पता नहीं कब
आँगन की किलकारी
देखते-देखते बन गयी एक परी
सपनों के पंख लगाकर
उड़ने को तैयार
एक ऐसे अनजाने देश में
जहाँ एक अपरिचित
लालायित है अपनी सम्पूर्ण कोमल भावनाओं के साथ
उन्मुक्त हृदय से
स्वागत को तैयार.
ठीक है .......
विदा कर दूँगा मैं
अपने अंतस के अंश को
भर लूंगा कंठ में सारे आँसू
सौंप दूँगा अपना गहना
जिसे इतने वर्षों तक गढ़ा है मैंने ...किन्तु
ज़ो मेरा नहीं है.
जाओ बेटी !
तुम्हारे स्वागत को आतुर है कोई
जाकर बिखेर देना अपनी सारी ख़ुश्बू
और जीत लेना सबको
अपने संस्कार के गहनों से.
मेरी आँखों से झरते आशीर्वाद का प्रवाह
साथ-साथ जाएगा तुम्हारे
और ........
ठहर जाएगा देहरी के बाहर
तुम्हारे बाग़ के माली की तरह.
अपने अंतस के अंश को
जवाब देंहटाएंभर लूंगा कंठ में सारे आँसू
सौंप दूँगा अपना गहना
जिसे इतने वर्षों तक गढ़ा है मैंने ...किन्तु
ज़ो मेरा नहीं है.
जाओ बेटी !
पिता के लिए बेटी को विदा करना सबसे कठिन होता है ...
कभी सोचा करती थी ऐसे रिवाज क्यों बने हैं कि बेटी को अपने माता -पिता भाई बहन सबको छोड़ जाना पड़ता है ...
क्या इन्हें बदला नहीं जा सकता ....?
तुम्हारे स्वागत को आतुर है कोई
जवाब देंहटाएंजाकर बिखेर देना अपनी सारी ख़ुशबू
और जीत लेना सबको
अपने संस्कार के गहनों से
बेटी को हम आशीर्वाद ही तो दे सकते हैं।
सुंदर रचना।
@ हरकीरत जी
जवाब देंहटाएं'घर जमाई' भी होते थे,,,शिवजी जैसे, जो अपने काशी स्थित निवास स्थान छोड़ हिमालय-पुत्री पार्वती के साथ कैलाश निवास पर चले गए,,, और अमर हो गए!
भावपूर्ण सुन्दर रचना !
जवाब देंहटाएंक्या कहूं मैं भी एक बेटी का बाप हूँ !