आत्महत्याओं का दौर
दुःखी होकर
पुजारी के मुखौटों से
आत्महत्या कर ली है
मन्दिर के देवता ने,
ठीक उसी तरह
जैसे
राष्ट्रवाद,
शुचिता,
सदाचरण,
निष्ठा,
सद्भावना .......
और
चरित्र जैसे शब्दों नें
आत्महत्या कर ली है।
अब
कोई अशोक नहीं निकलता
भीड़ से,
न जन्म लेता है
कोई कृष्ण
किसी बन्दीगृह से।
किसी भिखारी की भूख की पीड़ा का
क्या अनुमान लगा पायेगा
कोई मोटा।
किसी लक्ष्मीपुत्र से
क्या आशा की जाय
राष्ट्रवाद, शुचिता, सदाचरण, निष्ठा,
सद्भावना और चरित्र की।
इन लुभावने शब्दों को तो
दफ़न कर दिया है
तथाकथित राष्ट्रभक्तों ने।
आप
मुझे राष्ट्रद्रोही कह सकते हैं
पर यह सच है
कि मुझे
अगले चुनाव के लिये
नहीं दिखता कोई ऐसा चेहरा
जिसे दे सकूँ
अपना बहुमूल्य मत।
मेरी चिंता पर
एक अज़ब सी ख़ामोशी है,
पूरे परिदृष्य में
बेशर्मी का आलम है
और राष्ट्रवाद
लाल हो गया है
पता नहीं
गुस्से से
या शर्म से
या
अपनी पीठ और पेट में भोंके गये
नेज़ों से बहते ख़ून से।
भावपूर्ण रचना
जवाब देंहटाएंनहीं दिखता कोई ऐसा चेहरा
जवाब देंहटाएंजिसे दे सकूँ
अपना बहुमूल्य मत।
मेरी चिंता पर
एक अज़ब सी ख़ामोशी है,
पूरे परिदृष्य में
बेशर्मी का आलम है
और राष्ट्रवाद
लाल हो गया है ... अब शेष क्या है !
सुन्दर रचना |
जवाब देंहटाएंआज देश की हालत पर हृदय की पीड़ा की सुन्दर अभिव्यक्ति। किन्तु क्या किया जा सकता
जवाब देंहटाएंहै। भावनाएं स्थिर कहाँ हो पाती हैं। प्रवाहमय है। बाकी तो "फिर ढाक के तीन पात।"