शनिवार, 30 अक्टूबर 2021

समाधान

         कुछ सालों से लता का कोई समाचार नहीं मिला है ...और मैं अक्सर उसकी याद आते ही बुरी तरह काँप उठता हूँ । मैं लता को भूल जाना चाहता हूँ ...मैं उस गाँव को भूल जाना चाहता हूँ ...मैं उन सम्भावित घटनाओं से पीछा छुड़ाकर दूर भाग जाना चाहता हूँ, किंतु ऐसा कुछ भी हो नहीं पाता । मैं जब भी पश्चिमोत्तर उत्तरप्रदेश में किसी धर्मोन्मादी भीड़ का कोई समाचार सुनता हूँ तो लता सिंह का भयभीत चेहरा लाखों प्रश्नों के साथ मेरे सामने आकर खड़ा हो जाता है, तब मुझे लता सिंह से आँखें चुरानी पड़ती हैं और मैं स्वयं को एक कायर और स्वाभिमानशून्य नागरिक अनुभव करता हूँ ...एक ऐसा नागरिक जिसे यह बताया जाता रहा है कि वह सम्प्रभु कहे जाने वाले स्वाधीन भारत का एक नागरिक है जहाँ उसके मौलिक अधिकारों की रक्षा किये जाने का वचन दिया गया है ।

बहराइच जिले में एक सुदूर गाँव के शासकीय विद्यालय में वह लड़की अध्यापन करती है । उसका घर लखीमपुर खीरी में है, एक दिन उसने बताया कि सुरक्षा कारणों से वह गाँव में न रहकर पास के एक कस्बे में रहती है और प्रतिदिन अपने विद्यालय आना-जाना करती है । आसपास के गाँव मुसलमानों के हैं और वह पूरा क्षेत्र एक लघुपाकिस्तान जैसा लगता है । अपने विद्यालय तक पहुँचने के लिये उसे ऐसे ही गाँवों से होकर जाना होता है । पिछले दिनों वहाँ हिन्दू लड़कियों के साथ कुछ ऐसी घटनायें हो गयीं जिनके बारे में जानने के बाद से वह भयभीत है और उन गाँवों से होकर जाते समय उन घटनाओं का स्मरण करते ही पसीने से तरबतर हो जाया करती है । मैंने टीवी समाचार में देखा था ...कि कुछ युवकों ने एक हिन्दू लड़की को उठा लिया, उसके साथ सामूहिक यौनदुष्कर्म किया फिर उसकी बुरी तरह हत्या कर दी । उस दिन मेरा साहस नहीं हुआ कि मैं लता सिंह से बात करके उसका हालचाल पूछ सकूँ ।

मुस्लिम गाँवों से होकर जाते समय उसे एक-एक पल एक-एक शताब्दी की तरह ठहरा हुआ लगता है ...और स्थायी भाव से ठहर चुके इस भय के हर पल को प्रतिदिन जीना अब उसकी विवशता बन चुकी है । मैं उस लड़की के लिये बहुत चिंतित हूँ ...कई बार मुझे घबराहट होने लगती है ...और आत्मग्लानि भी ...कि हमने यह कैसी आज़ादी पायी है जहाँ हमारे घर की लड़कियों को एक-एक पल काटने के लिये अपनी पूरी शक्ति सँजोनी पड़ती है ।

उसने बताया था कि रास्ते में एक छोटा सा गाँव और भी पड़ता है जिसमें डोम लोग रहते हैं । एक दिन मैंने लता से कहा कि वह उनसे मेल-जोल रखे, मुझे विश्वास है कि डोम उसका कुछ भी अहित नहीं होने देंगे । यह मुलायम राजवंश के युग की बात है, राजपूत लड़की होने के कारण उसके स्थानान्तरण की भी कोई सम्भावना नहीं थी । उस दिन मैंने स्वयं को लता से भी अधिक असहाय पाया था ।

जब भारत के उच्चशिक्षित और अतिबुद्धिमान लोग मेरी चिंता को इमोशनल फ़ुलिशनेसऔर बेसलेस  कहते हैं तो मैं उनसे निवेदन करता हूँ कि वे एक बार कुछ पलों के लिये सामूहिक यौनदुष्कर्मियों से नोची जाती हुयी लड़की के रूप में स्वयं को देखें ...कि वे एक बार कुछ पलों के लिये चाकुओं से छलनी कर दिये गये आईबी अधिकारी अंकित शर्मा के रूप में स्वयं को देखें ...और अनुभव करें कि वीभत्सता और क्रूरता से भरे उन क्षणों में किसी व्यक्ति की मानसिकता अपने देश और समाज के प्रति कैसी होती होगी । हाँ ...हम ऐसे ही भारत के निवासी हैं जहाँ हमें पल-पल दहशत में जीना होता है ...और जहाँ समाधान की दूर-दूर तक कोई सम्भावना दिखायी नहीं देती ।

जब उन्नीस सौ अस्सी और नब्बे के दशक में कश्मीरी पंडितों को उनके अपने पैतृक घरों से पलायन करके अपने ही देश में शरणार्थी सा जीवन जीने के लिये विवश किया गया था तो भारत के उच्चशिक्षित और अतिबुद्धिमान हिन्दू समूह में कोई हलचल नहीं हुयी थी । जब विधायक अकबरुद्दीन ओवेसी ने सार्वजनिक मंच से दहाड़ते हुये घोषणा की थी कि पंद्रह मिनट के लिये पुलिस को हटा लिया जाय तो वे भारत के सारे हिन्दुओं को काट कर रख देंगे – तब यह सुनकर भारत का कम पढ़ा-लिखा हिन्दू तो भयभीत हुआ था किंतु उच्चशिक्षित और अतिबुद्धिमान हिन्दूसमूह ने इस चेतावनी को कोई समस्या ही नहीं माना । जब सिंध, पश्चिमी पञ्जाब और बांग्लादेश के साथ-साथ उत्तरप्रदेश, गुजरात, हरियाणा और राजस्थान के चिन्हित किये गाँवों के हिन्दुओं को अपने पैतृक गाँव छोड़कर पलायन के लिये बाध्य किया जाता है तो भारत का कम पढ़ा-लिखा हिन्दू तो भयभीत होता है किंतु उच्चशिक्षित और अतिबुद्धिमान हिन्दूसमूह इसे अफ़वाह मान कर हिन्दुओं की हँसी उड़ाता है । जब अफ़गानिस्तान में सदियों से बसे सिखों को तालिबान सरकार द्वारा सुन्नी मुसलमान बनने या फिर अफ़गानिस्तान छोड़ देने का विकल्प दिया जाता है तो भारत का आम आदमी तो भयभीत होता है किंतु उच्चशिक्षित और अतिबुद्धिमान हिन्दूसमूह इसे कोई समस्या ही नहीं मानता । जब भारत के कई मुल्ला-मौलवी गज़वा-ए-हिंद के लिये मुसलमानों को उत्तेजित करते हैं तो भारत का आम हिन्दू तो भयभीत होता है किंतु उच्चशिक्षित और अतिबुद्धिमान हिन्दूसमूह इसे धार्मिक स्वतंत्रता मान कर मुसलमानों के पक्ष में खड़ा दिखायी देता है । जब दुनिया भर के मौलवी अपने धार्मिक प्रवचनों में चीख-चीख कर हिन्दुओं सहित सभी काफ़िरों को देखते ही काट डालने को अल्लाह की ख़िदमत मानने की वकालत करते हैं तो दुनिया भर के मुस्लिमेतर लोग भयभीत होते हैं किंतु भारत के उच्चशिक्षित और अतिबुद्धिमान हिन्दू इसे मुसलमानों को बदनाम करने का हिन्दू हथकण्डा मानते हैं । जब 2021 में बांग्लादेश में हजारों दुर्गा पण्डालों को तहस-नहस किया जाता है, हिन्दुओं की हत्यायें और हिन्दू-लड़कियों से यौनदुराचार होते हैं, मंदिर में घुसकर उन्मादी लोगों द्वारा हिन्दुओं को बुरी तरह काटा जाता है और इस्कॉन मंदिर में घुसकर तोड़फोड़ की जाती है तब दुनिया भर के लोग भयभीत होते हैं किन्तु भारत के उच्चशिक्षित और अतिबुद्धिमान हिन्दुओं को बांग्लादेशी हिन्दुओं से इन आरोपों का प्रमाण माँगते हुये देखा जाता है, और जब उन्हें इन घटनाओं के वीडियो दिखाये जाते हैं तो वे स्वयं न्यायाधीश बनकर उन्हें नकली घोषित कर देते हैं ।

भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश के मुसलमानों को पिछले कई दशकों से एक सुर में गज़वा-ए-हिन्द के लिये योजनाबद्ध तरीके से काम करते हुये दुनिया भर के लोग तो देख पाते हैं किंतु भारत के उच्चशिक्षित और अतिबुद्धिमान हिन्दूसमूह नहीं देख पाते तो मेरे जैसे आम हिन्दू की चिंतायें बढ़ जाया करती हैं । मैं, बहुत साधारण से आम हिन्दुओं के उस समूह का आम आदमी हूँ जिसे अपने सनातनधर्म पर गर्व है, किंतु जो किसी अन्य धर्म को जड़ से उखाड़ फेकने की न तो बात करता है और न इसमें विश्वास रखता है । ...मैं हिन्दुओं की उस भीड़ का एक हिस्सा हूँ जो सच को देखने-सुनने और समझने का साहस रखता है ...और जो वर्तमान के दूरगामी परिणामों की उपेक्षा नहीं कर पाता ।

लोग पूछते हैं कि इस्लाम के द्वारा दुनिया भर के अन्य धर्मों को समाप्त कर देने के लिये मारकाट करने का खुले आम आव्हान किया जाने लगा है, धार्मिक उन्माद और इस्लामी विस्तार का यह तरीका एक वैश्विक समस्या बन चुका है, हिन्दुओं के उत्पीड़न पर भारत सरकार असहाय दिखायी देती है तब ऐसी स्थिति में इन समस्याओं का समाधान क्या हो सकता है?

