इससे पहले कि हम हिन्दू
शब्द को भारत की जड़ों में से खोदकर बाहर निकालें हमें आज के वैज्ञानिक युग का
सम्मान करते हुये बाबर के पूर्वजों, चिलियन नेटिव हर्ब “प्यूमस
बोल्डस” और नोवल कोरोना वायरस को भी वैदिक साहित्य में से खोजकर
बाहर निकालना होगा ।
पहले मैं प्यूमस बोल्डस की बात करूँगा । यह लगभग 1989 के आसपास
की बात है जब सत्यान्वेषी एक वैज्ञानिक द्वारा मुझसे कहा गया कि मुम्बई की एक दवा
कम्पनी प्यूमस बोल्डस नाम की जड़ी-बूटी से एक औषधि बनाती है किंतु कुछ व्यापारिक
कारणों से उसे भारतीय जड़ी-बूटी सिद्ध करना आवश्यक है और इसके लिए अथर्ववेद में से
किसी ऐसी जड़ी-बूटी को निकालकर सामने लाना है जो अभी तक अनआइडेण्टीफ़ाइड प्लांट मानी
जाती है ।
खोजबीन करने पर पता चला
कि प्यूमस बोल्डस नामक जड़ी-बूटी फ़ेमिली मोनीमिएसी की एक
सदस्य है और इस फ़ेमिली के तीन सौ सदस्यों में से एक भी सदस्य भारत, पाकिस्तान और
बांग्लादेश में नहीं पाया जाता । यह मूलतः चिली में उगने वाली जड़ी-बूटी है जिसे
आजकल फ़्रांस में भी उगाया जाने लगा है । दवा कम्पनी का साइंटिस्ट प्यूमस बोल्डस को
अथर्ववेद के किसी अनआइडेण्टीफ़ाइड हर्ब की पहचान देने के लिए कितना भी पैसा देने के
लिए तैयार था । इस पापाचार के लिए मैं तो तैयार नहीं हुआ पर बनारस के एक विद्वान
तुरंत तैयार हो गये ।
यह विज्ञान और कूटरचित प्रमाणों का युग है जिसमें भारतीय तर्कशास्त्र का कहीं कोई स्थान नहीं है । यह मूर्खतापूर्ण हठ और अहंकार का युग है जहाँ सत्य का कहीं कोई स्थान नहीं है । यह वह युग है जहाँ बलिया के सिताबदियारा गाँव में जन्म लेने वाले बच्चे के भारतीय होने के प्रमाण ऑक्सफ़ोर्ड यूनीवर्सिटी में तलाशे जाते हैं । यह वह युग है जिसमें कम्पाइलेशन को रिसर्च मान कर ज्ञान के अहंकार में डूब जाया जाता है । यह वह युग है जिसमें सूर्य से आने वाले फ़ोटॉन्स को जब तक फ़िज़िक्स के तयशुदा साँचों में ढालकर प्रमाणित न कर लिया जाय तब तक धरती पर पड़ने वाले उसके किसी भी स्वाभाविक प्रभाव को स्वीकार कर लेना अवैज्ञानिकता और पिछड़ापन का प्रमाण माना जाता है ।
विदेशी लुटेरे बाबर ने
भारत पर आक्रमण किया था इसका कोई भी प्रत्यक्षदर्शी विश्व के किसी भी कोने में
उपस्थित नहीं है । बाबर के आक्रमण और उसकी बर्बरता की प्रामाणिकता के लिए वैदिक
साहित्य को खँगालना आज की वैज्ञानिक परम्परा का एक अपरिहार्य हिस्सा है । इसी तरह
भारत में आजकल फैल रहे नोवल कोरोना वायरस को भी वैदिक साहित्य में खोजना होगा ।
इन तीनों का ही भारत से
किसी न किसी रूप में सम्बंध रहा है, किंतु प्रचलित मान्यता के अनुसार सम्बंधों की
प्रामाणिकता के लिए वैदिक साहित्य में भी इनका उल्लेख होना अनिवार्य है ।
वैदिक साहित्य में मुझे राक्षसों का तो उल्लेख मिला पर लुटेरे बाबर का कहीं नाम दिखायी नहीं दिया इसलिए सबूतों और किसी जीवित प्रत्यक्षदर्शी के अभाव में यह दावा ख़ारिज़ किया जाना चाहिए कि बाबर ने कभी भारत पर आक्रमण किया था और लूटपाट एवं हत्यायें की थीं । अथर्ववेद में मुझे अद्भुत जड़ी-बूटियों का उल्लेख तो मिला पर प्यूमस बोल्डस का कहीं कोई नाम दिखायी नहीं दिया इसलिए यह दावा भी ख़ारिज़ किया जाना चाहिए कि मुम्बई की किसी दवा कम्पनी ने प्यूमस बोल्डस का उपयोग करके साल 1989 में कोई दवा बनायी थी । वैदिक साहित्य में मुझे रोगोत्पादक अदृश्य शक्तियों का उल्लेख तो मिला जो रक्तमांसप्रिय होती हैं और जो रूप परिवर्तन में दक्ष होती हैं पर मुझे नोवल कोरोना वायरस-19 का कहीं कोई उल्लेख नहीं मिला । अतः यह दावा भी ख़ारिज़ किया जाना चाहिये कि वुहान से आये किसी वायरस ने भारत में इस समय तबाही मचा रखी है ।
अब बात आती है भारत में
हिन्दुओं के प्रामाणिक अस्तित्व की । वैदिक साहित्य में हिन्दू शब्द का कहीं कोई
उल्लेख न मिलने से स्पष्ट है कि भारत में हिंदुओं का कोई अस्तित्व है ही नहीं । जो
है ही नहीं उसे सिद्ध करने की क्या आवश्यकता, और सूर्य को अपने होने की प्रामाणिकता सिद्ध करने
की क्या आवश्यकता!
