गढ़ डालीं हमने
सुंदर-सुंदर
मूर्तियाँ
उन लोगों की
जो लगे विचारक
और शुभचिंतक भी हम
सबके ।
हमने भगवान बना
डाला उन सबको
जो काम आ सकते थे
हम सबके
मनुष्यों की तरह ।
पता था
गढ़ी हुयी मूर्तियाँ
निष्प्राण होती हैं
हमने ठूँस दिये
उनमें विचार
उनके नहीं
अपने लक्ष्यों को
पूरा करने वाले
निजी विचार ।
मूर्तियाँ अब
अस्त्र-शस्त्र बन गयी हैं
जिनसे हत्या करते
हैं हम प्रतिक्षण
उन्हीं विचारकों और
चिंतकों की
उनके विचारों और
चिंतन की ।
दिवंगत हो चुके
लोगों के शवों से
अब हम व्यापार करते
हैं
गढ़कर भगवान, भगवान से
हम टकरार करते हैं
दिन-रात सबकी आँखों
में
हम धूल झोकते हैं
तुम्हें भी तो लगता
है अच्छा
धूल झुकी आँखों से
निहारना
निहारते ही रहना
मृगमरीचिका ।
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