भारतीय हिन्दुओं की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वे एक वैश्विक समस्या को किसी भी तरह की समस्या मानने के लिये तैयार ही नहीं हैं । वे मानते हैं कि यदि इसे समस्या मान भी लिया जाय तो यह सरकारों की समस्या है इसलिये इसके समाधान का दायित्व भी सरकारों का ही है, आम आदमी को इस्लामिक विस्तार से या सनातनधर्म के पराभव से क्या लेना-देना!

उच्चशिक्षित और अतिबुद्धिमान हिन्दू समूह के लोग रिसर्च में विश्वास रखते हैं । वे ऐसी रिसर्च करना चाहते हैं जिससे और भी घातक एवं विध्वंसकारी हथियार बनाये जा सकें, नयी वैक्सीन, नये ज़ेनेटिकली मोडीफ़ाइड सीड्स, और आर्टीफ़िशियल इन्टेलीजेंसी के क्षेत्र में नये-नये कीर्तिमान स्थापित किये जा सकें ...वे अपनी रिसर्च के परिणाम मूर्ख और धूर्त राजनीतिज्ञों को सौंप कर गौरवान्वित होते हैं और अंत में अपनी रिसर्च की तकनीक भी उन्हें सौंप देते हैं जिन्हें सौंप देने के लिये धूर्त राजनीतिज्ञ उन्हें आदेश देते हैं । तालिबान विज्ञान का विरोध करते हैं पर उनके पास अत्याधुनिक हथियार और अन्य आधुनिक संसाधन होते हैं ...उनके पास वह सब कुछ होता है जिसे अतिबुद्धिमान लोग रिसर्च करके बनाते हैं । तालिबान को रिसर्च में कोई रुचि नहीं होती पर वे इस्लाम के विस्तार के लिये नई रिसर्च के उत्पादों का स्तेमाल करने में पूरा विश्वास रखते हैं । कम से कम रिसर्च के क्षेत्र में भारत के उच्चशिक्षित और अतिबुद्धिमान हिन्दू समूह की अपेक्षा, क्या तालिबान और आइसिस के लड़ाके कहीं अधिक व्यावहारिक नहीं लगने लगे हैं?

बाबर, औरंगज़ेब, चंगेज़ ख़ान, नादिरशाह और बख़्तियार ख़िलज़ी जैसे लोगों की स्तुति करके स्वयं को गौरवान्वित मानने वाले हम हिन्दुओं की सबसे बड़ी समस्या यह है कि हम एक वैश्विक समस्या को अपनी समस्या मानने के लिये तैयार नहीं हैं । हमें सबसे पहले समस्या को उसके उसी रूप में पहचानने के लिये स्वयं को तैयार करना होगा । फिर हमें असत्य और नित्य हो रहे अत्याचारों के प्रबल विरोध के लिये स्वयं को खड़ा करना होगा । स्वामी विवेकानंद ने भारत जागरण के लिये अपने जीवन को अर्पित कर दिया पर भारत जागरण नहीं हो सका । हमें समाज जागरण के लिये बारम्बार उठकर खड़े होना होगा । ध्यान रखा जाय कि राजनीतिज्ञों का न कोई धर्म होता है और न धर्म में उनकी कोई आस्था होती है । इस मामले में वे पूरी तरह नास्तिक और बहुत कुशल बहुरूपिये हुआ करते हैं, जो सुबह को इस्लाम, दोपहर को सनातन और रात को ईसाई धर्म के अनुयायी होने का बहुत अच्छा मंचन करते देखे जाते हैं । दूसरे धर्मों को स्थान देने और उनके अनुयायी होने के अंतर को हम आम हिन्दुओं को समझना होगा । समाधान पर चिंतन करते समय हमें यह भी स्मरण रखना होगा कि जब राजा अपनी प्रजा की रक्षा करने में असमर्थ हो तो प्रजा को अपनी रक्षा का उपाय स्वयं ही करना होता है ।

जब मोहनदास करमचंद गांधी मंदिर में कुरान का पाठ करने के लिये हठ पर उतारू हो जायें किंतु किसी मस्ज़िद में रामायण के पाठ को इस्लाम के विरुद्ध स्वीकार कर लेते हों तो सोचा जा सकता है कि ऐसे देश में किस तरह की परम्पराओं का सूत्रपात किया जाता रहा है । हमें यह भी गम्भीरता से सोचना होगा कि देश भर में उग आयी विषाक्त विषबेलों को उखाड़ कर नष्ट करने का समय क्या अभी भी नहीं आया है!

बुधवार, 27 अक्टूबर 2021

इण्डोनेशिया में राम, भारत में इस्लाम

 

कुरान में लिखा है काफिर जहाँ दिखे उसे मार दो -डॉक्टर ज़ाकिर नाइक

इण्डोनेशिया की सुकर्णोपुत्री सुक्मावती ने इस्लामधर्म छोड़कर “शुद्धिवदानी” संस्कार के माध्यम से पुनः अपने पूर्वजों के सनातन धर्म को स्वीकार कर लिया । भारत में कुछ साल पहले श्याम गौतम नाम के एक राजपूत युवक ने अपने पूर्वजों के सनातनधर्म का परित्याग करते हुये इस्लाम की राह पकड़ी और मौलाना उमर गौतम बन गया । आस्था और विचारों के स्थानांतरण” की इन दोनों घटनाओं ने परस्पर विरुद्ध दिशाओं में गमन किया और दुनिया को दो परस्पर विरोधी संदेश प्रेषित किये ।

जड़ों की ओर वापस आने और जड़ों को काटकर फेक देने की ये दो परस्पर विरोधी घटनायें हैं । इण्डोनेशिया की वृद्ध सुक्मावती ने राम को स्मरण कर और भारत के युवक श्याम ने मोहम्मद साहब को याद कर अपने-अपने जीवन को कृतार्थ किया । सुकर्णोपुत्री सुक्मावती ने इण्डोनेशिया के किसी अन्य मुसलमान को सनातनधर्म अपनाने के लिये नहीं कहा । मौलाना उमर गौतम ने मुसलमान बनने के बाद भारत के हजारों सनातनधर्मियों को इस्लाम की राह में प्रवृत्त किया । इण्डोनेशिया में कोई दुःखी नहीं हुआ, भारत में हजारों परिवार खण्डित होकर दुःखी हुये ।  

आज मैं उस धर्मांतरण की बात कर रहा हूँ जिसके मूल में हिंसा की विवशता नहीं बल्कि आचरण की स्वेच्छा होती है । प्रतिवर्ष भारत सहित पूरी दुनिया के लाखों लोग विभिन्न कारणों से अपने मूल धर्म का परित्याग कर इस्लाम धर्म में अपनी “आस्था और विचारों का स्थानांतरण” कर दिया करते हैं । इनमें से कुछ ऐसे भी होते हैं जो क्रांतिकारीरूप से अपने नवीन मत, विचार, आस्था, आचरण और जीवनशैली के विस्तार के महा-अभियान में कूद पड़ते हैं । यह महा-अभियान अपनी प्राथमिकताओं और आवश्यकताओं के कारण समाज और राष्ट्र को प्रभावित करता है, इससे अर्थव्यवस्था और उद्योग प्रभावित होते हैं, इससे शांति और विकास की सहज गतिमान प्रक्रियायें प्रभावित होती हैं । म्यानमार, नार्वे, फ़्रांस और आस्ट्रेलिया ने इस प्रभाव की नकारात्मकता को बड़ी गम्भीरता से समझा है । इस्लामिक तौर-तरीकों से चीन और रूस भी प्रभावित होते हैं किंतु उनके पास नियंत्रण के उनके अपने तौर तरीके हैं जिनका विरोध पाकिस्तान जैसे इस्लामिक देश भी नहीं कर पाते ।

