ज़िन्दगी मुस्कुराती है यहाँ भी....
न जाने कब से डूबे हैं अँधेरों में , मगर
हम इतने कठोर और निर्दयी भी नहीं ....
कि मुस्कुरा न सकें।
पास बैठोगे मेरे
तो पाओगे
मुस्कुराते रहते हैं
हम तो हर पल
तुम आओ तो सही ...
अँधेरे हैं यहाँ
तो रोशनी भी है
दर्द हैं यहाँ
तो ख़ुशी भी है।
तुम्हें क्या चाहिये?
मिल गया न सबूत !
देखो किस तरह मुस्कुराती है ज़िन्दगी
हमारे आसपास....
क्योंकि हम इनसे
बेहद मोहब्बत करते हैं।
मुस्कुराती ही नहीं खिलखिलाती भी है ज़िन्दगी
क्योंकि संतुलन ही राज है हमारा
पीछे पलटकर तो देखो
सारा इतिहास गवाह है हमारा
संतुलन भी ऐसा
कि देखते ही रह जाओ
जिधर देखो
उधर हमारा ही नज़ारा है
कसम से
हम कभी यूँ न थे
तुम्हारे इंतज़ार में
पत्थर हुये हैं।
हमें छूकर देखो
आज भी धड़कते हैं हम
तुम्हारे लिये ।
कोशिशें
कम न कीं किसी ने
मगर ज़ुदा न कर सका कोई
टिके हैं आज भी
मोहब्बत के सहारे
कुछ और क़रीब आओ
देखो तो सही
कितना कुछ समेट रखा है
तुम्हारे लिये
यकीन न हो
तो इनसे पूछो
धान के गमकते फूलों से पूछो
धान की झूमती बालियों से पूछो
और पूछो
ओस की इन बूँदों से
जो रात भर इनके आगोश में रहती हैं
मुस्कुराती हैं ...खिलखिलाती हैं
सुख-दुःख की बातें करती हैं
टपक जाती हैं मोहब्बत के जोर से
होते ही भोर,
और फिर आ जाती हैं
घिरते ही साँझ।
बहुत सुन्दर........
जवाब देंहटाएंकहीं कहीं टेक्स्ट कलर पढ़ने में तकलीफ दे रहा है...
सादर
अनु
अनु जी! राम-राम! रंग सुधारने का प्रयास किया है।
हटाएंमन को छूते शब्द ... वाह बेहतरीन
जवाब देंहटाएंनमस्कार सदा जी! आपको हमारा प्रयास पसन्द आया ...धन्यवाद! हम आगे भी आपको प्रकृति से रू-ब-रू कराते रहेंगे।
हटाएंरोवीकोर जी! नोमोश्कार! काछो भालो बाबू मोषाय?
जवाब देंहटाएंचित्र स्वयं बोलते हैं
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंटिपण्णी चालीस के पार कब का जा चुकीं हैं स्पैम बोक्स हजम कर रहा है संख्या 40 के नीचे अटक गई है .
मंगलवार, 9 अक्तूबर 2012
ज़िन्दगी मुस्कुराती है यहाँ भी....
तुम देखो सुनो तो सही ,
गीत गाते हैं पत्थर ,
झूमतीं हैं धान की बालियाँ ,
तंगी है ओस डूब पर मेरे तुम्हारे इंतज़ार की तरह .
बेहद बढ़िया रागात्मक दर्शन प्रधान प्रस्तुति .