बुधवार, 18 अगस्त 2021

स्त्री की आवाज़

सहरा करीमी अफ़गानिस्तान की फ़िल्म निर्देशक और नामचीन अभिनेत्री हैं जो काबुल में तालिबानियों के वहशी इरादों से ख़ौफज़दा हैं । तालिबानी लड़ाके अफगानी लड़कियों को शादी करने के लिये ज़बरन उठा रहे हैं । बारह साल की बच्चियों के साथ उनकी उम्र से पाँच गुना अधिक उम्र वाले जवान तालिबानियों के जोड़े की कल्पना हमें एक पाशविक युग में खींच कर ले जाती है । नीले या काले रंग के मोटे कपड़े के तम्बू जैसे बुरके में किसी चलते-फिरते या लुढ़कते हुये ढेर की तरह दिखने वाली स्त्रियों के जीवन की सही-सही कल्पना करने के लिये कम से कम एक हफ़्ते उसी स्थिति में रहकर अनुभव करना होगा । उधर शरीया कानून को अल्लाह का हुक्म मानने वाले तालिबानी ज़ुल्म-ओ-सितम की सारी हदें पार कर दिया करते हैं, इधर भारत के देवबंदियों को अफगानिस्तान में अमन-ओ-चैन का आलम दिखायी देने लगा है । ज़ाहिर है कि देवबंदियों के सपनों में भारत के लिये भी वैसे ही अमन-ओ-चैन के आलम की तस्वीरें बड़ी हिफ़ाजत से सुरक्षित हैं । जो सेकुलर यह कहते नहीं थकते कि दुनिया के सभी धर्म इंसानियत का पाठ पढ़ाते हैं उन्हें एक बार अफगानिस्तान, यमन, सीरिया और पाकिस्तान जैसे देशों में कुछ दिन ज़रूर गुजारने ही चाहिये ।   

अफ़गानी नेताओं की नामर्दगी, गद्दारी और चीन-पाकिस्तान एवं अमेरिका के काकटेली षड्यंत्रों के परिणामस्वरूप उत्पन्न हुये नर्क को भोगने के लिये विवश अफ़गानी नागरिकों की सहायता के लिये जिन्हें सामने आना चाहिये वे नेपथ्य में पीछे चले गये हैं । उधर पाकिस्तान में उनकी आज़ादी के दिन तहर्रुश गेमिया हो गया । लगभग चार सौ लोगों की भीड़ ने एक स्त्री को तहर्रुश गेमिया का शिकार बना लिया । तहर्रुश गेमिया अरब का एक वहशी खेल है जिसमें “नामर्द-मर्दों” की भीड़ एक महिला को किसी सार्वजनिक स्थान में घेर कर उसे फ़ुटबाल की तरह इधर से उधर धक्के देती और हवा में उछालती हुयी खेलती है । उसके कपड़े धीरे-धीरे नोच कर फेक दिये जाते हैं फिर भीड़ उसके ज़िस्म को ज़िबह की तरह धीरे-धीरे नोचती है और वह सब कुछ करती है जिसे न तो कोई देख सकता है और न कोई उसका वर्णन कर सकता है । अल्लाहू अकबर के नारे लगाती भीड़ का वहशीपन धीरे-धीरे चरम की ओर बढ़ता है । यह भीड़ उस निरीह प्राणी की मालिक होती है जिसे लोग स्त्री कहते हैं । और कमाल की बात यह है कि दुनिया में बर्बरता को “सभ्यता” कहने वालों की कमी नहीं है ।

इधर भारत में देवबंदी मौलवियों, नेताओं और गज़वा-ए-हिंद के सपने देखने वाले कट्टरवादियों ने अफ़गानिस्तान में तालिबानियों के कुकर्मों को “अल्लाह की हुकूमत एवं शांति और अमन की व्यवस्था की शुरुआत” बताते हुये तालिबानियों की तारीफ़ में कसीदे पढ़ना शुरू कर दिये हैं । भारत की आधुनिक और उच्च शिक्षित हिंदू जनता गंगा-जमुनी तहज़ीब, ईश्वर अल्लाह तेरो नाम और धर्मनिरपेक्षता के पालने में झूलती हुयी मीठी-मीठी नींद ले रही है ।

सहरा करीमी ने फ़िल्म, कला और आधुनिकता की हवा में साँस लेने के जो सपने देखे थे वे उन्हें टूटते से दिखायी देने लगे हैं । वे चाहें तो दुनिया के किसी भी देश में उनके हुनर के लिये उनका स्वागत किया जा सकता है और वे चैन से अपनी ज़िंदगी गुजार सकती हैं किंतु वे अपनी मातृभूमि छोड़कर भाग रहे अफगानियों और राष्ट्रपति अब्दुल गनी की तरह नामर्द नहीं हैं, बल्कि दहशत में होने और सिर पर मँडराते आसन्न संकटों के बावज़ूद वे अफ़गानिस्तान छोड़ने के लिये तैयार नहीं हैं । दुनिया को ऐसी मर्दानी नारीशक्ति पर गर्व होना चाहिये ।

अफ़गानिस्तान में तालिबानियों को अल्लाह का कानून लागू करने की बेताबी है और इसके लिये वे इंसानियत के कानून का क़त्ल करने पर आमादा हैं । अफ़गानी मर्दों ने जहाँ अपने बच्चों और स्त्रियों को ज़हन्नुम में मरने के लिये छोड़ने का निर्णय लेकर इंसानियत को शर्मसार किया, वहीं सहरा करीमी और गवर्नर सलमा जैसी नारी शक्तियों ने अफगानिस्तान की मिट्टी को गौरवान्वित किया है । जो ख़ुद को इंसान मानते हैं उन्हें अफगानिस्तान की नारी शक्ति पर शरीया के नाम पर ढाये जा रहे ज़ुल्म-ओ-सितम के ख़िलाफ़ अफगानिस्तान की आवाज़ बन कर खड़े होना ही होगा वरना मातृशक्ति की चीखें धरती से इंसानी युग को हमेशा के लिये ख़त्म कर देंगी ।

इन पंक्तियों को लिखे जाने तक अफगानी मर्दों ने भी भूल सुधार करते हुये अपनी मर्दानगी को पहचानना शुरू कर दिया है । भारत को अफ़गानी नागरिकों को शरण देते वक़्त छिपकर आये हुये तालिबानियों से सावधान रहना होगा । ध्यान रहे हमारे आसपास अब कोई डाकू खडग सिंह नहीं है जो घोड़ा वापस कर देगा बल्कि केवल और केवल रावण हैं जो सीता को मरते दम तक वापस नहीं करेंगे ।   

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