एक तैरता हुआ प्रश्न इधर-उधर टकराता है – “दुनिया के उदारवादी देश भी इस्लाम से भयभीत क्यों होने लगे हैं जबकि लगभग हर देश में कुछ लोग इस्लाम के स्वैच्छिक अनुयायी भी बनते जा रहे हैं?” समाचार है कि यूके की जेलों में बंद कई अपराधियों ने स्वेच्छा से इस्लाम स्वीकार कर लिया है । मलेशिया में रह रहे भारतीय नागरिक डॉक्टर ज़ाकिर नाइक दुनिया भर में घूम-घूम कर इस्लामिक आचरण के बारे में लोगों को बता रहे हैं । मलेशिया में ज़ाकिर नाइक के बहुत प्रशंसक हैं जबकि उनके हिंसक कट्टरवाद ने दुनिया के सहिष्णु लोगों को भयभीत कर दिया है । वे खुलकर कुरान की आयतों का उल्लेख करते हुये मुसलमानों को काफिरों की हत्या कर देने के लिये प्रेरित करते हैं । इस्लाम की यह शिक्षा पूरी दुनिया के लिये एक बहुत बड़ी समस्या बन गयी है । इतनी दहशत के बाद भी इस्लाम की ओर युवाओं के आकर्षण को हमें समझना होगा ।

जहाँ किसी प्राणी को धीरे-धीरे ज़िबह (हलाल) करके उस प्राणी की मरणांतक पीड़ा में आनंद की अनुभूति को धर्मानुकूल माना जाता हो, जहाँ ईश्वर के सम्बंध में अन्य विद्वानों के अभिमत को अस्वीकार करते हुये उन्हें काफ़िर मान लेने और उन्हें देखते ही क़त्ल कर देने को ईश्वरीय आदेश प्रचारित करने की ज़िद की जाती हो, जहाँ अपनी विचारधारा के विस्तार के लिये किये जाने वाले युद्धों में शत्रु की सम्पत्ति और स्त्रियों की लूटमार को माल-ए-गनीमत मानकर बाँट लेने को धर्मसम्मत माना जाता हो, जहाँ मानवीय और नैतिक मूल्यों की अपनी स्वैच्छिक परिभाषायें हों, जहाँ प्राचीन सभ्यता और संचित ज्ञान को नष्ट कर देना “सबब” माना जाता हो, जहाँ हिंसा ही हर समस्या का समाधान हो, जहाँ सहमत न होने को ईशनिंदा मानकर असहमत व्यक्ति की हत्या कर दी जाती हो, जहाँ इन सारे आचरणों को धार्मिक कृत्य माना जाता हो... वहाँ उजालों को जाने से डर लगता है ।

अपने ज्ञान, मत और विचार को सर्वोपरि मानते हुये शेष दुनिया के ज्ञान, मत और विचार के प्रति हिंसक असहिष्णुता उन गहनतम अँधेरों को आमंत्रित करती है जिन्हें सामाजिक जीवन की मानवीय और नैतिक मर्यादाओं से मुक्ति की तीव्र छटपटाहट होती है । स्वेच्छाचारी और सामंजस्यहीन जीवन जीने के इच्छुक लोगों को भी एक ऐसे विचारतंत्र की आवश्यकता होती है जो उनके कृत्यों को ईश्वर की दृष्टि में न्यायसंगत ठहरा सके । ऐसे विचारतंत्र न्यूनाधिक रूप में हर युग में रहे हैं और आगे भी रहेंगे । तमस के सुर कभी प्रकाश के सुर के साथ तालमेल नहीं कर पाते, उनकी गति अ-सुर ही रहती है । यही कारण है कि अँधेरों से सामंजस्य करना बहुत सरल होता है, कठिनाई तो तब आती है जब सूर्य अपने चरम पर होता है और सत्य का प्रखर तेज तमस का काल बनकर प्रकट होता है ।

शनिवार, 23 अक्टूबर 2021

इस्लामिक राष्ट्रवाद


               यूके में दूसरे सर्वाधिक मतावलम्बियों वाला धर्म इस्लाम है जिसमें सबसे अधिक संख्या (3 प्रतिशत) सुन्नी मुसलमानों की है जिन्हें इस्लामिक साम्राज्य विस्तार के लिये समर्पित योद्धा माना जाता है । ब्रिटिश सरकार स्वीकार करती है कि ब्रिटेन की जेलों में रहते हुये कई अपराधी इस्लाम धर्म को अपना लिया करते हैं । यह उन सरकारी सुविधाओं के आकर्षण में किया जाता है जो केवल ब्रिटेन के मुसलमानों को ही प्राप्त हैं अन्य ब्रिटिशर्स को नहीं । यूँ इस्लाम के प्रति ब्रिटिश क्रिश्चियन्स का आकर्षण अद्भुत है । सन् 2011 की स्थिति में ब्रिटेन में जहाँ क्रिश्चियंस की जनसंख्या 59.3 प्रतिशत और मुसलमानों की जनसंख्या 4.8 प्रतिशत हुआ करती थी वहीं सन् 2019 की स्थिति में क्रिश्चियंस की जनसंख्या कम होकर 50 प्रतिशत और मुसलमानों की जनसंख्या बढ़कर 5 प्रतिशत हो गयी । धार्मिक मतावलम्बियों का यह खिसकाव ब्रिटेन के लिये ख़तरे की घण्टी है । यूनाइटेड किंग्डम में 2011 में नॉन रिलीजियस लोगों की जनसंख्या 25.1 प्रतिशत थी जो सन् 2019 में बढ़कर 37 प्रतिशत (9% एथीस्ट्स, 28% नॉन बिलीवर्स एवं एग्नॉस्टिक्स) हो गयी । राष्ट्रवाद के संदर्भ में इस विचलन का विश्लेषण कुछ नये समीकरण प्रस्तुत करता है ।

आश्चर्य की बात यह है कि यूके में मुस्लिम धर्मान्तरण की ओर यह झुकाव तब है जबकि इस कम्यूनिटी को वहाँ की सरकार और समाज पर एक अनावश्यक बोझ माना जाने लगा है । ब्रेडफ़ोर्ड, ड्यूज़बरी और ब्लैकबर्न के उदाहरण किसी को भी हतोत्साहित करते हैं जहाँ के मुसलमानों ने अपनी एक अलग दुनिया बना ली है जिसका शेष इंग्लैण्ड के लोगों से कोई वास्ता नहीं होता । उनके घर गंदे और अनहाइजेनिक होते हैं, वे अल्पशिक्षित या अशिक्षित होते हैं, अधिकतर युवा बेरोज़गार एवं आवासविहीन हैं और सरकारी सुविधाओं पर आश्रित रहते हैं, टीवी में भी वे लोग अपने मुस्लिम चैनल ही देखते हैं । वे स्वयं को इंग्लैण्ड जैसा नहीं बनाना चाहते बल्कि इंग्लैण्ड को अपने जैसा बनाना चाहते हैं जिसके कारण ब्रिटिशर्स और उनके बीच सामाजिक दूरियाँ बढ़ रही हैं और विवाद सड़क पर आने लगे हैं । इनके मौलवी धरती के चटाई की तरह चपटी होने और स्थिर होने की कल्पना की सत्यता पर आज भी अडिग हैं और इस्लाम के आगे आधुनिक विज्ञान को झूठा और दुनिया को ग़ुमराह करने वाला प्रचारित करने में रात-दिन एक किये रहते हैं । वे विज्ञान को तुच्छ और कुरान को सर्वोपरि मानते हैं, यहाँ तक तो सब कुछ ठीक है किंतु मुश्किल तब पैदा होती है जब उनकी ज़िद होती है कि सारी दुनिया को उनकी हर बात माननी ही होगी अन्यथा उन्हें क़त्ल कर दिया जायेगा ...और यह सब उनकी आसमानी किताब में लिखा है । विश्व के लिये यह एक बहुत बड़ी और गम्भीर चेतावनी है जिसका सामना करने के लिये पूरी दुनिया को एक मंच पर आना ही होगा ।

इस्लामिक साम्राज्यवाद की ओर तेजी से बढ़ता हुआ यह इस्लामिक राष्ट्रवाद है जिसके अनुसार धरती के किसी भी हिस्से में रहने वाले मुसलमान और उसके परिवेश को एक वैश्विक इस्लामिक देश का हिस्सा माना जाता है । स्वयं को अल्लाह का बंदा कहने वाले मुसलमान देर-सबेर हर हिस्से की आज़ादी के लिये ज़िहाद करने का अवसर तलाशते रहते हैं । मुश्किल तब आती है जब वे धरती से अन्य सभी धर्मों को समूल उखाड़ फेकने की बात करते हैं । यह एक तरह से अराजकता, असामाजिकता और आपराधिक गतिविधि का ऐलान है ।

यू-ट्यूब पर ऐसे वीडियोज़ की भरमार है जिनमें भारत और पाकिस्तान के मौलवी हिंदुओं का नाम-ओ-निशान धरती से मिटा देने का ऐलान कर रहे होते हैं । ऐसे वीडियोज़ पर न कभी यू-ट्यूब को कोई आपत्ति होती है और न किसी सरकार को । भारत की तर्ज़ पर अब यूके में भी 5 प्रतिशत जनसंख्या वाले मुसलमान सामने आ गये हैं और यूके को इस्लामिक मुल्क बनाने के लिये प्रदर्शन करने लगे हैं । इसका सीधा सा अर्थ यह है कि वे ग़ैरइस्लामिक 95 प्रतिशत लोगों को भी शरीया की सीमा में लाने की ज़िद पर अड़ गये हैं । दूसरे शब्दों में कहा जाय तो 5 प्रतिशत लोगों को 95 प्रतिशत लोगों की धार्मिक आस्थाओं से कोई लेना देना नहीं है और वे उन 95 प्रतिशत लोगों पर भी अपनी हुकूमत कायम करने पर आमादा हैं ।

