बिना रिश्ते......
पथिक तुम कौन ?
ज़ो हो उठते बेचैन
तनिक ज़ो होती मैं उदास
कहो ........
कहो ........
तुम्हें मुझसे क्या आस ?
जब-जब तड़पती मैं
जब-जब तड़पती मैं
तुम्हारे होठ पलकों के
बंद करते द्वार
उमड़ पड़ते
और तब तेरे नयन.
और तब तेरे नयन.
भला क्यों इस तरह उमड़े
बिना रिश्ते
क्यों ......
पथिक तुम कौन हो मेरे ?
यह तो मेरा .....सिर्फ़ मेरा है .....
कहीं कुछ पिघलता सा देखती हूँ मैं
तुम्हारे वक्ष में
भोले पथिक !
किन्तु इतना जान लो
यहाँ
सख्त पहरे हैं पिघलने पर
सख्त पहरे हैं पिघलने पर
जाओ .......कहीं दूर चले जाओ
जहाँ न पहुंचे आँच .....ये कमबख्त .
दफ़न क्यों हो रहे तुम भी
....यूँ बेवजह ............
....यूँ बेवजह ............
दिया अधिकार किसने ये ?
यह तो मेरा ..............सिर्फ मेरा है
जीते जी दफ़न होना
आग में सती होना
रीत ऐसी ही चली है
और तुम भी चुपचाप
यह सब देखते रहना.
जब कभी दिल में तुम्हारे
मौसम हो पतझड़ का
सूखे पत्तों को लेकर हाथ
मुझे चुपके से करना याद
मैं उतरूंगी नयन तेरे
पलकें बंद करके फिर
बसूँगी ख़्वाब में तेरे.
रीत ऐसी ही चली है
और तुम भी चुपचाप
यह सब देखते रहना.
जब कभी दिल में तुम्हारे
मौसम हो पतझड़ का
सूखे पत्तों को लेकर हाथ
मुझे चुपके से करना याद
मैं उतरूंगी नयन तेरे
पलकें बंद करके फिर
बसूँगी ख़्वाब में तेरे.
मौसमी पंछी
बंध गयी खूंटे से मैं एक बार
मौसमी पंछी यहाँ आते बहुत हैं
पर वक़्त पर अपने .......
बस
वर्ष में एक बार .
कौशलेंद्र जी! आप अवाक कर देते हैं.. शब्दहीन अनुभव करने लगता हूँ मैं!! मुग्ध हूम आपकी रचनाओं पर!!
जवाब देंहटाएंयहाँ
जवाब देंहटाएंसख्त पहरे हैं पिघलने पर
जाओ .......कहीं दूर चले जाओ.....
पूर्व टिपण्णी को दोहरा रही हूँ ......
सुन्दर रचनाएँ
जवाब देंहटाएं