सोमवार, 30 अगस्त 2021

भारत में स्वर्णकाल फिर कब कब आयेगा

शूद्र अपनी राह छोड़ दे तो देश साधनविहीन और दरिद्र हो जाता है, वैश्य अपनी राह छोड़ दे तो संसाधनों का दुरुपयोग होता है और जन-जीवन संकटग्रस्त हो जाता है, क्षत्रिय अपनी राह छोड़ दे तो देश और समाज असुरक्षित हो जाता है, ब्राह्मण अपनी राह छोड़ दे तो अन्याय-अनीति और अनियंत्रित पाप से पूरा समाज पतन के गर्त में चला जाता है । सभी वर्ण के लोग निष्ठापूर्वक अपने-अपने दायित्वों का पालन करते रहें तो देश की समृद्धि, सुरक्षा और प्रतिष्ठा को शिखर तक पहुँचने से कोई रोक नहीं सकता । विदेशियों ने भारत की इस अद्भुत वर्णव्यवस्था के मूल को समझा और सीधे इसी पर प्रहार किया, नये ताने-बाने के साथ विकास की शोषणमूलक परिभाषा गढ़ी गयी, वर्ण-व्यवस्था को पाखण्ड और विकासविरोधी कहा गया, हमें वर्णव्यस्था के विरुद्ध एक हथियार के रूप में स्तेमाल किया जाने लगा, धीरे-धीरे हम स्वयं अपनी श्रेष्ठ व्यवस्था को गालियाँ देने लगे और आज न जाने कितने विकारों से जूझने के लिये बाध्य हो गये ।

शारीरिकश्रम करने वाले हों या मानसिकश्रम करने वाले, आज कोई भी अपने कर्तव्यों के प्रति निष्ठावान नहीं रहा । वैचारिक प्रदूषण समाज को भ्रमित करने में लगा है, झूठ को प्रतिष्ठित किया जाने लगा है । निर्धन को न्याय नहीं अन्याय मिलने लगा, सेना को सम्मान नहीं अपमान मिलने लगा, व्यापार में छल और पाप का बोलबाला हो गया, राष्ट्रद्रोही राष्ट्रनायक बनने लगे और राष्ट्रनायक इतिहास से लुप्त होने लगे ।

कोई काम संतोषजनक नहीं होता, समय पर नहीं होता, नीतिपूर्वक नहीं होतापुल और बाँध पहली वारिश में ही धराशायी क्यों हो जाते हैं? कोई भी फ़ाइल वर्षों तक आगे क्यों नहीं बढ़ती? बिना रिश्वत लिए कोई बात भी करने के लिए तैयार क्यों नहीं होता? कामगार काम को जैसे-तैसे भुगत कर निपटा देने के अभ्यस्त क्यों हो गये? अराजक तत्व राज्य के मालिक कैसे बनने लगे? साधु-संत भोगविलास के जीवन से विरत क्यों नहीं हो पा रहे? ये वे प्रश्न हैं जो बहुत लोगों के मन में उठते अवश्य हैं किंतु कभी चिनगारी नहीं बनते । ज्वलंत प्रश्न चिनगारी क्यों नहीं बन पाते, यह प्रश्न हर व्यक्ति को अपने आप से पूछना होगा ।

2 टिप्‍पणियां:

  1. केवल प्रश्न ही नहीं करना है बल्कि समाधान भी खोजना होगा ।

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  2. बिल्कुल समाधान तो खोजना ही है किंतु अभी तो लोग प्रश्न करने का भी साहस नहीं कर पा रहे । चिनगारी सुलगे तो आग भी धधकेगी । कीचड़ में बीज तो पड़े, कमल तो खिल ही जायेगा ।

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टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.