             ब हम किसी की कही हुयी बात को अंतिम सत्य मान लेते हैं तो हम उस समय सत्य की हत्या कर रहे होते हैं । अंतिम सत्य वह है जिसे कोई कहता नहीं फिर भी वह होता है ...उसका अस्तित्व होता है ...देश-काल से परे ...सार्वकालिक.... सार्वभौमिक ।

गणित में भारत की उपलब्धियाँ

शून्य की खोज करने वाले भारत ने गणित में अद्भुत उपलब्धियाँ प्राप्त की हैं । भारत की कालगणना की सूक्ष्मता और वृहदता आश्चर्यचकित करती है ।

दुनिया को “संख्या” का उपहार देने वाले भारत में आज गणित का काला जादू भी किया जाना लगा है जहाँ गणित के सारे नियमों के धता बताते हुये 68.3 प्रतिशत मुस्लिम आबादी वाले जम्मू-कश्मीर के मुसलमानों को अल्पसंख्यक माना जाता है, शेष तीस प्रतिशत में अन्य धर्मावलम्बी हैं जिन्हें बहुसंख्यक माना जाता है । इसी तरह लक्षद्वीप में भी जहाँ मुस्लिम 96.2% हैं अल्पसंख्यक माने जाते हैं, जबकि हिंदू, जो कि गणितीय दृष्टि से वास्तव में अल्पसंख्यक हैं उन्हें बहुसंख्यक माना जाता है ।

भारत में बहु और अल्प का गणितीय और राजनैतिक अर्थ परस्पर विरोधी हुआ करता है । इतनी बेशर्म गणित दुनिया के अन्य किसी भी देश में नहीं परोसी जाती । ...मजे की बात यह है कि गणित के इस काले जादू पर कोई भारतीय कोई सवाल भी नहीं करता ।

शुक्रवार, 22 अक्टूबर 2021

भारत की नयीपीढ़ी और नयीपीढ़ी का भारत

         अफ़्रीका के एक मित्र ने मुझसे जानना चाहा कि “नयी पीढ़ी का भारत कैसा है?” मुझे लगा कि पूरी ईमानदारी से उत्तर देने के लिये मुझे नेताओं और उच्चाधिकारियों की चर्चित और विवादास्पद गलियों से दूर आम जनता की भीड़ में घुसकर आधुनिक भारत को देखने का प्रयास करना चाहिये ।

वे विद्यालयीन परीक्षाओं के दिन थे, बिहार में परीक्षा में नकल कराते हुये रिश्तेदारों और मित्रों की भीड़ के बीच से मैंने नयी पीढ़ी के भारत को झाँक कर देखने का प्रयास किया था । कुछ प्रांतों में मुक्त-विद्यालय से हाईस्कूल और इण्टरमीडिएट की परीक्षायें पूर्ण मुक्त वातावरण में देने की सुविधा भी उपलब्ध है । बाद में मुझे पता लगा कि नकल करके छप्परफाड़ नम्बर लाने वाले कई लोगों को बाद में सरकारी नौकरियों के पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था । मुझे अचानक ही उन कर्मचारियों की याद आने लगी जो ऑपरेशन के बाद सर्जिकल इंस्ट्र्यूमेंण्ट्स को पानी में भिगाकर फिर से बिना साफ किये हुये ही स्टरलाइज़र में डाल दिया करते हैं और समझाने के बाद भी कोई बात मानने के लिये कभी तैयार नहीं होते ।

मैंने देखा सरकारी अस्पताल के युवा चिकित्सक ने एक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी को एक मोटी रकम के बदले एक झूठा मेडिकल सर्टीफ़िकेट बना कर दे दिया, दोनों हर्षित हुये । भ्रष्टाचारिक सहजीविता (सिम्बियॉसिस) के इस सुस्थापित व्यवहारवाद में आदर्शवाद न जाने कब का समाधिस्थ हो चुका था ।

मैंने देखा, दूध और घी बेचने वाले शोषित-दुःखी और गरीब आदमी ने दूध में दरिया का पानी मिला दिया है और मृत पशुओं की हड्डियों को उबालकर निकाली गयी मज्जा से निर्मित तरल में घी का एसेंस मिला दिया है जिससे नकली घी में असली घी की तरह ख़ुश्बू आने लगी है ।

मैं भारत के अंतिम आदमी को भी देखना चाहता था इसलिये वंचित, दुःखी और शोषित माने जाने वाले ग़रीबों की झुग्गियों की ओर गया, जहाँ कुल दो सौ नब्बे परिवारों के बीच चार सौ ग्यारह राशन कॉर्ड बनाये गये थे । ग़रीबों के लिये सरकार की ओर से फ़्री बिजली होने के कारण बल्व दिन-रात जलते रहते थे और टेबल फ़ैन का उपयोग वारिश के दिनों में कपड़े सुखाने के लिये किया जाता था । फ़्री में मिलने वाली सरकारी सुविधाओं के दुरुपयोग से उत्पन्न सुख ने निर्धनता की पीड़ा को बहुत कुछ कम कर दिया था । मैंने वहाँ मितव्ययता को तलाशने की कोशिश की जो मुझे वहाँ कहीं नहीं मिली, मुझे आगे बढ़ना पड़ा ।

अमीबा एक ऐसा प्राणी है जिसके शरीर में कहीं भी कूटपाद (धोखा देने वाले पैर) उत्पन्न होते हैं और अमीबा को एक गति देकर अगले ही क्षण विलुप्त हो जाते हैं । कूटपाद उत्पन्न और विलुप्त होते रहते हैं ...अमीबा आगे की ओर बढ़ता रहता है । पैर झूठे होते हैं किंतु गति वास्तविक होती है । यह अद्भुत है किंतु विश्व के अधिकांश देशों की यही दुष्ट और छल नीति है जो राजनीति के नाम से व्यवहृत होती है ।  

जहाँ ग़रीबी, वंचना, शोषण और दुःख जैसे शब्द दुष्टनीति के लिये अमीबा के कूटपाद की तरह व्यवहृत किये जाने लगे हों और वास्तव में जहाँ हर मछली अपने सामने पड़ गयी हर मछली के शिकार पर आमादा हो वहाँ मुझे नयी पीढ़ी के भारत को तलाशने का काम बड़ा दुस्साहसिक लगने लगा है ।   

भारत की नयी पीढ़ी भारत के बारे में क्या सोचती है, और वह स्वयं को भारत के लिये कहाँ पर खड़ा पाती है ?

मुम्बई के राकेश दुबे जी ने अपने एक मित्र को सूचना दी कि भारत की बिगड़ती स्थितियों को देखते हुये विदेश प्रवासिनी उनकी बेटी ने उनसे भारत छोड़ देने का अनुरोध किया है ।

“बिगड़ती स्थितियाँ” -इस पर दीर्घ चर्चा हो सकती है । बिगड़ती महँगाई, बिगड़ती सामाजिक समरसता, बिगड़ते पैमाने, बिगड़ती आज़ादी, बिगड़ते लोग और बिगड़ती सीमायें ...।

भोपाल से भाई अशोक चतुर्वेदी जी कहते हैं – “महँगाई बढ़्ती जा रही है और लोगों का जीवनयापन मुश्किल होता जा रहा है । रोटी, कपड़ा, मकान और नागरिक सम्मान जैसी चीजें दुर्लभ होती जा रही हैं । सरकार और जनसामान्य के बीच का सम्वाद कठिन होता जा रहा है । सम्वाद से सरकार और नागरिकों के बीच सरोकार बनता है जो किसी देश को रहने के योग्य बनाता है । समाज के बीच भी सहज भरोसे का सम्वाद समाप्त होता जा रहा है”।

पूर्व विधान सभा सचिव भाई अशोक चतुर्वेदी जी का आकलन गम्भीर है । समाज का समाज से सम्वाद, समाज का सरकार से सम्वाद ...। समाज है, सरकार है, सम्वाद कहाँ है?

मैंने गोरखपुर वाले ओझा जी से पूछा – “सम्वाद से सरकार और नागरिकों के बीच सरोकार बनता है जो किसी देश को रहने के योग्य बनाता है । समाज के बीच भी सहज भरोसे का सम्वाद समाप्त होता जा रहा है । समाज है, सरकार है, सम्वाद कहाँ है?”

गोरखपुर वाले ओझा जी ने नखरे दिखाये– “जा ...तुहीं खोजा ...सम्वाद कहाँ बाटे”।

मैंने कहा, “मैं गम्भीर हूँ, आपसे अपेक्षा है कि आप सोच-समझकर उत्तर देंगे”।

ओझा जी गम्भीर हो गये, बोले – “चीन में समाज बा, सरकार बा, …सम्वाद सुनले हौ का? सम्वाद एगो स्वस्थ प्रक्रिया बा ...होखे के चाहीं ...के करी सम्वाद? केकरा से करी सम्वाद? भेंड़ से सम्वाद ना करल जाला ...हाँकल जाला । चीन मं सम्वाद नइ खे ...तभियो समृद्धि बाटे ..चीन के इकोनॉमी देखले हौ?”

