर्जन करता है, भारतीय मुद्रा से अपनी नाक साफ़ करने वाले दृश्य का वीडियो बनाकर दुनिया को चुनौती देता है, मेडिकल टीम को दौड़ा-दौड़ाकर मारता है और उन पर पत्थर बरसाता है । सरकारें भीड़ की मानसिकता से निपटना जानती हैं जो मेडिकल टीम नहीं जानती । मेडिकल टीम व्याधि से निपटना जानती है जो सरकारें नहीं जानतीं ।

उपयोग किया जा चुका मास्क एक मेडिकल कचरा है । मेडिकल कचरे के प्रॉपर डिस्पोज़ल के प्रति हम भारतीय कितने ईमानदार हैं यह बताने की आवश्यकता नहीं है । कई बार उपयोग के बाद मास्क कचरे के ढेर में या इधर-उधर पड़े मिलते हैं जिसके सम्पर्क में आकर आवारा पशुओं, मुर्गियों और पक्षियों में संक्रमण की सम्भावनाएँ नयी समस्या को जन्म दे सकती हैं । टीवी में विज्ञापन आ रहे हैं, अपील की जा रही है कि मास्क अवश्य लगाएँ । किसी विज्ञापन में मिठाई वालों को यह नहीं बताया जाता कि वे जिन हाथों से ग्राहक से नोट लेते हैं उन्हीं हाथों से मिठायी न छुएँ, किसी विज्ञापन में सब्जी वालों को यह नहीं बताया जाता कि ड्रॉपलेट इन्फ़ेक्शन रोकने के लिए वे चीख-चीख कर सब्जी न बेचें । मास्क का विज्ञापन आवश्यक है, मास्क बिकेगा तो मास्क बनाने वाली कम्पनियों को लाभ होगा । वैश्वीकरण की जीवनशैली ने हमें एक-दूसरे के इतने समीप ला दिया है कि हमारी साँसें आपस में टकराए बिना नहीं रहतीं, आप किसी संक्रमण को कैसे रोक सकेंगे ...कहाँ-कहाँ रोक सकेंगे ?

बहुत सी वर्जनाएँ हैं जिनका सामान्य व्यवहार में पालन किया जाना चाहिए । चिकित्सा व्यवसाय से जुड़े लोगों के लिए पीपीई किट का प्रयोग आवश्यक हो गया है, वाहनों को विसंक्रमित किया जा रहा है, किसी भी अनजान सतह से शरीर के स्पर्श को वर्ज्य माना जा रहा है, अभिवादन के लिए नमस्कार किया जाना सुरक्षित माना जाने लगा है...  इतने तामझाम के बाद भी ढेरों गलतियाँ हो जाती हैं और संक्रमण को अवसर मिल ही जाता है । मेडिकल स्टाफ़ भी कोरोना की चपेट में आने से बच नहीं पा रहा है, आख़िर यह चूक हो कहाँ रही है ?

कोरोना के शोर में अन्य व्याधियों से ग्रस्त रोगियों की उपेक्षा होने लगी है । हृदयरोग, मधुमेह, अर्थ्राइटिस और रीनल डिस-ऑर्डर्स आदि से पीड़ितों की समस्याएँ बढ़ रही हैं । चिकित्सा व्यवस्था अस्त-व्यस्त होने लगी है । दिहाड़ी श्रमिकों, घुमंतू बंजारों, सेक्स-वर्कर्स, किन्नरों और नाचने-गाने वाले लोक-कलाकारों के सामने जीवनयापन की समस्याएँ हैं । शिक्षा व्यवस्था पटरी से उतर गयी है और पाकिस्तान अपने कोरोना संक्रमितों को फ़िदायीन बनाकर भारत में घुसपैठ कराने में लगा हुआ है ।

सरकारों के पास और भी ढेरों काम हैं, आम नागरिक को अपनी भूमिका और दायित्व तय करने होंगे ।

अथ कोरोना नियंत्रण समीक्षा...

