बहुत समय पहले की बात है जब एक राज्य के चिकित्सा-डायरेक्टर को औषधि क्रय में भ्रष्टाचार के आरोप में जेल में डाल दिया गया। गंदी मछली समुदाय की यह एक छोटी सी गंदी मछली थी। भारत भर में ऐसी मछलियाँ बहुतायत से पायी जाती हैं। एक बुलबुला फूट गया, गोया किसी ज्वालामुखी के मुँह में एक कंकड़ फेक दिया गया हो। आम जनता इस भ्रम में थी कि भारत एक बड़े सुधार की दिशा में चल पड़ा है, पर ऐसा हुआ नहीं, 2200 डिग्री फ़ारेनहाइट में तपते ज्वालामुखी के ट्यूब में वह कंकड़ भी उसी लावा का एक हिस्सा बन गया। पानी में बुलबुलों का बनना और फूटना ही भारत की प्रजा की नियति है।
देश भर
के रोगियों का विश्वास है कि राजकीय चिकित्सालय की अपेक्षा सरकारी डॉक्टर के घर
में परामर्श लेना कहीं अधिक गुणवत्तापूर्ण होता है। यह बात लगभग 90 प्रतिशत सही भी
है जिसमें चिकित्सकों का योगदान तीस प्रतिशत और सरकारी व्यवस्था का योगदान सत्तर
प्रतिशत होता है। आप किसी भी राजकीय चिकित्सालय के गेट पर खड़े हो जाइए और औचक ही बीस
लोगों के प्रेसक्रिप्शन्स का अवलोकन कर लीजिये। आप पायेंगे कि विभिन्न प्रकार के
रोगों के लिए सामान्यतः एक ही जैसी तीन दवाइयाँ उनमें लिखी होती हैं। सरकारी
डॉक्टर्स पर प्रतिबंध होता है कि वे 1- बाहर से ख़रीदने के लिए दवाइयाँ नहीं लिख
सकते (राजकीय प्रजावत्सलता और करुणा का चरम परचम) और 2- रोगियों को चिकित्सालय में
उपलब्ध दवाइयाँ ही दी जानी चाहिये (गोया दवा नहीं पंजीरी हो, चिकित्सा
और फ़ार्मेकोलॉजी के इस सिद्धांत को ठेंगा दिखाते हुये कि दवा एक विशिष्ट उत्पाद है
जो हर किसी के लिए कॉमन नहीं होती इसलिए हर रोगी के लिए दवा का स्पेसिफ़िक औचित्य
चिकित्सक को निर्धारित करना चाहिए)।
इस सरकारी
प्रमेय का समीकरण इस प्रकार स्थापित होता है... राजकीय चिकित्सालय का
प्रेस्क्रिप्शन= औषधि= पंजीरी= स्वास्थ्य की ऐसी-तैसी। प्रजा को समझना चाहिये कि
सरकारी दवाइयों के परिणाम सेक्युलरिज़्म के नहीं बल्कि ईश्वरीय आस्था के समानुपाती
हुआ करते हैं, इसलिए सरकारी गोली खाने से पहले बजरंगबली जी का स्मरण करना ही रोगी के
प्राणों को संकट से उबार सकता है।
राजकीय
चिकित्सालयों में ब्रूफ़ेन को पंजीरी का पर्याय माना जा चुका है। यह विज्ञान का
चमत्कार है कि सिरदर्द के लिए दी जाने वाली ब्रूफ़ेन के साइड इफ़ेक्ट्स में एक
इफ़ेक्ट ख़ुद सिरदर्द भी है। दर्द, दवा, साइड-इफ़ेक्ट
और रोगी के बीच की यह एक ऐसी अघोषित फ़ार्मेकोलॉजिकल ट्रीटी है जो हर रोगी के लिए बाध्यकारी
होती है।
ठुकराये
हुये आशिक को भरोसा होता है कि “जिसने दर्द दिया वही दवा भी देगा”। राजकीय
अस्पतालों के रोगियों के मामले में यह उलटा है – “जिसने दवा दी उसी ने दर्द भी
दिया”।