मैंने पूछा – “लोकतांत्रिक मूल्यों का कोई अर्थ नहीं क्या?”

वे बोले – “दुनिया के कवनो तंत्र ..कतना हू नीमन होखे... कुछ दिन के बाद भ्रष्ट हो जाला । लोकतंत्र त एगो ग़ुस्ताख़ तंत्र बाटे ...कुल बुड़बक बनाये वाला तंत्र”।

तान्या शुक्ला को कैलीफ़ोर्निया में रहते हुये दूसरा साल है । मैंने पूछा – “नये भारत के निर्माण में तुमने अपनी क्या भूमिका निर्धारित की है?”

सुभाष चंद्र बोस को भारत का प्रथम प्रधानमंत्री मानने वाली तान्या ने उत्तर दिया – “किसी मृत समाज का क्या निर्माण! हमारे सामने बहुत से भारतवंशी हैं जिन्होंने अमेरिका के निर्माण में अपनी भूमिका तय कर ली है । रही बात राष्ट्रवाद की तो आपका राष्ट्रवाद एक ऐसे देश की भौगोलिक सीमाओं में सिमटा हुआ है जो अभी तक अपनी दिशा तक तय नहीं कर सका है ...युवापीढ़ी के पास इतना समय नहीं है कि वह सुभाषचंद्र बोस बनकर एक मृत समाज के लिये अपनी आहुति दे दे । यह दुनिया आने वाले समय में किसी भारतवंशी को अमेरिका का उपराष्ट्रपति ही नहीं राष्ट्रपति भी बनते हुये देखने वाली है । हम जीवित समाज के लिये अपनी भूमिकायें निर्धारित करने वाले लोग हैं”।

मेरे सामने एक नया विषय आ गया है ...भारतवंशियों का विराट राष्ट्रवाद!  

गुरुवार, 21 अक्टूबर 2021

इस विरोध पर पटक के मारूँ या हँसूँ

भारत के वैज्ञानिकों ने एण्टी कोरोना वैक्सीन बनाया ...दुनिया के कई ग़रीब देशों के नागरिकों को सच्ची वाली ख़ुशी हुयी पर भारत के नेतागण प्रसन्न नहीं हुये, विरोध के बादल फटने लगे – “मोदी फेकू है, वैक्सीन बनाने से पहले कम से कम कोरोना वायरस के बारे में जान तो लेता, वायरस को जाने बिना वैक्सीन बना दिया? और फिर वैक्सीन से अधिक आवश्यक है गलवान और अरुणांचल में चीनियों की घुसपैठ को रोकना जिसके बारे में मोदी गूँगा बना रहता है, मोदी देश को चीनियों के सामने प्लेट में सजा कर दिये दे रहा है। हम मोदी को उखाड़ फेकेंगे।

भारत को यू.एन. की अध्यक्षता का अवसर मिला, भारत के नेतागण और अतिबुद्धिजीवी ख़फ़ा हो गये, विरोध का बादल फटा – “मुल्क में कोरोना फैला है और मोदी को भाखन देने से फुरसत नहीं । मोदी हटाओ देश बचाओ”।

भारतीय वैज्ञानिकों ने कोरोना की पहली औषधि खोज ली, देव-किन्नर-गंधर्व सब हर्षित हुये, भारत के “नेतागन आ बेसीबुद्धी बाला बिदवान लोग” रिसिया गया, विरोध का एक हथगोला फेंक कर मारा – “मोदिया अकदमे पगला गिया है, ममता भनर्जी क गाँव में रोज रतिया के एगो भेड़िया आता है कब्बो किसी का त कब्बो किसी का एगो बकरा-बकरी-मुर्गा-मुर्गी ले जाता है। गरीब का चिंता नहीं है मोदिया को के बेचारा जिएगा कइसे? कोरोना का दबइया से भेड़िया भागेगा...सुने हैं कब्बो?”

इसरो या डी.आर.डी.ओ. की कोई बड़ी उपलब्धि की ख़बर आते ही भारत के नेताओं और अतिबुद्धिजीवियों में मातम छा जाता है, विरोध के रॉकेट पर रॉकेट दागे जाने लगते हैं – “दिल्ली में दूध नकली बिक रहा है, मेरी दाढ़ी के बाल सफ़ेद होने लगे हैं, नेलकटर बाज़ार से ग़ायब हैं, नाख़ून बढ़ते जा रहे हैं, कुत्ते का पिल्ला नाली में गिर गया, फ़िरोज़ भाई के घर में चोरी हो गयी, चोर अभी तक पकड़े नहीं जा सके, दिल्ली में मोदी की नाकारा पुलिस सो रही है और मोदी मजे से चाय पी रहा है...इसरो और डीआरडी के नाम पर झूठ बोलने से जनता माफ़ नहीं करेगी मोदी को”।        

मोतीहारे वाले बाबा मिसिर जी गुस्से में हैं कि बड़का-बड़का पढ़ा-लिखा नेता लोग जनता को सरेआम अतना बुड़बक काहें बूझता है!


शुक्रवार, 15 अक्टूबर 2021

था वो वक्त शब, वक्त ये है सहर

 

यह दुर्घटना जिहाद नहीं, कुचलू जिहाद है 

दिल्ली की सिंधु सीमा पर लग एक साल से किसान आंदोलन चल रहा है । इस बीच कई अप्रिय, हिंसक और राष्ट्रविरोधी घटनायें भी किसान आंदोलनकारियों के नाम से की जाती रहीं । नवरात्रि के पवित्र दिनों में एक बार फिर सिंधु सीमा पर एक दलित समुदाय के युवक की नृशंस हत्या, यह आरोप लगाकर कर दी गयी कि उसने गुरुग्रंथ साहिब का अपमान किया था । हत्या का तरीका तालिबान तरीके की तरह ही वीभत्स और क्रूर था । हत्या करने के बाद निहंगों ने इस हत्या का दायित्व स्वीकार करने की घोषणा करके एक और ग़ुस्ताख़ी की और सीधे-सीधे भारत की सरकार को चुनौती दे दी है ।


निहंगों का आरोप है कि इस दलित युवक ने गुरु ग्रंथ साहिब का अपमान किया था जिसकी उसे सजा दी गयी है 

किसी एक घटना की पीड़ा अभी कम भी नहीं हो पाती कि अगली कुछ और घटनायें हो जाती हैं जिससे पुरानी सारी घटनायें एक-एक कर मन के कोने में रिसने लगती हैं ।

दुर्गापूजा के दिनों में पूजा के विरोध में हिंसक और उत्तेजक घटनायें फिर होने लगी हैं । छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल और झारखण्ड आदि प्रांतों में हिन्दुओं की आराध्या देवी दुर्गा का अपमान करके हिन्दुओं को स्पष्ट संदेश दिया जा रहा है कि भारत में हिन्दुओं को धार्मिक स्वतंत्रता आने वाले समय भी बिल्कुल भी नहीं दी जायेगी ।

इस तरह के कलमतोड़ संदेशों और धमकियों का क्रम बना हुआ है । अपराधियों को दण्ड देने के स्थान पर संरक्षण और महिमामण्डित करने की परम्पराओं पर भी विराम नहीं लग सका है । यही कारण है कि ऐसी घटनायें बारम्बार होती जा रही हैं ...पहले से भी अधिक उत्तेजना और क्रूरता के साथ ।

कुछ साल पहले एक सरकारी चिकित्सालय की महिला चिकित्सक द्वारा अपने रोगियों के प्रिस्क्रिप्शन में इस्लामिक क़ायदों का पालन करने की हिदायतें लिख कर वर्षों तक दी जाती रहीं । शिकायतें होती रहीं और महिला चिकित्सक अपना कार्य बदस्तूर करती रही । हो सकता है कि मीडिया में हंगामे के बाद उस पर कुछ कार्यवाही की गयी हो किंतु इस तरह की घटनाओं की पुनरावृत्तियाँ थमने का नाम नहीं ले रहीं हैं । पिछले साल एक मसीही चिकित्सक सर्जन ने आयुर्वेद की वैज्ञानिकता को लेकर बड़ा हंगामा किया और उसे प्रतिबंधित करने की माँग कर दी ।

शिक्षा जैसे पवित्र क्षेत्र को भी धार्मिक उन्माद और ध्रुवीकरण ने अपना शिकार बना लिया है । कुछ ही दिन पहले छत्तीसगढ़ के एक सरकारी विद्यालय में शिक्षक द्वारा उन छात्रों की पिटायी गयी जिन्होंने अपने घर में दुर्गापूजा की थी और जो ईश्वर में आस्था रखते थे । शिक्षक ने छात्रों को धमकाते हुये प्रभु यीशु में अपनी धार्मिक आस्था बनाने के लिये कहा ।

