शुक्रवार, 12 अक्तूबर 2012

ख़ूबसूरत चीज़ें


अदा

 

उन्हें शौक है

ख़ूबसूरत

और

ताज़े-ताज़े पत्तों से बने

दोने-पत्तल में रखकर खाने का।

खाकर

छिछियाने का

और बचाकर थोड़ा सा

अपना जूठा

फेकने का

किसी भिखारी के सामने।

उफ़्फ़ ! 

ये बड़प्पन भी 

कितनी अदा से परोसता है

सैडिज़्म।

 

बाप

कितनी ढिठायी से कहा था तुमने
कि बना लेते हो बाप
गधे को भी
निकालना होता है कोई काम
जब किसी से।
सोचता हूँ,

आज लगा ही लूँ हिसाब
मुझे कितनी बार समझा होगा तुमने
गधा।
न जाने कितनी बार
काम आता रहा हूँ तुम्हारे।

ख़ूबसूरत चीज़ें

झन्न से टूट गया
ख़ूबसूरत
काँच का गिलास।
और
अब चुभ रही है
उसकी ख़ूबसूरती
मेरे दिल में
और उसकी किरचें
मेरे तलवों में।

न जाने ये ख़ूबसूरत चीज़ें
टूटती ही क्यों हैं।
उफ़्फ़्फ़!
एक कदम भी चलना
हो गया है मुश्किल
किरचें
गहरी जो चुभी हैं।

जल रहे हैं


उन्होंने

सॉरी भर कहा था

मुस्कुराकर,  

और हम थे

कि मोम हो गये।

बनकर मोमबत्ती

अब जल रहे हैं

रात-दिन। 

3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत खूब आदरणीय कौशलेन्द्र जी ।।
    अदा

    खेतों में बेगार ने, उपजाया खुब धान ।
    चलती है दादागिरी, जूठन करता दान ।।

    बाप
    खच्चर खोजें आज भी, डी एन ए की लैब ।
    काबुल में खोजा मगर, नहीं दिखा कुछ ऐब ।।
    ख़ूबसूरत चीज़ें
    याद मधुमयी से हुआ, हमें घोर मधुमेह ।
    तलुवे में जो घाव है, हुई अपाहिज देह ।।

    जल रहे हैं
    मधुमक्खी वे पालती, हैं हजार मजदूर ।
    हुक्म चलाती इस तरह, मानूँ मैं मजबूर ।।

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत बढ़िया -वर्तमान की विडंबनाओं को रेखांकित करती रचना

    जवाब देंहटाएं

टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.