रविवार, 1 अगस्त 2021

धर्मांतरण लोकतंत्र का अमोघ अस्त्र बन गया है

पुलिस अभिलेखों और विभिन्न सर्वेक्षणों के आँकड़ों से पता चलता है कि सत्ता में असामाजिक और अराजक तत्वों की भरमार होती जा रही है जो भारत के प्रबुद्धजीवियों के लिये गम्भीर चिंता का विषय है । प्रबुद्धजीवी मतदाता ऐसे लोगों को वोट नहीं देता इसलिये ऐसे प्रत्याशियों को अपने लिये एक ऐसा वर्ग उत्पन्न करना होता है जो उन्हें वोट दे सके । विगत कई दशकों से भारतीय राजनीति में भाड़े के गुण्डों का एक विशाल वर्ग उत्पन्न किये जाने के लिये राजनेताओं के संरक्षण में “मतदाता उद्योग” खड़ा किया जाता रहा है । इसका परिणाम यह हुआ है कि भारत में जागरूक मतदाताओं की अपेक्षा अराजक मतदाताओं की भीड़ बढ़ने लगी है, और यही अपराधी नेताओं का इष्ट भी है ।   

हमें लोकतांत्रिक व्यवस्था के काले पक्षों को भी देखना चाहिये, और काला पक्ष यह है कि सत्ता के लिये वोट चाहिये, वोटों के लिये अंधसमर्थक मतदाता चाहिये, अंधसमर्थन के लिये धर्मांतरित लोगों की भीड़ चाहिये और भीड़ को अपना समर्थक बनाने के लिये लालच का बाजार चाहिये । लालच कभी किसी को कर्मठ नहीं बनाता जो किसी भी देश और समाज की उन्नति की सबसे बड़ी आवश्यकता है बल्कि लालच से मनुष्य की आत्मा को ख़रीदकर मक्कारों और आतंकियों के समूह तैयार किये जाते हैं । लोकतंत्र का यह सर्वाधिक विद्रूप पक्ष है जिसमें जातीय उन्मूलन और अमानवीय घटनाओं के बीज पोषित किये जाते हैं ।

ऊपर जिस “मतदाता उद्योग” की बात की गयी है उसके टूल्स में धर्मांतरण, जातीय विद्वेष और सामाजिक विभाजन के अतिरिक्त विदेशी आततायियों, भगोड़ों और अपराधियों को संरक्षण देना सम्मिलित किया गया है । भारतीय राजनीति में सृजन के स्थान पर विखण्डनकारी और विध्वंसक गतिविधियों ने अपना सुदृढ़ स्थान बना लिया है ।

दिल्ली में “मतदाता उद्योग” के लिये प्रधानमंत्री आवास योजना का सहारा लिया गया है । इस योजना के लाभार्थियों में सत्तर प्रतिशत संख्या उन रोहिंग्याओं की है जो अपनी अराजक और हिंसक गतिविधियों के लिये म्यानमार से निकाल दिये गये थे । इन रोहिंग्या को न केवल पैसे दिये जाते हैं बल्कि राजनीतिक संरक्षण भी दिया जा रहा है जिससे कि वे समय समय पर जातीय दंगे करने के लिये तैयार रहें । दिल्ली की रोहिंग्या बस्ती के मुसलमान किसी शरणार्थी की तरह नहीं बल्कि चिंगेज ख़ान के सैनिकों की तरह रहते हैं । उनके व्यवहार में दबंगई और गुस्ताख़ी साफ देखी जा सकती है जो राजनीतिक संरक्षण के बिना कतई सम्भव नहीं है । राजतंत्र के समय भी भारत में ऐसे देशद्रोही राजाओं और सेनापतियों की कमी नहीं थी जिन्होंने मुस्लिम आक्रांताओं को देशी राजाओं पर आक्रमण करने के लिये आमंत्रित किया । दुर्भाग्य से, भारतीय राजनीति की इतनी पतित परम्परा आज तक समाप्त नहीं हो सकी है जिसके लिये यहाँ की प्रजा भी कम दोषी नहीं है जो दूसरों के बहकावे में आकर जातीय खण्डों और विद्वेषों में ही अपना उत्थान देखने की अभ्यस्त हो गयी है ।

“मतदाता उद्योग” के एक महत्वपूर्ण टूल के रूप में धर्मांतरण का प्रमुख स्थान है जिसने केरल और छत्तीसगढ़ आदि राज्यों की तरह अब पञ्जाब में भी अपनी जड़ें जमा ली हैं । सिख परम्परा का यह पतन हर भारतीय के लिये पीड़ादायी है । भारत-विभाजन के समय हिंसा और यौनदुष्कर्म के शिकार लोगों में सबसे बड़ी संख्या सिखों की ही थी । आज उन्हीं सिखों के वंशजों को यह याद दिलाने की आवश्यकता आ पड़ी है कि उनके पूर्वजों के शिकारी वे मुसलमान थे जिन्हें आज वे अपना मित्र मानने लगे हैं । सनातनी हिंदू समाज की रक्षा के लिये गुरुअर्जुन सिंह जी और गुरुगोविंद सिंह जी ने जिस सिख पंथ को अपने बलिदान से सुदृढ़ किया था आज वह बिखरने लगा है । सिखों का एक समुदाय अब स्वयं को हिंदू नहीं मानता, उन्हें भारत से अलग अपने लिये एक खालिस्तान चाहिये । पञ्जाब में ऐसे लोगों की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है जिनके आदर्श अब गुरु नानक देव और गुरु गोविंद सिंह जी नहीं बल्कि मोहम्मद साहब और यीशु हो गये हैं, उनका हृदय भारत के लिये नहीं बल्कि येरुशलम और पाकिस्तान के लिये धड़कने लगा है । वीरों और बलिदानियों की भूमि पञ्जाब नशे और धर्मांतरण के जाल में जकड़ती जा रही है । सिखों का यह धर्मांतरण गुरु गोविंद सिंह और बंदा बैरागी जैसे न जाने कितने सिखों के बलिदान का घोर अपमान है । सिख भूल रहे हैं कि गुरु अर्जुन देव को तपते हुये तवे पर धीरे-धीरे भून डालने की नारकीय यातना देने वाले कौन थे, वे भूल रहे हैं कि बंदा बैरागी के शरीर के मांस को तपते हुये चिमटों से नोच-नोच कर और फिर हाथी से कुचल कर क्रूर यातना देने वाले कौन थे । पञ्जाब के सिखों का ईसाई और इस्लामिक कट्टरपंथियों के जाल में फ़ँसते जाना न केवल पीड़ादायी है बल्कि आत्मघाती भी है ।

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