रविवार, 14 अक्टूबर 2012
क्या एक लड़का और लड़की सिर्फ़ दोस्त हो सकते हैं?
“....उसने
इतने दिलकश अन्दाज़ से पूछा। मेरा दिल किया कि सारी ज़िन्दगी के लिये अपना गला ख़राब
कर लूँ।”
“.....इस
बार फिर सीढ़ियों पर तीन लोगों का जमघट था – वह, मैं और ख़ामोशी।”
“....वह मेरे सेंसेक्स जैसे बर्ताव को देख कर
उलझन में थी जो लगातार उतार-चढ़ाव से भरा था।”
सत्रह वर्ष के किशोर सुमरित शाही के प्रथम
उपन्यास “जस्ट फ़्रेण्ड्स” के हिन्दी संस्करण को दो बैठकों में आज ही ख़त्म किया है।
और ये पंक्तियाँ उसी की हैं। किशोरावस्था की दहलीज पर ख़ड़ी नयी पीढ़ी कुछ स्पेस की
आज़ादी चाहती है ...ऐसे स्पेस की जिस पर
सिर्फ़ और सिर्फ़ उसी का अधिकार हो। किशोर लेखक द्वारा सत्य को स्वीकारने की
ईमानदारी प्रभावित करती है। भारतीय समाज की नयी पीढ़ी परिवर्तन के एक संक्रान्ति
काल से गुज़र रही है, अपनी बनायी मान्यताओं को स्थापित करने की ज़द्दोज़हद से दो-चार
हो रही है। पैरेण्ट्स के सामने किशोर भावनाओं का ईमानदार ख़ुलासा ...... कुछ चिंतित
करता है ...तो कुछ समझने का अवसर भी देता है। यह सच है कि हम अपने आदर्श किसी पर
थोप नहीं सकते.... पर भटकने की चिंता किसी भी अभिभावक को परेशान कर सकती है।
रोशनी
के लिये तरसती लड़कियाँ कई प्रकार की गुफ़ाओं से बाहर आ चुकी हैं ...पर अभी शायद
अपना नया रास्ता तय करने में उन्हें वक़्त लगेगा।
उपन्यास
मूल अंग़्रेज़ी में लिखा गया है, हिन्दी तर्ज़ुमा बाद में किया गया इसलिये कपड़े बदलने
के बावज़ूद अंग्रेज़ी सोच की आत्मा बरकरार है। फिर भी शिल्प अच्छा लगा। हम इसे
उत्कृष्ट लेखन की श्रेणी में तो नहीं रख सकते पर लेखक के अन्दर का लेखकीय
पोटेंशियल ज़रूर उभर कर सामने आ चुका है। सुमरित को बधाई और शुभकामनायें .... हम एक
उभरते हुये अच्छे लेखक को देख पा रहे हैं।
नई
पीढ़ी के गढ़े नये प्रतीक आकर्षक लगते हैं –“ऑस्कर विनिंग स्माइल” ...
और
कुछ प्यारे-प्यारे ज़ुमले भी-
“...वह
हंसी मैं हंसा और उलझन सुलझ गयी”
पूरे उपन्यास में ऐसा लगता रहा जैसे कि भरी वारिश में रंग-बिरंगे कागजों की नाव बनाकर उफ़नती नदी में छोड़ दिया गया हो... इस विश्वास के साथ कि हर नाव को अपने गंतव्य तक पहुँचना ही है। ...पर सच तो यह है कि उनमें से कुछ डूब जाती हैं .....कुछ हिचकोले खाती हुयी आगे बढ़ती हैं ...... मंज़िल तक शायद ही कोई पहुँच पाती है। पर इस सबके बीच मुझे आशा की एक किरण दिखायी देती है ...नयी पीढ़ी का भटकाव कहीं थमता दिखायी देता है ....और लगता है कि भारतीय मूल्य इतनी आसानी से समाप्त होने वाले नहीं। बोज़ा का ख़त सबूत है इसका और बहुत मार्मिक भी, सच पूछो तो इस उपन्यास की आत्मा है यह ख़त -
- बदकिस्मती
से तुम्हारी बेस्ट फ़्रेण्ड बोज़ा”
सुमरित
! एक बार फिर मेरी शुभकामनायें! मैं आपके अन्दर बहुत सी ईमानदार सम्भावनायें देख
पा रहा हूँ।
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
ये क्या टेक्स्ट कलर घोटाला कर दिया डाक्टर साहिब? कुछ पढ़ने में नहीं आ रह।
जवाब देंहटाएंगौर फ़रमाने के लिये शुक्रिया। अब ठीक है जी, स्पष्ट पढ़ा जा रहा है।
जवाब देंहटाएंLet us prepare ourselves for more such literature.