वह लोकतंत्र निगलती रही
विष्टा में
अलोकतंत्र हगती रही
जिसकी मारक दुर्गंध
से
अब नहीं लिख पाता
कोई धनपत राय
पंचपरमेश्वर जैसी
कहाँनियाँ ।
डाकुओं की अंतरात्मा
में
अब नहीं कुलबुलाता
कोई डाकू खड्ग सिंह
।
महानता और कुलीनता
के छद्मबोध ने
बना दिया है
तुम्हें
स्वेच्छाचारी, निरंकुश और संवेदनशून्य।
पंचपरमेश्वर की पीठ
पर
अब नहीं मिलते
अलगू चौधरी और
जुम्मन शेख,
मिलते हैं
पिंडारियों के समूह
रचे-बसे
महानता और
अतिविशिष्टता के अहंकार में,
चिपके हुये
कोलेजियम के गोंद
में ।
मैं विद्रोह करना
चाहता हूँ
इस निरंकुश कोलेजियम के विरुद्ध
जो बड़ी निर्लज्जता
से निगलता जा रहा है
लोकतंत्र को ।
मीलॉर्ड! मैं तैयार
हूँ
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.