बेटे को पिलाकर
दो कटोरे दूध मलाई डालकर
भरकर तीसरा कटोरा
बढ़ाया ही था मैंने
नन्हीं मुनिया की ओर
कि तभी देख लिया मुनिया की दादी ने,
लगीं झिड़कने
पहले मुझे फिर मुनिया को –
“लौकी सी बढ़ती हैं छोरियाँ
पिये बिना ही दूध...
गया नहीं जायेंगी बेटियाँ
करने किसी का श्राद्ध
मरने के बाद” ।
मुनिया की ओर देख वक्रदृष्टि
डाँट दिया आज फिर दादी ने –
“हजार बार कहा कि
भाई खाया-पिया करे कुछ
तो मत देखा कर टकटकी लगाकर
लग जाती है नजर...
चल भाग यहाँ से”।
भयाविष्ट मुनिया
मंथर गति से जाने लगी
देखती हुयी
कभी मुझे, कभी दादी को
और सुलगाती हुयी मेरे मातृत्व को ।
दादी के आदेश का
करे कोई प्रतिवाद
इतना साहस किसमें !
पर...
देखकर अवसर
चोरी की मैंने
छल किया मैंने
पाप लगे तो लगे
मुनिया को दे दिया दूध
वह भी मलाई वाला
और कर लिया संकल्प
अब आज से
मुनिया नहीं रहेगी वंचित
किसी भी चीज के लिये
और यह छल... यह चोरी...
मैं बारबार करूँगी
क्योंकि यही है
सच्चा मातृत्व
सच्ची प्रगतिशीलता
और सच्चा जनवादी साम्यवाद ।
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