मंगलवार, 30 नवंबर 2010

ठहरी हुयी ज्यों ओस सी

क्या हो तुम ...कैसे कहूं
वह गंध शब्दों में कहाँ !
हूँ, खो गया पाकर तुम्हें 
है साक्ष्य मेरे नयनों में.
  
नख से शिखर तक हो ग़ज़ल 
हौले से थिरकीं नयनों में, 
सरगम उमड़ता जा रहा  
आ भर लूं अपने नयनों में.

कितनी गहरी झील को 
ले घूमती हो नयनों में, 
कहीं फिसल कोई गिर न जाए 
डूब जाए नयनों में.

पांखुरी की कोर पर 
ठहरी हुयी ज्यों ओस सी, 
रूप तेरा ढल न जाए 
आ भर लूं अपने नयनों में.

सबसे खतरनाक प्राणी

आज एक पुरानी डाक भेज रहा हूँ ........आपको याद होगा सन २००५ में ह्त्या के आरोप में किसी तथाकथित शंकराचार्य को बंदी बनाया गया था, निंदनीय कृत्य के लिए दोषी को दंड मिलना ही चाहिए........पर प्रश्न और भी हैं ....उसी सन्दर्भ में तभी की लिखी एक रचना ....प्रस्तुत है आप सबके मंथन के लिए -


" सत्यमेव जयते " के  उद् घोषक    देश में        
बड़ा कठिन है यह समझ पाना 
कि सत्य को 
क्यों प्रतीक्षा रहती है सदैव 
धरती के फटने की ......
और ........
सीता का सत्य 
क्यों नहीं स्वीकारा जाता 
प्राणों का उत्सर्ग किये बिना !

मैं  आश्चर्य  चकित  हूँ ........
पूरे देश में फैले मंदिरों से 
निकलते ही बाहर 
न जाने क्यों बदल जाता है चरित्र 
पूरे देश का .
कुछ क्षण का पुजारी 
बन जाता है ........दिन भर का अत्याचारी.
धार्मिक.....आध्यात्मिक बने रहने के लिए
इतना ही पर्याप्त मान लिया है सबने,
इसलिए किसी को अधिकार नहीं 
कि दोष दे सके वह 
किसी ओसामा बिन लादेन को 
या
ह्त्या के आरोप में बंदी 
किसी शंकराचार्य को .

मैं आश्चर्य- चकित    हूँ .......
इतने लोग ............!
इतने रास्ते .............!
इतना ज्ञान ................!
पर ....
सब तिरोहित हो जाता है ........
न जाने कहाँ, .........न जाने क्यों ? 
और  मिलता नहीं कोई प्रमाण 
प्रतिदिन होते बलात्कारों का .
"बलात्कार" .........
यह शब्द इतना कुंठित हो गया है अब  
कि कोई आँच नहीं आती ....... 
हमारी  नैतिक  और आध्यात्मिक श्रेष्ठता  पर.
चाहे  कितनी  ही बार  ....क्यों न घटित  होती  रहें  
इस  कुण्ठित  शब्द  की शर्मनाक  घटनाएं  .
........................................................
ऐसी  ही श्रेष्ठताओं  के सहारे  
विकास  ( ? ) के सोपानों  पर चढ़कर  
बन गए  हैं हम  
धरती के सबसे खतरनाक प्राणी .
मैं, 
इसीलिये  
अधार्मिक  हो जाना  चाहता  हूँ अब  
ताकि  बची  रहे  ...................
थोड़ी  बहुत  मनुष्यता  
इस  धर्म  प्राण  देश में . 



सोमवार, 29 नवंबर 2010

अंधेरों नें कहीं ज़श्न फिर .........

मुस्कुराके चाँद नें
पूछा है बार-बार
कहीं ख़्वाब में वो फिर से
आया तो नहीं .


सूरज से रोज़ लड़ रही
सागर की हर लहर
किसी पोखरे को फिर कहीं
सुखाया तो नहीं .


गुमसुम हुयी हवा है
जंगल की आज फिर
कहीं आदमी नें शेर फिर  
खाया तो नहीं.


बदलियों से घिर गया
चाँद आज फिर
अंधेरों नें कहीं ज़श्न फिर
मनाया तो नहीं.


न जाने क्यों
मन मेरा
आज फिर उदास है
कहीं फिर किसी नें आपका
दिल दुखाया तो नहीं.

शुक्रवार, 26 नवंबर 2010

गंगा स्नान का पुण्य कैसे ले पाऊँ ?