वास्तव में भारत में
ज्ञानपिपासु आर्यों का सदैव अस्तित्व रहा है जो अपनी ज्ञानपिपासा के लिए वसुधैव
कुटुम्बकम् मानते हुये विश्व के सुदूर देशों में भ्रमण करते रहे हैं । यह भारत है जो
ब्राह्मण होने और आर्य होने के लिए विश्व के हर व्यक्ति का आह्वान करता रहा है । “कृण्वन्तो विश्वमार्यम्”
~ ऋ. ९/६३/५
तत्कालीन विश्व में ब्राह्मण
और आर्य बनने के लिए तप करना गौरवपूर्ण कार्य हुआ करता था । पाणिनि सूत्र की उद्घोषणा
-“आर्यो ब्राह्मण कुमारयोः” यह सूचना देती है कि ब्राह्मण बनने का प्रयास तो सभी देशों
में किया जाता है किंतु श्रेष्ठ ब्राह्मण तो आर्य ही होते हैं ।
कौन है आर्य?
जो आकृति, प्रकृति, सभ्यता, शिष्टता, धर्म,
कर्म, विज्ञान, आचार,
विचार तथा स्वभाव में सर्वश्रेष्ठ हो उसे ही 'आर्य'
कहते हैं । “कर्त्तव्यमाचरन काम कर्त्तव्यमाचरन । तिष्ठति प्रकृताचारे
यः स आर्य स्मृतः” ।। -(वशिष्ठ स्मृति) । ये वे पैरामीटर्स हैं जिन्हें प्राप्त करते
हुये आर्य बनना पड़ता है । ये वे शर्तें हैं जिन्हें पूर्ण करने के पश्चात ही आर्य की
उपाधि प्राप्त हो पाती है । बर्बर, घुसपैठिये और आक्रमणकारी को
आर्य नहीं कहते । भारत पर अनार्यों ने सदा ही आक्रमण किया है पर आर्यों का ऐसा कहीं
कोई इतिहास नहीं मिलता । महाकोषकार कहते हैं – “महाकुलीनार्य सभ्य सज्जन साधवः”। -(अध्याय२
श्लोक६ भाग३)
मेरा सांसारिक परिचय क्या
है?
निश्चित ही मैं हिन्दू नहीं हूँ, मैं आर्यावर्त का मूलनिवासी सनातनधर्मी ब्राह्मण आर्य कुलोत्पन्न कौशल किशोर मिश्र हूँ । मेरे वास्तविक परिचय से अनजान किसी अनार्य व्यक्ति ने मुझे श्वेतवस्त्रधारी या खल्वाट मानुष कहकर पुकारा और अपनी डायरी में भी लिख लिया, आप इसे ही मेरा वास्तविक परिचय मान बैठे? मेरा सही और पूरा परिचय जितना मैं जानता हूँ उतना कोई और कैसे जान सकता है?
दीर्घकाल से मेरा प्रयास रहा
है कि मैं यथासम्भव अपने लेखों और परिचय में हिंदू शब्द का प्रयोग न करूँ ।
हमें किसी को कोई प्रमाण देने की आवश्यकता नहीं है, किंतु अपना सही परिचय देने की आवश्यकता अवश्य है, और सही परिचय के लिए आवश्यक है कि ईरानियों की तरह पहले हम स्वयं को पहचानें और स्वीकार करें कि हम आर्यावर्त निवासी सनातनधर्मी आर्य हैं ।
मेरी तरह अग्निपूजक ईरानियों को भी स्वयं के आर्य होने का गर्व है । ईरान के बादशाह सदा अपने नाम के साथ ‘आर्यमेहर' की उपाधि लगाते रहे हैं । फ़ारसी में 'मेहर' का अर्थ है सूर्य । ईरान के लोग अपने को “सूर्यवंशी क्षत्रिय आर्य” मानते है और विद्यालयीन पाठ्यक्रमों में अपने आर्य होने का इतिहास बड़े गर्व से बच्चों को पढ़ाते हैं – “कुछ हजार साल पहले आर्य लोग हिमालय से उतर कर आये और यहाँ का जलवायु अनुकूल जानकर यहीं बस गए” (चंद हज़ार साल पेश जमाना माजीरा बजुर्गी अज़ निजा़द आर्या अज़ कोहहाय कफ् काज़ गुज़िश्त: बर सर ज़मीने की इमरोज़ मस्कने मास्त कदम निहाद्धन्द। ब चूं.आबो हवाय ई सर ज़मीरा मुआफ़िक तब' अ खुद याफ्तन्द दरीं जा मस्कने गुज़ीदत्र ब आंरा बनाम खेश ईरान ख़यादन्द - (“जुग़राफ़िया पंज क़ितअ बनाम तदरीस रहसल पंजुम इब्तदाई” -सफ़ा ७८; कालम १, मतब अ दरसनहि तिहरान, सन् हिजरी १३०९, सीन अव्वल व चहारम अज़ तर्फ़ विज़ारत मुआरिफ् व शरशुद)
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