शनिवार, 6 अक्टूबर 2012

तुम्हारा आमंत्रण ...

यूँ तो

अंधेरों से

बहुत डरती हूँ मैं

पर कैसे ठुकरा दूँ

तुम्हारा आमंत्रण।










 बुला कर

यूँ छत पर

फिर कहाँ छिप जाते तुम?

बादलों ने

जैसे फिर धमकाया हो मुझे

और तुम

छिपकर देख रहे हो मेरा

 

यूँ परेशान होना।

 

मेरे चाँद!

कितना अच्छा लगता है तुम्हें

अँधेरी....काली रातों में

यूँ लुकना ...

यूँ छिपना ..

और सताना

जी भर...

सारी-सारी रात।

 

उफ़्फ़्फ़्फ़्फ़!

ये अँधेरे!

कितनी शिद्दत से खीचते हैं तुम्हें

और तुम

मुझे।

 

काश!

पकड़ कर बाँध पाती तुम्हें

अपनी

काली वेणी से ....

डुबो पाती तुम्हें

अपने नयनों की काली झील में।


 

 

 

मेरे बाबरे चाँद !

काला रंग

बहुत पसन्द है न! तुम्हें।

देखो,

कितनी काली है

मेरी वेणी।

देखो,

कितने काले हैं

मेरे नयन

और हृदय

कितना व्याकुल।

 

 

अब

आ भी जाओ ना!

नहीं सहा जाता

तुम्हारा

यूँ करना

अठखेलियाँ

और तड़पाना

इस क़दर

कि जैसे निकल ही जायेगी

कहीं अटकी हुयी जान।

   ऐ! मेरे चाँद!

   कब छोड़ोगे

   ये बाबरापन!


 

1 टिप्पणी:

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