“बुद्धि का कार्य विश्लेषण करना है, जबकि विश्लेषण को स्वीकार या अस्वीकार करने वाला विवेक उचित-अनुचित का निर्धारण करता है । इसीलिये बुद्धि से विवेक कहीं अधिक सैद्धांतिक और व्यावहारिक है । विश्लेषण में त्रुटि की आशंका हो सकती है पर विवेक के परिणाम त्रुटि से परे होते हैं”। - मोतीहारी वाले मिसिर जी
विश्व के
लगभग सभी देशों में आरक्षण को लागू किया गया है, किंतु जातिगत
आधार पर बौद्धिक आरक्षण केवल भारत में ही है । अन्य देशों में वृद्धों और विकलांगो
के लिए सुविधाओं का आरक्षण है: जबकि पढ़ाई, नौकरी और
पदोन्नति वाला आरक्षण भारत के अतिरिक्त कदाचित ही किसी अन्य देश में हो । इस तरह
के अप्राकृतिक और अवैज्ञानिक आरक्षण में गुणात्मकता का कोई मूल्य नहीं होता जिससे
समाज, प्रशासन और उद्योग की गतिविधियाँ ह्रासोन्मुखी होने लगती हैं । यही
कारण है कि आरक्षण पाने के लिए लोगों में अपनी जाति और वर्ग बदलने के लिए आंदोलन
और संघर्ष तक होने लगे हैं । कुछ लोग तो मतांतरण (धर्मांतरण) के बाद भी अपनी पिछली
त्याज्य जाति के वाहक बने रहते हैं । भीमराव अम्बेडकर भी एक निश्चित अवधि तक के
लिये ही आरक्षण के पक्ष में थे, सदा के लिए नहीं । आज यदि भीमराव जी होते तो वे स्वयं भी आरक्षण
का विरोध करते ।
वर्ष २०२१
में आरक्षण के समर्थन में अपने विचार रखते हुये डॉक्टर विकास दिव्यकीर्ति अपने
छात्रों को सम्बोधित करते हुये पूरे देश से पूछते हैं, “इस विषय
पर हमारे समाज में इतना विवाद क्यों हैं? ...आरक्षण से
संसाधनों के वितरण के अवसर मिलते हैं । आरक्षणविरोधियों को लगता है कि सरकार उनके
संसाधनों को छीन रही है जिन पर पिछले तीन हजार सालों से उनका अधिकार रहा है, इसीलिये वे मानते
हैं कि आरक्षण से अयोग्य लोगों को संसाधन दे दिये जाते हैं । सत्तर साल से आरक्षण
दे रहे हो, कब तक दोगे? एससी, एसटी, पिछड़ा वर्ग, महिला, विकलांग आदि सब मिलाकर जनसंख्या के कुल ९० प्रतिशत हैं । ९०
प्रतिशत को सत्तर साल से ४९ प्रतिशत आरक्षण दे रहे हैं, और इस बात
से बहुत लोगों के पेट में खलबली मची हुयी है । तीन हजार साल तक पढ़ाई-लिखाई पर
ब्राह्मणों का हक था, पूरे सौ प्रतिशत आरक्षण, तब किसी को
पेट में दर्द नहीं हुआ । ब्राह्मण जनसंख्या केवल दस प्रतिशत थी, दस प्रतिशत
लोगों ने सौ प्रतिशत सीटें घेरीं तीन हजार साल तक और अब सत्तर साल से परेशान हो
गये”।
प्रोफ़ेसर
दिव्यकीर्ति जी का कथन सत्य से परे है, धर्मपाल ने
अपनी पुस्तक “द ट्री ऑफ़ इण्डिया” में लिखा है कि अठारहवीं शताब्दी में भारत के
नागरिक शतप्रतिशत शिक्षित हुआ करते थे । इस शतप्रतिशत में केवल ब्राह्मण ही हैं
क्या? …तब भीमराव के पिता सेना में सूबेदार कैसे बन गये? स्वयं
भीमराव कैसे शिक्षित हो सके ? वैदिक काल में मंत्र और ऋचायें लिखने वालों में केवल ब्राह्मण
ऋषि ही नहीं अपितु महिलायें और अन्य सभी वर्णों के ऋषि सम्मिलित हुआ करते थे ।
दिव्यकीर्ति जी जाति और वर्ण में घालमेल कर रहे हैं । वे शिल्पज्ञान में दक्षता के
आधार पर सहज गति से बनी व्यावसायिक उपाधियों को ही अन्य छद्मविद्वानों की तरह ही
जाति मान बैठे हैं जबकि भारतीय शास्त्रोक्त समाज व्यवस्था में जाति जैसी कोई
व्यवस्था थी ही नहीं ।
वर्णव्यवस्था
के बारे में, बिना यह जाने हुये कि वर्ण किसी जातक के पूर्वकर्मों और शेष
ऐषणाओं के आधार पर प्रकृति द्वारा निर्धारित एक वैज्ञानिक व्यवस्था है, लोग विरोध
करने लगते हैं । वर्णव्यवस्था को सरलता से समझने के लिए हीमोग्लोबिनोपैथी जैसी
जेनेटिक व्याधियों की अगली पीढ़ी तक पहुँचने की वैज्ञानिक प्रक्रिया पर चिंतन करना कुछ
प्रासंगिक होगा । एक ही परिवार में भिन्न-भिन्न वर्णों के लोगों का जन्म लेना इसकी