जुलाई सन् 2020 में झारखण्ड के पूर्वी सिंहभूमि जिले के घाटशिला में एक शिक्षिका ने छोटे बच्चों को पाकिस्तान और बांग्लादेश के राष्ट्रगानों को याद करने और उनका अभ्यास करने का ऑन लाइन गृहकार्य दिया था । पालकों ने इस पर संज्ञान लिया तो प्राचार्य ने उस आदेश को वापस लेने की घोषणा कर दी और शिक्षिका को निलम्बित कर दिया । प्रश्न यह है कि किसी मुस्लिम शिक्षक या शिक्षिका के मन में इतना दुस्साहस कब और कैसे उत्पन्न हो गया ? निश्चित ही यह सब अनायास नहीं हुआ ..हो ही नहीं सकता ...यह वर्षों से चले आ रहे मस्तिष्क प्रक्षालन का परिणाम है । माओ ने खाँटी” कम्युनिस्ट पीढ़ी उत्पन्न करने के लिये आयुर्वेदोक्त “मासानुमासिक गर्भिणी परिचर्या” का पालन करते हुये कम्युनिस्ट विचारधारा वाले कट्टर युवकों-युवतियों के आपस में विवाह करवाये और फिर गर्भावस्था में गर्भिणियों का मस्तिष्क प्रक्षालन करवाया जाता रहा । चिकित्साविज्ञान की ओलम तक न जानने वाले माओ को यह दृढ़ विश्वास था कि इस तरह उत्पन्न होने वाले बच्चे “खाँटी” कम्युनिस्ट होंगे । माओ के बाद शी-जिन-पिंग सरकार ने एक कदम आगे बढ़कर तिब्बतियों के जातीय उन्मूलन के लिये खाँटी कम्युनिस्ट युवकों को तिब्बती लड़कियों से बच्चे पैदा करने का आदेश जारी कर दिया । वैचारिक दृढ़ता, निर्भीकता, और किसी स्थापित व्यवस्था को चुनौती देने का दुस्साहस यूँ ही नहीं हो जाता ।

भारतीय सूचनातंत्र की दयनीय मानसिकता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि धार्मिक दंगों का समाचार प्रकाशित या प्रसारित करते समय “एक धर्म के लोग” या धर्म विशेष के लोग” जैसे शब्दों का प्रयोग किया जाता है जो उस दहशत को दर्शाता है जिसे सुनियोजित तरीके से उत्पन्न किया जाता रहा है । ये अपरोक्ष शब्द इस बात की भी चीख-चीखकर घोषणा करते हैं कि भारत में हिन्दुओं के लिये एक धर्म विशेष के अपराधी का नाम लेना या उसका धर्म बताना सुरक्षित नहीं है । क्या हम इसे गांधी और नेहरू के सपनों का भारत मान लें ।

भारत के हिन्दू इन सारी बातों को बहुत हल्के में लेते हैं या फिर सब कुछ ईश्वर के भरोसे छोड़ देते हैं । गांधार देश, पचिमी भारत, पूर्वी भारत आदि अखण्ड भारत के भूखण्डों के हिन्दुओं की रक्षा उनके ईश्वर ने नहीं की, उन्हें मुसलमान बन जाना पड़ा । क्या आपको नहीं लगता कि आप इस्लामिक कानूनों वाले एक मुल्क में तब्दील होते जा रहे हैं ?

हाल ही में घाटी में सिख शिक्षिका-शिक्षक की हत्या के बाद वहाँ के मुसलमानों ने सड़क पर निकलकर हिन्दुओं के पक्ष में अपनी आवाज़ बुलंद करने का साहस किया । हिंदुओं के पक्ष में शायद पहली बार मस्ज़िदों से भी ऐलान किये गये हैं । यह एक मानवीय, अनुकरणीय और प्रशंसनीय पहल है । घाटी में बहुत लम्बी शब के बाद एक सहर की शुरुआत सी लग रही है ।

वक्त के नाम से एक आई ख़बर

वक्त को वक्त की ना लगे फिर नज़र ।

वक्त के ख़ौफ़ से वक्त दहशतज़दा  

आज हर कोई है हर किसी से ख़फ़ा ।

वक्त मुशरिक है तू, वक्त मैं बुतशिकन

वक्त तू शिर्क है, वक्त मैं हूँ सबब ।

वक्त ने वक्त का है कतल फिर किया

फिर ख़ुदा ने बुझाया ख़ुदा का दिया ।

वक्त ने वक्त को फिर से दी धमकियाँ

ख़ौफ़ से क्यों ख़ुदा की ये नजदीकियाँ । 

वक्त ने वक्त को एक ख़त है लिखा

वक्त बीमार वो, वक्त ये है दवा ।

था वो वक्त शब, वक्त ये है सहर

वक्त कमजोर एक, वक्त दूजा ज़बर ।

सम्वेदनाओं के व्यापार

         नृशंस हत्या, यौनदुष्कर्म, लूटपाट और मंदिर विध्वंस की पीड़ायें झेलना हमारी नियति बन चुकी है । 

समाज में नैतिक क्षरण से होने वाले अपराधों और शासन-प्रशासन के विभिन्न तंत्रों में होने वाले क्षरण को दूर करने के स्थान पर उन्हें संरक्षण दिये जाने की परम्परा ने राजनीति का अर्थ, उद्देश्य और सीमायें बदल कर रख दीं हैं । राजनीति में अब राजा की सु-नीति नहीं होती, गुण्डों और अपराधियों के कुचक्र और षड्यंत्र होते हैं जिनके सहारे देश की विशाल जनसंख्या को अपने नियंत्रण में रखने की प्रतिस्पर्धा कुछ लोगों के बीच होती रहती है । राजनीति के नाम से किये जाने वाले सुनियोजित अपराधों और षड्यंत्रों का धरातलीय सत्य एक बहुत बड़ा छल बन कर उभरता जा रहा है । भारत की हिन्दू जनता ने इस सत्य से अपनी आँखें फेर ली हैं, भ्रष्टाचार को मधुमेह जैसी व्याधि मानकर आम लोगों ने उसके साथ जीना सीख लिया है ।

जम्मू-कश्मीर में अक्टूबर 2021 के प्रथम सप्ताह के प्रथम छह दिनों में सात ग़ैरमुस्लिमों की हत्या कर दी गयी । परिचय-पत्र देखकर ग़ैरमुस्लिमों की हत्यायें की जा रही हैं । मुस्लिम नेताओं की छोड़िए, हिन्दुत्व विरोधी हिन्दूगुट अभी भी अपनी बात पर अड़ा है कि इस्लाम का विस्तार कभी तलवार के सहारे नहीं किया गया । सात अक्टूबर के दिन भी दो शिक्षकों - सुपिंदर कौर और दीपक चंद मेहरा को, विद्यालय में जाकर हिंदू होने के अपराध में मृत्युदण्ड दिया गया । मिथ्या भाईचारे की बात करने वाले मुसलमानों की प्रतिक्रिया हिन्दुओं को आश्वस्त नहीं करती, जिससे भय का वातावरण और भी गहरा हो गया है ।

पाकिस्तान और बांग्लादेश की तरह भारत में भी हिन्दू होना एक गम्भीर अपराध माना जाता है इसलिए हर बार की तरह इस बार भी हिन्दुओं की नृशंस हत्या पर किसी की सम्वेदना जाग्रत नहीं हुयी । हमने अपने जन्म से लेकर अब तक ऐसा ही भारत देखा है ।

सोलह अगस्त 1946 में हिन्दुओं और सिखों के विरुद्ध ब्रिटिश इण्डिया में छेड़े गये वीभत्स जिहाद की निरंतरता भारतीय उपमहाद्वीप में आज तक समाप्त नहीं हो सकी है । मानवीय संवेदना जैसे भावनात्मक शब्द भी गहन हाइबरनेशन में जा कर निष्क्रिय हो गये और “ईश्वर-अल्ला तेरो नाम” जैसे खोखले और भ्रामक गीतों को उनके मूल गीतों से पृथक कर देश और दुनिया को बेवकूफ़ बनाने का जो क्रम प्रारम्भ किया गया था वह आज भी यथावत है ।

1946 में मुस्लिम लीग ने तत्कालीन अंतरिम सरकार की कैबिनेट मिशन की योजना से स्वयं को अलग करते हुये  पाकिस्तान के लिये 16 अगस्त का दिन सीधी कार्यवाही दिवसके लिये मुकर्रर कर दिया जिसके बाद देश भर में हिन्दुओं का नरसंहार प्रारम्भ हो गया । हिंसा की पहली लहर कलकत्ता में 16 से 18 अगस्त के बीच शुरू हुई जिसे ग्रेट कैलकटा किलिंग्स के नाम से जाना जाता है । इसमें लगभग चार हजार लोग मारे गये, हजारों घायल हुये और लगभग एक लाख लोग बेघर हुये । इस हिंसा की आग पूर्वी बंगाल के नोआखाली जिले और बिहार तक फैल गयी ।

 3 मार्च 1947 में रावलपिण्डी में धार्मिक दंगे हुये, थोहा खालसा गाँव में सिख स्त्रियों ने मुस्लिम उत्पीड़न से बचने के लिये कुओं में छलाँग लगाकर आत्महत्या कर ली । अगस्त, सितम्बर और अक्टूबर में पञ्जाब के गाँव–गाँव और शहर-शहर में अल्पसंख्यक स्त्रियों पर कहर ढाया जाने लगा । पाकिस्तान में ग़ैरमुस्लिमों के उत्पीड़न के वीभत्स दृश्य आज भी जारी हैं जिससे वहाँ के अल्पसंख्यक अब लगभग समाप्त होने की कगार पर हैं ।

