शनिवार, 3 मई 2025

मूर्तियाँ

 गढ़ डालीं हमने

सुंदर-सुंदर मूर्तियाँ

उन लोगों की

जो लगे विचारक

और शुभचिंतक भी हम सबके ।

हमने भगवान बना डाला उन सबको

जो काम आ सकते थे हम सबके

मनुष्यों की तरह ।

पता था

गढ़ी हुयी मूर्तियाँ निष्प्राण होती हैं

हमने ठूँस दिये उनमें विचार

उनके नहीं

अपने लक्ष्यों को पूरा करने वाले

निजी विचार ।

मूर्तियाँ अब अस्त्र-शस्त्र बन गयी हैं

जिनसे हत्या करते हैं हम प्रतिक्षण

उन्हीं विचारकों और चिंतकों की

उनके विचारों और चिंतन की ।

 

दिवंगत हो चुके लोगों के शवों से

अब हम व्यापार करते हैं

गढ़कर भगवान, भगवान से

हम टकरार करते हैं

दिन-रात सबकी आँखों में

हम धूल झोकते हैं

तुम्हें भी तो लगता है अच्छा

धूल झुकी आँखों से निहारना

निहारते ही रहना मृगमरीचिका ।      

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