चाँदनी
रात हो
या हो
झरने की कल-कल,
खिली
हो कुमुदिनी
सरोवर
में सिर उठा
उझकते
हों कमल-दल
मोहक,
सुगन्धित हों सुमन
दृष्य
मनभावन
या हो
स्मृति
एकांत
हो
या लज्जा
यहाँ
तक
कि
चुम्बन भी
भूले उद्दीपन।
सोये
हैं कामदेव
रति
भी उनींदी सी।
हो
गये अभाव
जो थे
भाव कभी,
विकास
के पथ पर अड़े
याचक
बन हैं खड़े
आज के
कुबेर भी।
तृषित
हुये सिंधु
हुयी
सरिता व्यथित
हो
अचम्भित
आर्यपुत्र
देखते
नवयुग का
एक
ऐसा
अन्धेर भी।
साहित्य
में, करवट ली
श्रृंगार
ने पोर्न हो
हास्य
ने निर्लज्ज हो।
व्यंग्य
में वह बात नहीं
अवगुंठन
अब रास नहीं
भावों
का भास नहीं।
काम
भी
है रह
गया
बस, एक
काम भर
गोया
करना हो
अनिवार्य अंकन
अपनी उपस्थिति
का
उपस्थिति
पंजी में।
या अनिवार्य
हो देना
यूरिया
और फ़ॉस्फ़ेट
हो
चले निस्तेज
जीवनदायिनी
शस्य को
जीवन
देने की विवशता में।
अवांछित
रूप से
निष्काम
होते काम से
हो
व्यथित
पूछ
दिया एक दिन स्वप्न में बिहारी से -
हे
रीतिकाल के रतिकला काव्य विशेषज्ञ!
उद्दीपन
के ये तत्व
तत्वहीन
हो गये हैं ...
रूपसी
षोडसी भी
खद्योत
हो रही है ...
भरी-पूरी
नदी
अब रेत
हो रही है ...
कलाहीन
हो काम की कला
उद्दीपनशून्य
हो रही है।
महंगे-महंगे
चित्रों में खोजते हैं अर्थ
लगाते
हैं बोलियाँ
ये
कुबेर,
और
खेलते रहते हैं अर्थ
आँख
मिचौलियाँ।
पोर्न
की खाद
देती
है
क्षण
भर की उत्तेजना
फिर
वही
इरेक्टाइल
डिसफ़ंक्शन
प्री-मैच्योर
इजेकुलेशन
लॉस
ऑफ़ लिबिडो ........
हक़ीम के
नुस्ख़े नाकाम हो रहे हैं
बीस
के युवक
यूँ
ही तमाम हो रहे हैं।
भूख
से पहले ही
परोस
दिया इतना
कि
भूख ही मर गयी
व्यंजन
स्वादहीन
लगते हैं।
पानी
से
बुझती
नहीं अब प्यास
मीठे
अंगूर भी नमकीन लगते हैं।
इस पीढ़ी
के
नायक-नायिकाओं
के लिये
कुछ
नया सुझाइये,
हे
कामकला शिरोमणि!
शून्य
हृदयों
और
रोबोटमय मनमयूरों के लिये
कुछ
सुपरसोनिक से नव उद्दीपक गढ़िये।
प्रलाप
से हो द्रवित
बोले
बिहारी-
युग हुआ
नव
हुये प्रतीक
नव
हो
गये उद्दीपक नव
काम
नव
कला
नव
नित्यप्रति
नव-नव
नितांत
नव
किंतु
नहीं चिंतनीय,
यह तो
सन्यास
का है विषय।
बढ़ गये
सब
आगे
काव्य
से ...
श्रृंगार
से ...
इरोटिक
कथाओं से ...
काम
के साक्षात् दृष्यों की ओर।
यात्रा
है
होने
ही वाली पूर्ण
मत
लगाओ मन
इस
अनहोनी व्याधि की ओर
अब तो
स्वयं
बढ़ेगा काम
संभोग
से समाधि की ओर।
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