आठ बहनों वाले पूर्वांचल में हिंदी साहित्य की साधना करने वालों में सुमिता धर वसु ठाकुर एक चर्चित रचनाकार रही हैं जिन्होंने इसी वर्ष जून महीने में चुपचाप अपनी अंतिम यात्रा के लिये प्रस्थान कर दिया । उनके इस असामयिक प्रस्थान ने मुझे हतप्रभ कर दिया । त्रिपुरा के अगरतला की निवासी सुमिता हिंदी और बंग्ला की अच्छी रचनाकार थीं । कुछ साल पहले आकाशवाणी, शिलॉन्ग के अकेला भाई द्वारा अहिंदीभाषी साहित्यकारों को हिंदी साहित्य के प्रति प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से एक साहित्यिक कार्यक्रम आयोजित किया गया था । सुमिता से मेरी भेंट इसी कार्यक्रम में हुयी थी जो बाद में अच्छे सम्बंधों में बदल गयी ।
सुमिता
धर बसु “पूर्वोत्तर सृजन पत्रिका” और अन्य कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़ी रही हैं
। फ़ोन पर हमारी देर तक देश की स्थितियों और साहित्य पर चर्चायें हुआ करतीं । वे
कभी मूड में होतीं तो हारमोनियम लेकर गाने बैठ जातीं और मैं फ़ोन पर उनके गाये गीत
या भजन सुनता रहता ।
कुछ
महीने पहले एक दिन सुमिता का फ़ोन आया था, थकी और टूटती आवाज़ में बताया
कि उन्हें साँस लेने में परेशानी हो रही है और वे आई.सी.यू. में हैं । स्वास्थ्य
जानकारी लेने के लिये मैं उन्हें प्रायः फ़ोन करता रहा । एक दिन फ़ोन उनके पति ने
उठाया और बताया कि सुमिता बात करने की स्थिति में नहीं हैं । इसके बाद बातचीत का
सिलसिला उनके पति की ओर शिफ्ट हो गया । रिपोर्ट से मुझे लगता कि अगरतला के डॉक्टर
बड़ी कुशलता के साथ अपना काम कर रहे थे । उन्हें मधुमेह था और उनकी दोनों किडनी असहयोग
आंदोलन पर उतारू हो चुकी थीं । मुझे आशा थी कि गम्भीर स्थिति के बाद भी एक दिन
मधुर सुर में सुमिता का फ़ोन आयेगा और वे चहकना शुरू कर देंगी, किंतु ऐसा हो नहीं सका । वे प्रायः फ़ोन पर कहा करतीं – “अगरतला की ख़ूबसूरत
वादियों में आपका स्वागत है”। मैं परिहास में कहता – “बस्तर के जंगल में बाघ और
भालू आपका स्वागत करने के लिये लालायित हैं”।
सम्मोहक
व्यक्तित्व की धनी और कोकिलकंठा सुमिता धर वसु ठाकुर आज हमारे बीच नहीं हैं । उनके
पति अपने बेटे के साथ अकेले रह गये हैं । पंछी उड़ चुका है और मैं आकाश में उसकी
उड़ान की राह का पीछा कर रहा हूँ । मैं स्मृतियों के तहखानों के दरवाजों पर दस्तक देकर
चेरापूँजी में सुमिता के साथ बिताये कुछ पलों को अपने पास बुलाता हूँ । अकेला भाई
भोजन की व्यवस्था में लगे हुये हैं, सुमिता गाछ के नीचे बैठकर एक फ़िल्मी
गीत गा रही हैं – चल उड़ जा रे पंछी...।
मात्र इन
दो वर्षों में ही हमने अपने कई “अपनों” को
खो दिया है, हमारे आसपास के बहुत से लोग असमय ही अपनी अंतिम यात्रा
के लिये प्रस्थान कर चुके हैं । मैं अपने कमरे में अकेला हूँ, माटी-बानी की निराली कार्तिक और भाई मूरालाल के गाये कबीरबानी के शब्द अचानक
हो गये रीतेपन को भरने का प्रयास करने लगे हैं– “हिये काया में बर्तन माटी रा...”
।
“हिये
काया में...” पूरा होते ही लालभाई एक लम्बा सा आलाप लेते हैं, एक दूसरा
भजन शुरू हो जाता है – “अपणा साहिब ने महल बनायी बणजारा रे... अब जागो प्यारा रे...”।
निराली कार्तिक दोहराती हैं – “अपणा साहिब ने महल बनायी बणजारा रे...”।
निराली
कार्तिक और लालभाई के गाये भजन आज मुझे कुछ अधिक ही स्पर्श करने लगे हैं ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.