सरकारी चिकित्सक के सामने यह बहुत बड़ी समस्या होती है कि सेवानिवृत्त होने तक यदि वह पंजीरी बाँटने तक ही अपने को सीमित रखेगा तो वह बहुत जल्दी अपने चिकित्सा ज्ञान को खो देगा। किसी राजपाश में बँधकर चिकित्सा जैसे बौद्धिक और सतत शोधपरक कार्य को कर पाना उतना ही सम्भव है जितना कि नारियल के पेड़ से आम के फल को प्राप्त कर पाना। वैसे लोकतांत्रिक सरकारों को यह भरोसा होता है कि कुपोषित व्यक्ति से पहलवानी करवायी जा सकती है और कोड़े मार-मार कर किसी गधे से राग मल्हार गवाया जा सकना शत प्रतिशत सम्भव एवं नियमानुकूल है।
आयुर्वेद
का गुणगान ही पर्याप्त है
हमारे
ऋषियों-मुनियों की महान चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद का गुणगान कर लेना ही पर्याप्त
होता है, गोया मरते समय भगवान विष्णु का नाम ले लो और सीधे विष्णुलोक का आरक्षण पा लो।
आयुर्वेदिक
औषधियों का अन्य दवाइयों की तरह हानिकारक नहीं होना ही आयुर्वेद का बहुत बड़ा
दुर्भाग्य है। इस सद्गुण ने औषधि निर्माताओं को मिलावट की भरपूर सम्भावनायें
उपलब्ध करवा दी हैं। आयुर्वेद की कुछ औषधियों में मिलावट का स्तर शून्य भी हो सकता
है किंतु इसका अर्थ यह नहीं कि वह औषधि बहुत अच्छी है, बल्कि
इसका अर्थ यह है कि वह औषधि शुद्ध नकली है जिसमें औषधि का प्रतिशत शून्य है। आप
इसे शुद्ध नकली कह सकते हैं। आयुर्वेद के राजकीय अस्पतालों में सत्यनारायण की कथा
के कुछ अंश प्रभावी होते हैं जैसे कि –“हे महराज! आपको देने के लिए हमारे पास कुछ
नहीं है, हमारी नाव में तो केवल लती-पत्तरा है”।
भगवान
धन्वंतरि और ऋषियों-मुनियों की महान चिकित्सा पद्धति का गुणगान करने वाले भक्त हर
मौसमी व्याधि की सम्भावनाओं को देखते हुये एक शरणागती आदेश प्रसारित कर दिया करते
हैं – “...मौसमी व्याधियों की सम्भावनाओं को देखते हुये सभी वैद्य अपने कर्तव्य
सुनिश्चित करें और मौसमी व्याधि से ग्रस्त प्राणी को तुरंत समीप के एलोपैथी
चिकित्सालय की सेवायें उपलब्ध करवायें”। भारत की प्रजा यह समझ पाने में असमर्थ है
कि फिर आयुर्वेदिक वैद्यों और राजकीय आयुर्वेद चिकित्सालयों को सफेद हाथी की तरह
पालने का औचित्य क्या है?
कोविड-19
के चरम प्रकोप वाले युग में राजकीय वैद्यों की नकेल कस दी गयी, उनके
हाथ काट दिए गये, उनकी बुद्धि पर ताले डाल दिये गये, उन्हें स्पष्टतः कह दिया गया कि वे कोविड-19 के रोगियों की आयुर्वेदिक
औषधियों से चिकित्सा न करें। वहीं, निजी आयुर्वेद चिकित्सक
और औषधि निर्माता इस राज-पाश से मुक्त रखे गये जिसके परिणामस्वरूप इन लोगों ने
चाँदी ही नहीं काटी बल्कि सोना-हीरा-मोती सब काटा और कोविड-19 के नियंत्रण में
महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। वह बात अलग है कि कोई भी साइंटिस्ट और कोई भी भारतीय
राजा इस तथ्य को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है।