वैज्ञानिकता का प्रमाण है । यदि आपको अपने जन्म का सही-सही समय और दिन ज्ञात है तो
आप ज्योतिषीय गणना करके अपने वर्ण का पता लगा सकते हैं । कोई भी जातक किसी भी कुल
में जन्म लेकर किसी भी वर्ण का हो सकता है, प्रकृति की
यही वर्णव्यवस्था है । यह व्यवस्था उतनी ही सत्य है जितनी कि वैदिकोक्त त्रिदोष
एवं त्रिगुण व्यवस्था । मेरा ही उदाहरण लीजिये, मेरा जन्म
ब्राह्मणकुल में हुआ पर मेरा वर्ण वैश्य है, मेरे विचार, कार्यपद्धति
और आचरण वैश्यों जैसे ही हैं जबकि मेरे बेटे का वर्ण ब्राह्मण है । मेडिकल की
भाषा में कहें तो वर्णव्यवस्था जेनेरिक है और जातिव्यवस्था पेटेंट ।
वार्णिक गुण
जातक के समवाय (अपरिहार्य, अयुक्तसिद्ध) गुण होते हैं, वह अपने तप
से उन्हें न्यून या अधिक तो कर सकता है पर पूरी तरह समाप्त नहीं कर सकता । जातीय
वर्गीकरण अवैज्ञानिक है जो समाज या राजा द्वारा निर्धारित किया जाता है, ब्राह्मणों
द्वारा नहीं । स्वतंत्र भारत की सरकारें भी जातियाँ गढ़ने में पीछे नहीं हैं, और अब तो
जनता स्वयं भी आरक्षण के लाभ लेने के लिए किसी भी जाति का नाम धारण करने के लिये
उतावली है ।
जब हम जातीय
आरक्षण करते हैं तो वर्णव्यवस्था का उल्लंघन करते हैं, वास्तव में ऐसा
आरक्षण समाज विध्वंसक है जो योग्यता और दक्षता को नहीं प्रत्युत जाति को वरीय
स्वीकार करता है । यही कारण है कि संसाधनों की खोज में भारतीय प्रतिभायें पलायन
करने को विवश होती हैं । दिव्यकीर्ति जैसे लोगों को इन बिंदुओं पर चिंतन करने की
आवश्यकता क्यों नहीं होती ?
आरोप लगते
रहे हैं कि बाह्मणों ने जातियाँ रचकर समाज में विभाजन और ऊँच-नीच का विध्वंसक
बीजारोपण किया है । जातियाँ यदि ब्राह्मणों ने बनायीं हैं तो आप उसे मान ही क्यों
ही रहे हैं, जातिव्यवस्था का बहिष्कार क्यों नहीं करते? बल्कि आप
तो आरक्षण वाले समूह में स्वयं को सम्मिलित किये जाने के लिये आंदोलन तक करने लगे
हैं । कोपीनधारी और भिक्षाटन करने वाले दरिद्र ब्राह्मण कब इतने शक्तिशाली हो गये
जो अत्याचार करने लगे और जातिव्यवस्था को हर किसी के लिये अनिवार्य और स्वीकार्य
बना दिया ? अत्याचार वह करता है जो शक्तिशाली होता है, निर्बल कब
किसी पर अत्याचार करता है ? राजवंशों की ओर आइये, कितने
ब्राह्मण राजा हुये हैं ? भारत में प्रायः ब्राह्मणेतर समुदाय के लोग ही सत्ता के अधिकारी
होते रहे हैं, आज भी हैं, आगे भी होते रहेंगे, क्योंकि
सत्ता ब्राह्मणों के लिये है ही नहीं, वे उसके
लिये उपयुक्त पात्र नहीं हैं ।
आजकल
राजनीतिक स्वार्थ को देखते हुये ब्राह्मणों के लिये भी निर्धनता के आधार पर आरक्षण
देने की बातें उठने लगी हैं । यह भी अनुचित है, ब्राह्मणों
को पंगु मत बनाइये । हम जाति और आरक्षण, दोनों के सैद्धांतिक
और व्यावहारिक विरोधी हैं । बहुत से लोग जातीय आरक्षण और जातीय जनगणना के समर्थक हैं । ये
वे लोग हैं जो जातिव्यवस्था के लिये ब्राह्मणों को जी भर-भर कोसते हैं पर जातीय
जनगणना और जातीय आरक्षण के प्रबल समर्थक हैं । आज के आरक्षित समुदाय के
पूर्वज कभी राजा हुआ करते थे, वे सत्ता में रहे हैं, सम्पन्न रहे
हैं, शक्तिशाली रहे हैं, फिर आज उन्हें
किसी आरक्षण की क्या आवश्यकता? यदि वे मानते हैं कि वे शोषित हैं, तो किसने
किया उन शक्तिशालियों और राजवंश के लोगों का शोषण?
आरक्षण करना
ही है तो बदलती डेमोग्राफ़ी और वर्तमान समीकरणों के दूरगामी परिणामों को देखते हुये
विदेशियों और अवैध घुसपैठियों के अतिरिक्त भारत के हर व्यक्ति का आरक्षण होना
चाहिये । शिक्षा और शासन से मिलने वाली अन्य सुविधाओं के लिये केवल और केवल
भारतीयों को ही पात्र माना जाना चाहिये । कर सकेंगे ऐसा आरक्षण!
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