मुझे गर्व है अपने देश पर
जो
सारे जहां से अच्छा है.
इसी
"सारे जहां से अच्छे हिन्दोस्तां" के
किसी भी शासकीय कार्यालय में
जब भी जाता हूँ
तो थोड़ी और लम्बी हो जाती है
मेरे साथ होने वाले अन्यायों की सूची
जो
स्थायी भाव से चिपकी हुयी है
मेरे भाग्य के साथ.
यह सूची
मेरे जीवन का अनिवार्य अनुभव है
जिसे लेकर
बड़े,
फिर उनसे बड़े,
फिर उनसे भी बड़े,
फिर .......
............
फिर सबसे बड़े अधिकारी से मिलता हूँ मैं
तो हर बार
दंग रह जाता हूँ
यह सोच कर
कि महान लोकतंत्र के इतने विशाल प्रशासन को
इतने मज़े से
कैसे चला पा रहे हैं .....ये मुर्दे ?
मैं तो
सारी संवेदनाओं के साथ जीवित होकर भी
अपना छोटा सा घर नहीं चला पा रहा हूँ ढंग से.
खिसिया कर
मैंने आईने गढ़ने शुरू कर दिए हैं
जिनमें
अपने विकृत चेहरे देख-देख कर
मुस्कुराते हुए बाज़ नहीं आते ये मुर्दे.
चीखते आइनों से
भर गया है मेरा घर.
उधर .....
लोकतंत्र को और भी मज़े से चलाने
रोज बढ़ती जा रही है
नए-नए मुर्दों की भीड़
और अब तो
आइनों के औचित्य पर भी लग गया है प्रश्न चिह्न .
सोचता हूँ
उस कारीगर ने भी तो की है नाइंसाफी
मेरे साथ.
आखिर .....
क्यों नहीं बनाया उसने कोई चौखटा
जिसमें समा पाता मैं
अपने पूर्ण अस्तित्व के साथ
और सहेज पाता वे मूल्य
जिनसे संस्कारित हुआ हूँ मैं....
...जिन्हें रट-रट कर बटोरी हैं डिग्रियां
और .......जो हो जाती हैं मूल्यहीन
इस धर्म प्राण देश में
आते ही
यथार्थ के धरातल पर.
प्रशासन पर गहरी चोट करती अच्छी रचना ..संवेदनशील अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंएक मुर्दा तंत्र पर, जो लाल फीतों के कफन में लिपटा देश को मुर्दा घरों की ओर लिये जा रहा है, एक करारा प्रहार!
जवाब देंहटाएं"हैरत से दंग रह जाता हूँ" कुछ अजीब सा लगा..
कार्यपालिका में लगे घुन को सही पकड़ा है आपने.. व्यवस्था की अव्यवस्था के कुव्यवस्था में बदलते स्वरूप पर आपके कटाक्ष एक आम आदमी की व्यथा का प्रतिनिधित्व करते हैं!!
जवाब देंहटाएंसलिल भैया ! पुनरुक्तिदोष को सुधार दिया गया है. संकेत के लिए आभार !!!
जवाब देंहटाएंबहुत ज़बरदस्त लिखा कौशलेन्द्र जी ,
जवाब देंहटाएंअब इन मुर्दों के अंतिम संस्कार का भी
कुछ सोंचिये ! सडांध बहुत हो गयी है !
बद से बदतर होते प्रशासन ही नहीं अपितु गंगा को भी प्रदूषित होते देख याद आता है कि प्राचीन ज्ञानी हिन्दुओं ने काल को सतयुग से कलियुग की ओर जाते बताया, और उस दौरान मानव कार्य प्रणाली की कार्य-क्षमता को १००% से ०% होते, अनंत धूप-छाँव वाले चक्र में ब्रह्मा के लगभग साढ़े चार अरब वर्ष वाले एक दिन में १०८० बार उतरते...और 'माया' को भेदने में (कलियुग में सबसे अधिक प्रदूषित) ज्ञानेन्द्रियों के कारण, भगवान के प्रतिरूप होते हुए भी, आम आदमी (सतयुग के अतिरिक्त किसी अन्य युग में) अक्षम बताया...जब तक अर्जुन समान 'कृष्ण' उसे 'दिव्य-चक्षु' न प्रदान कर दें...
जवाब देंहटाएंदंग रह जाता हूँ
जवाब देंहटाएंयह सोच कर
कि महान लोकतंत्र के इतने विशाल प्रशासन को
इतने मज़े से
कैसे चला पा रहे हैं .....ये मुर्दे?