जुलाई 1947 से देश में फिर धार्मिक दंगे शुरू हो गये । पश्चिमी पञ्जाब से हिन्दुओं और सिखों का नरसंहार किया जा रहा था जबकि इसकी प्रतिक्रिया पूर्वी बंगाल में देखी जाने लगी जहाँ मुसलमानों की हत्या शुरू कर दी गयी ।

लाहौर, मुल्तान, बहावलपुर, कराची और मीरपुर ख़ास आदि से भारत की ओर आने वाली रेलगाड़ियों को रास्ते में रोक-रोक कर यात्रियों का सामूहिक नरसंहार और हिन्दू स्त्रियों से यौनदुष्कर्म किये जा रहे थे । 15 अगस्त के दिन जब गांधी नोआखाली में हुये दंगों में मुसलमानों की हत्या से पीड़ित होकर अपनी एकांगी संवेदनाओं का दरिया बहा रहे थे ठीक उसी समय दिल्ली में आज़ादी की ख़ुशियाँ मनायी जा रही थीं और कुछ मोहल्लों में हिन्दू औरतों के ज़िस्म नोचे जा रहे थे । यही स्थिति लाहौर और कराची में भी थी ।  

कराची में 1948 तक दंगे, आगजनी और कत्लेआम होते रहे । जब लाहौर में हिन्दू और सिखों को मारा-काटा जा रहा था, उनकी बहू-बेटियों के साथ यौनदुष्कर्म किये जा रहे थे, उनकी सम्पत्तियाँ लूटी जा रही थीं तो मोहनदास करमचंद गांधी की संवेदना जाग्रत नहीं हो सकी, वहीं जब नोआखाली में हिन्दुओं ने प्रतिक्रियास्वरूप मुसलमानों को मारना-काटना शुरू किया तो मोहनदास करमचंद गांधी की सुकोमल भावनायें आहत हो गयीं, उनकी संवेदना अचानक गहन निद्रा से जाग्रत हो गयी, वे अनशन करके हिंदुओं पर दबाव डालने और मुसलमानों से माफ़ी माँगने के लिये नोआखाली पहुँच गये । स्वेच्छाचारी संवेदना के कहीं जाग्रत होने या कहीं सुषुप्त होने के घुमक्कड़ी आचरण को अब हमारे देश में प्रशंसनीय और अनुकरणीय माना जाने लगा है ।

अक्टूबर 2021 के प्रथम सप्ताह में ही लखीमपुर खीरी में स्वयं को किसान कहने वाले सिखों की भीड़ ने केंद्रीय मंत्री के दौरे को प्रभावित करते हुये उन्हें घेरने का प्रयास किया । केंद्रीय मंत्री ने अपना मार्ग बदल दिया, भीड़ विरोध प्रदर्शन करने नये मार्ग के बीच में भी पहुँच गयी, भगदड़ मची, हिंसा हुयी, नौ लोग मारे गये, केंद्रीय मंत्री के बेटे पर आरोप लगाये गये । सियासत बुज़कशी का एक निर्मम खेल है, अवसर मिलते ही घोड़े दौड़ने लगते हैं ।

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने सभी आठ मृतकों के घर वालों को पैंतालीस-पैंतालीस लाख रुपये और परिवार के किसी एक सदस्य को शासकीय नौकरी देने की घोषणा की तो जवाब में छत्तीसगढ़ और पंजाब के मुख्यमंत्री भी गये और पीड़ित परिवारों में से केवल चार मृतकों के घर वालों को, जिन्हें “किसान”, “अन्नदाता” और “शहीद” नामक संज्ञायें दी गयी थीं, पचास-पचास लाख रुपये क्षतिपूर्ति की घोषणा कर दी, जबकि शेष चार मृतकों को “हार्दिक या आर्थिक संवेदना” का पात्र नहीं मानते हुये न तो उनसे सम्पर्क किया गया और न उन्हें कोई क्षतिपूर्ति राशि दी गयी । यह हार्दिक संवेदना से अधिक आर्थिक संवेदना का प्रदर्शन था जिसमें संवेदना को तौलने का एक आर्थिक पैमाना निर्धारित करते हुये पाँच-पाँच लाख रुपये अधिक देकर यह बताने का प्रयास किया गया कि पञ्जाब और छत्तीसगढ़ की संवेदनायें उत्तर प्रदेश की सम्वेदना से कहीं अधिक संवेदनशील है ।

1947 के विभाजन में पाकिस्तान से लखीमपुर आने वाले सिखों की अधिकता है जिनमें से अधिकांश लोग अपने पुरुषार्थ के बल पर अब सम्पन्न हो गये हैं और दुर्भाग्य से उन्हीं में से कुछ लोग खालिस्तान के समर्थक भी हो गये हैं । यह एक विचित्र त्रासदी है । इस्लामिक आतंक से पीड़ित होकर भारत के पश्चिमी छोर से भगाये गये सिख आज उन्हीं आतंकियों के समर्थन से भारत में अपने लिये एक और नया देश बनाना चाहते हैं ।

अस्सी करोड़ रुअप्ये की मिल्कियत वाले ग़रीब टिकैत का किसान आंदोलन बीच-बीच में उबाल मारता रहता है । जिस देश में किसान आत्महत्यायें करते हैं वे अचानक हत्यायें करने लगे, अपनी बात मनवाने के लिये धरना-प्रदर्शन और अराजक घटनायें करने लगे । “किसान आंदोलन” अब एक राजनैतिक शब्द बन गया है जिसका किसान आंदोलन से कोई लेना-देना नहीं है । अब पूरे देश में कहीं भी कोई भी घटना होगी उसे केवल किसान आंदोलनही कहा जायेगा भले ही उसमें खालिस्तानी हों या अराजक तत्व ।  

सी.एन.बी.सी. आवाज ने लखीमपुर खीरी में हुयी हत्याओं को लेकर हो रही राजनैतिक हलचलों पर आधारित “राजनैतिक पर्यटन” विषय पर एक चर्चा आयोजित की थी । गम्भीर चर्चा के लिये केवल पत्रकारों को ही आमंत्रित किया गया । वार्ता प्रारम्भ हुयी तो एक बार फिर प्रमाणित हुआ कि आमंत्रित पत्रकारों की प्रतिबद्धतायें पत्रकारिता के प्रति बहुत न्यून किंतु राजनीतिक दलों के प्रति बहुत अधिक थीं । गम्भीर चर्चा को आरोप-प्रत्यारोप में बदलते देर नहीं लगी ।

अधिकांश पत्रकारों ने इस बात का समर्थन किया कि मृत्यु किसी भी कारण से क्यों न हुयी हो, सार्वजनिक जीवन वाले राजनीतिज्ञों को वहाँ जाना ही चाहिये । यह अनिवार्यता अब एक परम्परा बना दी गयी है किंतु मैं यह समझ पाने में असमर्थ रहा हूँ कि तब फिर स्थानीय प्रशासनिक अधिकारियों के क्या दायित्व रह जाते हैं ?

जनता ने भाजपा को शासन का अधिकार दिया, राजनीति के मठाधीशों ने इसे स्वीकार नहीं किया, वे लगातार न केवल मोदी का व्यक्तिगत विरोध करते रहे बल्कि निरंतर अपदस्थ करने के कुचक्र में भी व्यस्त रहे इस बीच विपक्ष की मृत्यु हो गयी, किसी की सम्वेदना नहीं जागी । महाराष्ट्र के पालघर में हिन्दू संत की पीट-पीट कर हत्या कर दी जाती है, राजनैतिक दलों की सम्वेदना जाग्रत नहीं होती, कोई राजनैतिक हलचल नहीं होती । भारत में सम्वेदना स्वेच्छाचारी है, वह कभी जागती है, कभी गहरी नींद में सोती रहती है ।

बहुत साल पहले की बात है, कांग्रेस के चुनाव में सुभाष चंद्र बोस जीत गये, नेहरू हार गये किंतु जम्हूरियत के अलम्बरदार बनने वाले नेहरू और गांधी ने उनकी जीत को कभी स्वीकार नहीं किया । राजनीतिक मठाधीश किसी भी सत्य को स्वीकार नहीं करते और उन्हें मानसिक सम्बल देने के लिये “सत्य हिन्दी” के फ़ाउण्डर आशुतोष और उनकी मण्डली के लोग “असत्य की स्थापना और प्रतिष्ठा” में तत्काल प्रभाव से कटिबद्ध हो खड़े हो जाया करते हैं ।

गुरुवार, 14 अक्टूबर 2021

तमसोमा ज्योतिर्गमय

 ब्राह्मण, मूलनिवासी और पूर्वज

 

भारत के ब्राह्मणविरोधी मूलनिवासी उवाच – ब्राह्मण विदेशी हैं, रूस और ईरान से आये हैं किंतु पौलस्त्य रावण जी हमारे पूर्वज हैं, हम दशहरा में उनका वध नहीं होने देंगे

ब्राह्मणों को विदेशी मानने और छत्तीसगढ़ को उनसे मुक्त करने का स्वप्न देखने वाले छत्तीसगढ़ के एक मंत्रीपिता ने कुछ गाँवों के लोगों को दशहरा के अवसर पर रावणवध न करने के लिये तैयार कर लिया है ।

मंत्रीपिता का अनायास ही हृदयपरिवर्तन हो गया है और ब्राह्मणविरोधी होते हुये भी अब वे ब्राह्मणपुत्र रावण की पूजा करने के लिये छत्तीसगढ़ के लोगों को तैयार करने के अभियान में जुट गये हैं । यह वही छत्तीसगढ़ है जहाँ रावण वध करने वाले श्रीराम की ननिहाल हुआ करती थी । यानी श्रीराम की ननिहाल में कुछ लोग उनके शत्रु की पूजा की तैयारियों में जुट गये हैं ।

श्रीकृष्ण को जहाँ अपने जन्म के पूर्व से ही अपनी ननिहाल का तीव्र विरोध झेलना पड़ा वहीं राम को अपने स्वर्गवासी होने के बाद अपनी ननिहाल का विरोध झेलना पड़ रहा है । अद्भुत कुयोग है! 

