रविवार, 22 अगस्त 2021

धारदार तारों के पार जीवन की आशा

काबुल हवाई अड्डे की ऊँची दीवाल पर शरीर को चीर देने वाले धारदार तारों की बाड़ है जिसके एक ओर अफ़गान नागरिकों की भीड़ है और दूसरी ओर अमरीकी सैनिक जो मदद के लिये उठे हाथों को थामने की कोशिश कर रहे हैं । अमेरिकी राष्ट्रपति जो वाइडन ने उस वक़्त तवे पर रोटी डालने से मना कर दिया जब कि तवा ग़र्म हो चुका था । यह किसी सत्ताधीश की दगाबाज़ी और क्रूरता हो सकती है लेकिन कोई सैनिक आम आदमी की उस भीड़ का हिस्सा होता है जो अपने जीवन में न जाने कितनी बार दर्द के थपेड़ों से जूझता रहा होता है ।  

आज टीवी चैनल्स पर उस दृश्य को देखर कलेजे में हूक उठने लगी है जिसमें काबुल हवाई अड्डे के बाहर खड़ी भीड़ के उठे हुये हाथ एक टोडलर बच्ची को हवा में ऊपर ही ऊपर उठाकर एक-दूसरे को सौंपते हुये आगे की ओर बढ़ाते जा रहे हैं, जहाँ अंतिम आदमी बच्ची को हवा में उछाल कर दीवाल पर खड़े किसी अनजान विदेशी सैनिक को सौंप देगा । यह भीड़ है जहाँ कोई किसी को नहीं जानता फिर भी भीड़ के हाथ सब कुछ जानते हैं कि आज उन्हें क्या करना है । हवाई अड्डे के बाहर खड़ी भीड़ पर बीच-बीच में तालिबानियों की गोलियाँ बरसने लगती हैं । बच्ची की दहशतज़दा माँ को उम्मीद है कि विदेशी सैनिक अंदर से एक इंसान होगा और उसकी बच्ची को अपने देश ले जाकर अपने परिवार का सदस्य बना लेगा । बहुत गहरे अँधेरे में यह रोशनी की एक बहुत तेज किरण है जो सिर्फ़ और सिर्फ़ एक पॉज़िटिव थॉट से उत्पन्न हुयी है । मैं कुछ क्षणों के लिये ख़ुद को उस बच्ची की माँ की भूमिका में देखने का प्रयास करता हूँ तो अंदर से बुरी तरह टूट जाता हूँ, नहीं ... इतनी शक्ति तो ईश्वर ने सिर्फ़ माँ को ही दी है किसी पुरुष को नहीं । शायद यही वज़ह है कि भारत और पाकिस्तान के बहुत से पुरुष उस माँ की अनंत पीड़ा का अनुभव ही नहीं करना चाहते और तालिबान को अल्लाह का कानून लाने वाले निज़ाम के रूप में ही देखने की ज़िद किए बैठे हैं ।

अमरीकी सेना का जहाज हवाई पट्टी पर कुछ दूर दौड़ने के बाद अब हवा में ऊपर उठ गया है जिसे देखते ही बच्ची की माँ पहले तो जमीन पर बैठी और फिर बेहोश होकर लुढ़क गयी । बेहद ख़ुशी और बेहद दर्द को एक साथ भोगती माँ होश में कैसे रह सकती है भला!

आक्रमणकारी तालिबान के आने के बाद अफ़गानिस्तान की हर माँ चाहती है कि उनकी बच्चियाँ तालिबानियों के ज़ुल्मो-ओ-सितम से किसी तरह सुरक्षित बच जायँ भले ही उन्हें अनजान हाथों में क्यों न सौंपना पड़े । कोई नहीं जानता कि वे माएँ अपनी बच्चियों से जीवन में दोबारा कभी मिल भी सकेंग़ी या नहीं । अफ़गान माँओं के कलेजे के टुकड़ों की यह कहानी, पता नहीं इतिहास में दर्ज़ होगी भी या नहीं ।

..और यह सब हिंदुस्तान के किसी शायर को बिल्कुल भी दिखायी नहीं देता । मुझे हैरत है कि इतने क्रूरहृदय, संवेदनहीन, ज़िद्दी, पूर्वाग्रही और मानवताविरोधी लोग भी शायर कैसे हो सकते हैं! निश्चित ही यह शायरी एक खोखला आवरण है जिसे पहनकर रावण ने सीता का अपहरण किया था । हमें ऐसे आवरणों को पहचानना होगा । और आज मैं उन सभी शायरों को अपने हृदय से हमेशा के लिये ख़ारिज़ करने की घोषणा करने के लिये बाध्य हुआ हूँ जिन्हें तालिबान इंसान ही नहीं बल्कि देवता नज़र आने लगे हैं ।



1 टिप्पणी:

टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.