और सहेज पाता वे मूल्य
जिनसे संस्कारित हुआ हूँ मैं....
...जिन्हें रट-रट कर बटोरी हैं डिग्रियां
और .......जो हो जाती हैं मूल्यहीन
इस धर्म प्राण देश में
आते ही
यथार्थ के धरातल पर.
यथार्थ बड़ा ही डरावना और कटु है. मैं भी दंग हूँ ...कैसे चल रही है ये दुनिया !!
बहुत ज़बरदस्त,संवेदनशील अभिव्यक्ति|
जवाब देंहटाएंयथार्थ अक्सर ही कठोर और चोट पहुँचाने वाला होता है......यूँ भी बात तो इतनी बिगड़ चुकी है कि सम्वेदनाशून्य और मोटी खालवालों का ही जमाना है। हम जैसे संवेदनशील तो नून-आटे के भाव में ही चकरघिन्नी खा जाते हैं...........बहरहाल उस कारीगर के इंसाफ पर शक ना करें, आपके हाथों में इतनी सुन्दर् कविता लिखनेवाली कलम भी तो उसी ने थमाई है........बधाई स्वीकारें...!
जवाब देंहटाएंचर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी प्रस्तुति मंगलवार 01-03 - 2011
जवाब देंहटाएंको ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..
http://charchamanch.uchcharan.com/
सभी लोगों का बहुत-बहुत धन्यवाद ! सुर में सुर मिल तो रहे हैं ......क्या मैं समझूं कि हम क्रान्ति की मानसिकता के लिए तैयार हो रहे हैं ?
जवाब देंहटाएंડાક્ટર સાહિબા ! આપ પ્રોફેસર હેં ...આપકી બાત માનની હી પડેગી .....સચ .....જિસે હમ ઉસકી નાઈન્સાફી સ્મજ્હ્તે હેં ...વહ ભી હમારે હિસ્સે કા ઇન્સાફ હી હૈ. સકારાત્મક ટિપ્પનિયોં સે લેખન કા ઉત્સાહ બના રહતા હૈ . આતી રહિયેગા ઔર યૂં હી સ્નેહ બનાયે રખિયેગા .
"कौन किस को चलाता है
जवाब देंहटाएंयह तो तो वक्त का पहिया है
जो अपने आप चला जाता है"
जो इसके ऊपर हैं
वह करते हैं सवारी
जो नीचे आ जाये
वो रौंद दिया जाता है"
प्रणाम बाबा
जवाब देंहटाएंह्म्म्म..आपने हम सब के साथ कभी ना कभी घटने वाली सिचुअशन का विवरण कर दिया ...साथ ही साथ हम सब के दिल में जो भी सोच और एहसास उमड़ते घुमड़ते वो भी ....वो भाव उकेरें जो रह रह राती हम सब को कचोटते हैं..सच में कभी कभी रात रात भर जाग के कमाई डिग्रियां फजूल नजर आती हैं....
बहुत ही गहरा असर छोड़ने वाली बेहद प्रभावशाली रचना
मुझे ढेरों बधाई ...मेरे बाबा की सशक्त रचना के लिए
उधर .....
जवाब देंहटाएंलोकतंत्र को और भी मज़े से चलाने
रोज बढ़ती जा रही है
नए-नए मुर्दों की भीड़
और अब तो
आइनों के औचित्य पर भी लग गया है प्रश्न चिह्न .....
सच्चाई को वयां करती ....
अत्यंत मार्मिक रचना के लिए आपको बधाई।
मोहिंदर जी ! आपका कथन सत्य है पर सब कुछ भाग्याधीन भी तो छोड़ने का मन नहीं होता.
जवाब देंहटाएंसुश्री शरद जी ! आपका आना ही हमारे लिए सम्मानजनक है ....उत्साहवर्धन के लिए धन्यवाद. चर्चामंच का आभार .....आप तक हमें पहुंचाने के लिए.
गीत जी ! अफसोस ...!!! कि आज हम तकनीकी कारणों से चर्चा मंच तक नहीं पहुंच पा रहे हैं.
हाँ वेणु रानी ! बधाई आपको ......और आशीर्वाद भी ....थीसिस पर अधिक ध्यान देना.
बहुत गुस्सा छलक रहा है रचना के माध्यम से ... बहुत तेज़ तर्रार शब्द दिए हैं आपने अपनी रचना को .. सार्थक रचना ..
जवाब देंहटाएं