रविवार, 19 जुलाई 2020

नेपाल को अपना स्वरूप पहचानना ही होगा

भारत-नेपाल-चीन सीमा विवाद ..2
 ओली की खोली में फुँफकार रहे निर्लज्ज ड्रेगन को हम सब देख रहे हैं । यह नेपाल और भारत दोनों के लिए अशुभ है । के.पी. शर्मा ओली की कम्युनिस्ट पार्टी एशिया की तीसरी सबसे बड़ी कम्युनिस्ट पार्टी मानी जाती है । नेपाल में चीन के बढ़ते प्रभुत्व का यह एक स्पष्ट प्रमाण है ।
भारत और नेपाल के वर्तमान राजनीतिक टकराव पर माइनिंग इंजीनियरिंग के नेपाली छात्र प्राञ्जल गुरुंग की प्रतिक्रिया आशा का एक दीप जलाती है - दुनिया भर के सत्ताधीशों का एक ही धर्म होता है, सत्ता में हैं तो उसे बनाए रखने के लिए अपनी प्रजा से छल करते रहना और यदि सत्ता से बाहर हैं तो सत्ता को हथियाने के लिए हर तरह के निकृष्ट षड्यंत्र करते रहना। यहाँ यह बताना आवश्यक है कि जे.एन.यू. की तरह नेपाल का भी शिक्षित वर्ग चीन से बहुत प्रभावित होता रहा है । प्राञ्जल गुरुंग इसके अपवाद हैं ।
भारत-नेपाल सीमा विवाद की सुलगती चीनी चिंगारी को हवा देने कूद पड़ीं मनीषा कोइराला उन भारतीयों से बेहतर हैं जो हर मामले में अपने ही देश के विरुद्ध खड़े नज़र आते हैं । भारत को अपना कर्मक्षेत्र बना चुकीं मनीषा कोइराला आज भारत के विरुद्ध खड़ी हैं । मनीषा! हम आपकी इस ग़ुस्ताख़ी को माफ़ करते हैं ...ध्यान रखना कि हमने आपको केवल बेशुमार दौलत ही नहीं दी बल्कि यश भी दिया है ।
क्या नेपाल विषाक्त हो रहा है?
यह समझ से परे है कि के.पी. ओली ने नेपाल और भारत के हजारों साल पुराने सम्बंधों को पलीता लगाना क्यों शुरू कर दिया? चीन (और चीन समर्थक भारतीय कामरेड्स) से प्रेरित नेपाली कम्युनिष्ट विचारधारा नेपालियों का बौद्धिक गरलीकरण करने में लगी है । राम के प्रति आस्था और शिव के प्रति भक्तिभाव रखने वाले नेपाली हतप्रभ हैं । धारचूला की सड़कों पर खड़ी नयी-पुरानी गाड़ियों पर “धारचूला-कालापानी-कुती” के साइन बोर्ड पढ़कर अब स्थानीय लोगों के मन में एक हलचल होने लगी है – “तिनकर और छांग्रू के बाद क्या अब नाबी, कुती, कालापानी और लिपुलेख भी भारत के हाथ से निकल जायेंगे?”
कैलाश मानसरोवर मार्ग पर स्थित पांग्ला गाँव के लोगों में नेपाल सरकार के प्रति गुस्सा है । वे मानते हैं कि नेपाली प्रधानमंत्री ओली चीन के बहकावे में हैं ।
सनातनी भारतीयों के महत्वपूर्ण अध्यात्मिक तीर्थ कैलाश मानसरोवर आने-जाने के पारम्परिक मार्ग नाबी और कुती पर अपने दावे के बाद लिपुलेख दर्रा, लिम्पियाधुरा और कालपानी पर भी नेपाल ने अपना दावा कर दिया है । यह विवाद नया नहीं है, नेपाल ने पहली बार 1998 में ही भारत के इन क्षेत्रों पर अपना दावा कर दिया था । हमारे पवित्र एवं अध्यात्मिकऊर्जा के शक्तिशाली केंद्र माने जाने वाले कैलाश मानसरोवर को तो चीन पहले ही हड़प चुका है और अब हमें अपने ही तीर्थस्थल तक जाने के लिए चीन से वीसा लेना पड़ता है जिससे चीन को प्रतिवर्ष करोड़ों की आय होती है ।
भारत और नेपाल के बीच की राजनीतिक सीमाओं का इन दोनों ही देशों की आम जनता के लिए कभी कोई अर्थ नहीं रहा, उस समय भी नहीं जब वहाँ के राजवंश की सामूहिक हत्या कर दी गयी और तब भी नहीं जब नेपाल में राजशाही को समाप्त कर लोकतांत्रिक शासन की स्थापना कर दी गयी । मौसम कैसा भी रहा हो, दोनों देशों में सुख और दुःख की भावनात्मक साझेदारी में कभी कोई बाधा नहीं आई । करोड़ों भारतीयों की तरह प्राञ्जल गुरुंग को भी इस बात का दुःख है कि कम्युनिज़्म के दबाव में विश्व के एकमात्र हिंदूराष्ट्र नेपाल की राजनीतिक हत्या कर दी गई है ।
भारत और नेपाल की कला, संस्कृति, लोकपरम्परा, धर्म और अध्यात्म की उभयधारा ने इन दोनों देशों के नागरिकों को कभी यह अहसास नहीं होने दिया कि वे दो अलग-अलग देशों के नागरिक हैं । चीन इस एकात्मता को समाप्त करना चाहता है जिससे तिब्बत की तरह नेपाल को भी चीन का एक हिस्सा बनाने का चीनी षड्यंत्र सफल हो सके ।
नेपाल में सीमावर्ती गाँवों के सरकारी स्कूलों में बच्चों को चीनी भाषा पढ़ाये जाने का चीनी षड्यंत्र सफल हो चुका है । इन शिक्षकों का वेतन चीनी संस्थाओं द्वारा भुगतान किया जाता है । भाषा के माध्यम से सांस्कृतिक और वैचारिक उन्मूलन का चीनी षड्यंत्र नेपाल में अपनी जड़ें मज़बूत करता जा रहा है । सावधान! यह षड्यंत्र दोनों देशों के अस्तित्व के लिए अशुभ है ।   
मैंने गुरुंग से पूछा – “नेपाल के प्राचीन गौरव और सांस्कृतिक अस्तित्व पर चीनी संकट छाया हुआ है । इस परिप्रेक्ष्य में आप नेपाल का भविष्य किस तरह देखते हैं?”
उत्तर मिला - “नेपाल का अस्तित्व भारत के साथ ही सम्भव है चीन के साथ कभी नहीं और यह बात नेपाल के नेताओं को समझनी होगी” ।
दो साल पहले धारचूला प्रवास के समय मुझे बताया गया था कि उत्तराखण्ड के वीरान हो चुके गाँवों में नेपाली मज़दूरों ने न केवल बसाहट शुरू कर दी है बल्कि अब तो वे लोग खाली पड़े खेतों में खेती भी करने लगे हैं । भारत के स्थानीय निवासी उनका विरोध सिर्फ़ इसलिए नहीं करते क्योंकि वे नेपाल को एक पृथक राष्ट्र के रूप में नहीं देखते ।   

2 टिप्‍पणियां:

टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.