घातक विषाणु कोरोना से युद्ध चालू है, बचाव और चिकित्सा के उपलब्ध उपाय न तो उपयुक्त हैं और न पर्याप्त । कोरोना ने पूरे विश्व को बंदी बनाकर उसकी गतिविधियों पर ग्रहण लगा दिया है । चिकित्सा परिणामों के बाद हताशा और अवसाद के वातावरण ने हमारे सामने कुछ और चुनौतियाँ परोस दी हैं ।

प्रश्न उठने लगे हैं – क्या विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अपने धर्म का पालन नहीं किया और अधर्माचरण में अपनी सहभागिता बनाये रखी ? क्या लॉकडाउन आवश्यक था ? क्या लॉकडाउन में होती रही शिथिलताओं ने समस्या को और भी विकराल बना दिया ? कोरोना काल में धार्मिक क्रियाकलापों (Religious activities) के सार्वजनिक आयोजनों पर कठोरतापूर्वक पूर्ण प्रतिबंध लगाया जाना आवश्यक क्यों नहीं समझा गया ? जनजीवन में व्यवहृत होने वाले सामाजिक एवं व्यक्तिगत आचरणों की शिथिलता के पूर्ण मुक्त अभ्यास को चीन की तरह प्रतिबंधित करने में सरकारें क्यों असमर्थ रहीं ? क्या शासन-प्रशासन ने अपने राजधर्म का यथोचित पालन करने में उपेक्षा की ? क्या आमजन को इस व्याधि से बचने के उपायों के बारे में शिक्षित-प्रशिक्षित करने में कोई चूक हुई ? क्या चिकित्सा-विशेषज्ञों और सरकारों के बीच वैज्ञानिक समझ और आपसी समन्वय का अभाव रहा है ? कोरोना की विकरालता का भय कहीं स्वाइन फ़्लू की तरह कोई नया मेडीस्कैम तो नहीं ? कोविड-19 की चिकित्सा में चिकित्सा विज्ञान की भूमिका क्या किसी पंगु जैसी नहीं रही है ? प्रतीक्षित वैक्सीन की कार्मुकता और क्रियाशीलता कितनी प्रभावी होगी ? पता चला है कि फ़ाइज़र की एंटी कोरोना वैक्सीन इन्जेक्टेबल होने कारण केवल लोअर रेस्पाइरेटरी ट्रेक्ट को ही सुरक्षा दे सकेगी अपर रेस्पाइरेटरी ट्रेक्ट को नहीं, तब इस वैक्सीन की उपयोगिता का जीवन के लिए क्या मूल्य ? क्या वैक्सीन के अतिरिक्त अन्य विकल्पों पर वैज्ञानिक चिंतन किए जाने की आवश्यकता नहीं है ? रूटीन चेक-अप में तो इंफ़्रारेड थर्मल स्केनर का प्रयोग होने लगा है किंतु ब्लडप्रेशर नापने के लिए जिस पारम्परिक डिवाइस का उपयोग किया जा रहा है क्या उसे हर बार विसंक्रमित नहीं किया जाना चाहिए ? क्या ओपीडी के डॉक्टर्स स्वयं को आएट्रोजेनिक फ़ैक्टर बनने से रोकने के लिये रूटीन एक्ज़ामिनेशन में प्रयुक्त होने वाले बीपी इंस्ट्रूमेंट जैसे डिवाइसेज़ का पूरी सतर्कता के साथ उपयोग कर पा रहे हैं ? क्या इस तरह के डिवाइसेज़ का उपयोग रिलिवेंट इण्डीकेशन्स मिलने, अत्यावश्यक होने एवं सीमित और विशेष स्थितियों में ही नहीं किया जाना चाहिए ? क्या हमें एड्स और स्वाइन फ़्लू की तरह कोरोना के भी साथ रहने के लिये स्वयं को तैयार करना होगा ? चीन में कोरोना नियंत्रण के लिये क्या निरापद देशी चिकित्सा पद्धति का भी व्यवहार किया गया है ? ज़र्मनी, अमेरिका और ब्राज़ील आदि देशों के कुछ नागरिक कोरोनाकाल में भी अपनी जीवनशैली पर किसी भी तरह का प्रतिबंध लगाये जाने का विरोध कर रहे हैं, भीड़ की यह वह मानसिकता है जिससे भारत को भी जूझना पड़ रहा है, क्या भारत के पास भीड़ के इस सर्वदा विरोधी चरित्र से निपटने के लिए प्रभावी उपाय हैं ? …प्रश्नों के पर्वत हमारे सामने हैं जबकि निष्ठापूर्वक उत्तर के प्रयास दूर-दूर तक दिखायी नहीं देते । किंतु इतना कह देने से इतिश्री नहीं हो जाती, हमें स्वयं को कोरोना का शिकार होने से बचाना ही होगा ।


काश! कोई जिन्ना यहाँ भी होता...