भारत के आदिवासीबहुल कुछ क्षेत्रों में रावण और महिषासुर को अपना पूर्वज मानने वाले आदिवासी दुर्गापूजा में महिषासुर वध और दशहरा में रावणवध का समय-समय पर विरोध करते रहे हैं । ब्राह्मणों को विदेशी मानने वाले ये ब्राह्मणविरोधी लोग स्वयं को भारत का मूलनिवासी मानते हैं किंतु पता नहीं क्यों ब्राह्मणपुत्र रावण को अपना पूर्वज मानते हैं ।

 “धार्मिक अभिव्यक्ति” और “नासा के वैज्ञानिकों द्वारा स्वीकार किये गये इतिहास को नकारने की अभिव्यक्ति” की स्वतंत्रता का यह एक अद्भुत उदाहरण है । भारत में स्वतंत्रता का जिन्न सिर पर चढ़कर नाचता है । 

इजाज़त और अधिकार

 कुछ समय पूर्व गुजरात के भरूच में मुस्लिमबहुल हो गये एक क्षेत्र से हिन्दुओं को मुसलमानों के हाथों अपने घर बेचकर पलायन करना पड़ा था, और अब उस क्षेत्र के मंदिर को बेचने की तैयारी की जा रही है ।

भारतीय उपमहाद्वीप में हिन्दू-मुस्लिम टकराव थमने के स्थान पर बढ़ता ही जा रहा है । इस्लाम का यह टकराव विदेशों में वहाँ के स्थानीय धर्मावलम्बियों के साथ भी है जिसके कारण पूरी दुनिया में इस्लाम की नकारात्मक नहीं बल्कि एक विघटनात्मक छवि बनती जा रही है । इस्लामिक स्कॉलर्स ने इस्लाम के विस्तार और अन्य धर्मों के उन्मूलन के लिये नयीं-नयी परिभाषायें गढ़ ली हैं और और नये-नये मापदण्ड बना लिये हैं ।  

इस्लामिक स्कॉलर स्थान विशेष में कुछ कार्यों की “अनुमति के लिये कुरान को और कुछ कार्यों के अधिकार के लिये भारत के संविधान एवं धर्मनिरपेक्षता की सीमायें

हिन्दूविरोधी कार्यों के लिये धर्मनिरपेक्षता और भारत के संविधान को स्वीकार करने वाले इस्लामिक स्कॉलर

मंदिर में कुरान और दुर्गा पंडाल में अजान देने और नमाज पढ़ने को अपना संवैधानिक अधिकार मानने वाले इस्लामिक स्कॉलर्स तब तुरंत पाला बदल लेते हैं जब उन्हीं संवैधानिक अधिकारों का प्रयोग करते हुये मस्ज़िद में भी आरती करने की बात की जाती है । मंदिर में नमाज पढ़ने और हिन्दू लड़की से विवाह करने को मुस्लिम स्कॉलर धर्मनिरपेक्षता और गंगाजमुनी तहज़ीब का नायाब उदाहरण मानते हैं किंतु मस्ज़िद में हनुमानचालीसा पढ़ने और मुस्लिम लड़की से हिन्दू लड़के के विवाह के सवाल पर वही स्कॉलर धर्मनिरपेक्षता और गंगाजमुनी तहज़ीब का चोला उतार फेंकते हैं और ऐसे विवाह को इस्लाम के ख़िलाफ़ मानते हैं । शोएब जमुई जैसे कई स्कॉलर कहते हैं कि इन कार्यों के लिये पवित्र कुरान में इजाज़त नहीं है । यानी “कहीं” वे अपने अधिकारों का प्रयोग करते हैं और “कहीं” उन्हें कुरान की इजाज़त नहीं होती जिसका अंतिम परिणाम होता है हिन्दू उन्मूलन ...जो गज़वा-ए-हिंद का लक्ष्य है ।

भारत का संविधान ऐसा क्यों है कि एक व्यक्ति हिन्दू-उन्मूलन के लिये तो उसका दुरुपयोग कर लेता है किंतु वही व्यक्ति हिन्दू-रक्षण का विषय आते ही शरीयत को संविधान से ऊपर मानने लगता है । यदि ऐसा है तब क्यों नहीं अन्य धर्मावलम्बियों को भी अपने-अपने धर्मों को संविधान से ऊपर मानने की स्वतंत्रता होनी चाहिये?

धर्म जब इतना विकृत हो जाय कि उसके नाम पर स्वेच्छाचारिता और अराजकता का ही राज्य हो जाय तब धर्म को अफीम मानकर उसका तिरस्कार ही मानवता को बचा सकता है । मूर्खों और निरंकुश असुरों का धर्म से कोई लेना देना नहीं हुआ करता । 

स्वतंत्र भारत में असुरक्षित हिन्दू

 जिस देश में ...धार्मिक स्वतंत्रता के नाम पर बलपूर्वक कहीं भी मजार या मस्ज़िद बना ली जाती हो (हालिया घटनायें दिल्ली की हैं जहाँ ये कार्य पुलिस संरक्षण में किये गये हैं), …मंदिर में घुसकर नमाज पढ़ने को धार्मिक सौहार्द्य माना जाता हो किंतु मस्ज़िद में रामायण पढ़ने को इस्लाम के विरुद्ध माना जाता हो, …सड़क पर कहीं भी नमाज पढ़ने के कारण आवागमन बाधित हो जाता हो, …कभी भी ...कहीं भी हिन्दुओं के साथ मारकाट होने लगती हो, …हिन्दुओं की लड़कियों से छलपूर्वक निकाह कर लिया जाता हो, …वक्फ़बोर्ड को भारत भर में किसी भी इमारत या ज़मीन को मुसलमानों को सौंप देने के लिये कलेक्टर को आदेश देने के कानूनी अधिकार दे दिये गये हों, …रोहिंग्यायों और बांग्लादेशियों को भारत में बसाकर जनसंख्या संतुलन बिगाड़ने की सरकारी दीवानगी परवान चढ़ती रहती हो, …हिन्दुओं को भारत के किसी भी प्रांत के किसी भी हिस्से को छोड़कर भाग जाने का फ़तवा देने की बढ़ती धार्मिक आज़ादी परवान चढ़ती रहती हो, …दुर्गा-पूजा के पंडाल में जूते सजाने को धर्म और कला की अभिव्यक्ति मान कर चुपचाप रहने की दबंगई दिखायी जाती हो, …मुस्लिम दंगाइयों से पीटे गये पीड़ित हिन्दू लोगों के ही विरुद्ध भारत की पुलिस अपराध दर्ज़ करती हो और फिर उन्हें घर से उठाकर गायब कर देती हो (हालिया घटना कवर्धा दंगे की है), …शरीयत लागू करने और भारत को इस्लामिक मुल्क बनाने का खुलेआम ऐलान किया जाता हो, …मौलानाओं और नेताओं द्वारा हिन्दुओं का नाम-ओ-निशान मिटा देने वाले उत्तेजित भाषणों से दहशत का वातावरण तैयार किया जाता हो फिर भी सरकारें बेबस बनी रहती हों, …स्वतंत्रता के बाद से ही पाठ्यक्रमों में मनगढ़ंत और भारतीय गौरव के विरुद्ध अपमानजनक इतिहास पढ़ाया जाता रहा हो जिसके कारण हिन्दुओं की नयी पीढ़ी में आधुनिकता के नाम पर अपने ही धर्म के विरुद्ध दीवानगी बढ़ती जा रही हो, …जहाँ हिन्दुओं को काफिर और मुशरिक माना जाता हो, …जहाँ का हिन्दू स्वयं को दूसरी श्रेणी का नागरिक अनुभव करने लगा हो, … तो मुझे संदेह होने लगता है कि पंद्रह अगस्त 1947 को मिली स्वतंत्रता क्या केवल मुसलमानों के लिये ही थी या उसमें से कुछ हिस्सा हिन्दुओं के लिये भी था ...और तब मैं यह भी सोचने के लिये विवश हो जाता हूँ कि क्या गांधी और नेहरू के सपनों का भारत अब सचमुच अपना आकार लेने लगा है और आने वाले दिनों में हिन्दुओं के लिये इस धरती पर कोई स्थान नहीं होगा?