कल गोरखपुर वाले ओझा जी और मोतीहारी वाले मिसिर जी में अच्छी-ख़ासी नोक-झोंक हो गयी । मामला गरम होने लगा तो बीच में अपर्णा जी भाया टाटानगर को बीच में लाना पड़ा । बात मोहम्मद अली जिन्ना की थी । ओझा जी मोहम्मद अली जिन्ना की क़ौमी सोच का सैद्धांतिक समर्थन कर रहे थे जबकि मिसिर जी मोहम्मद अली जिन्ना को अखण्ड भारत का शत्रु मान रहे थे ।

ओझा जी का मानना था कि अपने समुदाय के प्रति जिन्ना के जुझारू समर्पण से हिंदुओं को सीख लेने की आवश्यकता है । हमें उनकी व्यक्तिगत ज़िंदगी और आचरण पर नुक्ताचीनी करने की न तो आवश्यकता है और न अधिकार, आप तो यह सोचिये कि जिन्ना अपने समाज के लिये कितने काम के आदमी थे । जिन्ना को हिंदू ऑब्ज़रवर की दृष्टि से नहीं एक मुस्लिम ऑब्ज़रवर की दृष्टि से देखिये फिर बताइये क्या आपको हिंदू समाज में एक जिन्ना की कमी नहीं खलती ? क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि काश! कोई जिन्ना यहाँ भी होता ? जिन्ना के पासंग में नेहरू कहाँ ठहरते हैं जो जन्म से भारतीय किंतु विचार और आचरण से अंग्रेज़ माने जाते थे ? जिन्ना ने जो किया वह अपनी क़ौम के लिये किया और वे अपने समुदाय के आदर्श बन गये, क्या उनका ऐसा करना अपराध था ? यदि कोई जननायक हिंदुओं के लिये जिन्ना जैसा जुझारू होता तो क्या उसका ऐसा करना अपराध होता ?   

मिसिर जी ने प्रतिवाद किया – जिन्ना यदि मुसलमानों के हितैषी होते तो पाकिस्तान बनाने की ज़िद नहीं करते । जिन्ना की सोच के अनुसार यदि अखण्ड भारत मुसलमानों के लिये असुरक्षित था तो आख़िर विभाजन के बाद भारत में रह गये मुसलमानों के हित की बात मुस्लिम नेता जिन्ना ने क्यों नहीं सोची? शराबनोशी और वर्ज्यमांस से परहेज न करने वाले जिन्ना क्या वास्तव में इस्लाम या मुसलमानों के लिये कुछ भी कर सके? यदि धर्माधारित विभाजन न होता तो दोनों देशों में इतना धार्मिक ध्रुवीकरण भी न होता, न आज पाकिस्तान इतना निर्धन देश होता और न एशिया में इतनी अशांति और आतंक होता । सच यह है कि जिन्ना ने जो किया वह न तो इस्लाम के लिये किया और न मुसलमानों के लिए बल्कि केवल अपनी महत्वाकांक्षाओं के लिए किया । अब बात आती है जिन्ना के इस्लाम प्रेम की, तो यह समझना होगा कि क्या उन्होंने इस्लाम को पतवार की तरह स्तेमाल नहीं किया ?  

        अंत में अपर्णा जी भाया टाटानगर की मध्यस्थता के बाद ओझा जी यह स्वीकार करने के लिए तैयार हो गये कि भारत के विभाजन में इस्लामिक समुदाय के हित की कल्पना करने वाले क़ायदे आज़म जिन्ना ने मुसलमानों को तो ख़ुश कर दिया किंतु भारत के भविष्य की घोर उपेक्षा की जिससे धार्मिक ध्रुवीकरण की जड़ों को पर्याप्त खाद-पानी मिलने लगा और दोनों देशों में धार्मिक उन्माद सदा के लिये स्थापित हो गया । देश के विभाजन से इस्लाम को क्या लाभ हुआ यह तो नहीं पता किंतु हिंदुओं और मुसलमानों के विकास में ढेरों बाधायें ख़ूब उत्पन्न हुयीं और अखण्ड भारत विश्व की महाशक्ति बनने से चूक गया ।