दिनांक २४ नवम्बर, स्थान -ब्रह्मावर्त, जिला कानपुर.
टैक्सी से उतरकर गंगा की ओर जा रहा हूँ. कई पण्डे आकर घेर लेते हैं.......पूजा....संकल्प......स्नान ......?
मैं विनम्रता से मना कर देता हूँ ...पर वे मानने वाले कहाँ ! जैसे-तैसे पीछा छुड़ाकर घाट तक पहुँचा.
लीजिये, वहां के कुछ दृश्य आपके  लिए  भी -
सीढ़ियों पर फ़ैली गन्दगी का ढेर ......जूते..चप्पल....पोलीथिन....मूर्तियाँ (जो पूजा के बाद शायद सम्मान के योग्य नहीं रह गयीं थीं और उन पर किया गया विषाक्त रासायनिक रंग मछलियों को आत्महत्या करने के लिए सहज ही उपलब्ध कराने के लिए गंगा में विसर्जित की गयीं थीं  )...सड़े फूल...निर्विकार लोग .......शिक्षा का बढ़ता स्तर .......पब्लिक स्कूलों की भरमार .......देश में बढ़ती उच्च .. शिक्षा.....गंगा प्रदूषण .......गंगा बचाओ अभियान......ऊंह छोडो न यार ! चलो आगे चलते हैं .........    
एक ओर किसी परिवार को खड़े होकर संकल्प दिलाते हुए पंडा जी . एक ओर दक्षिणा के लिए झगड़ते पंडा जी. लुब्ध द्रष्टि से जजमान को तलाशते पंडा जी....युवा पंडा.....अधेड़ पंडा...वृद्ध पंडा ....भाँति-भाँति के पंडा जी....मुझे लगा....बिना पंडा को मध्यस्थ बनाए गंगा - स्नान भी संभव नहीं...... क्या स्वतंत्रतापूर्वक, बिना मंत्रोच्चारण के स्नान कर लेने पर कोई पाप लग जाएगा ? गंगा और श्रद्धालु के बीच ये मध्यस्थ क्यों ? आम आदमी की स्वतंत्रता का हरण करने वाले ये ठेकेदार कहाँ से आ गए ? उत्तर पूरे समाज को देना ही होगा.  आज ...नहीं तो कल ......समय आपसे पूछेगा अवश्य.
मैं आगे बढ़ा .....नालियों का गंदा पानी गंगा में गिर रहा है ...उससे मात्र दस फिट की दूरी पर ही एक युवा श्रद्धालु जी हाथ में गंगा जल लेकर आचमन कर रहे थे .उनकी श्रद्धा देखकर आश्चर्य होना स्वाभाविक था, तुलना करके देखा ....मैं सचमुच "नास्तिक" होता जा रहा हूँ . चलो, जब  कोलायीटिस होगा न! तब पता चलेगा   कौन   कितना नास्तिक है .
एक ही घाट पर स्त्री-पुरुष सभी का स्नान ....वहीं खुले में कपडे बदलतीं श्रद्धालु नारियां ...जो अन्य अवसरों पर अत्यंत लाजवंती   हुआ करती हैं .......गंगा-स्नान के पुण्य-लोभ  में कुछ समय के लिए  "लोक-लाज बिसराय"  परमहंस की गति को प्राप्त हो गयीं सी प्रतीत हो रही थीं.
आगे बढ़ा .....एक युवा पंडा जी एक लडके को सीढ़ियों पर पड़े गन्दगी के ढेर को गंगा में जल्दी-जल्दी फेकने का निर्देश दे रहे थे ......लड़का बड़ी तत्परता से आज्ञा का पालन कर रहा था. मैंनें कहा गंगा को साफ़ करने के स्थान पर आप बाहर पड़ी गन्दगी गंगा में क्यों फिकवा रहे हैं ? पंडा जी नें अपने श्री मुखारविंद से उवाचा - यह सब तो प्रशासन को करना चाहिए...अधिकारी ध्यान ही नहीं देते, मैं क्या करूँ ?
मैंने कहा - गंगा सफाई अभियान के लिए सरकार करोड़ों रुपये  खर्च कर रही है और आप गंगा को गंदा कर रहे हैं.
उन्हें अवसर प्राप्त हो गया .....शायद फूटने के लिए तैयार बैठे थे .....उवाचने लगे - ये करोड़ों रुपये अधिकारियों की जेब में जाते हैं, चारो ओर भ्रष्टाचार है ,गंगा की ओर कोई ध्यान ही नहीं देता...इसीलिये तो गंगा इतनी गंदी होती जा रही है.....
ब्रह्मावर्त के घाट पर, जहां पृथ्वी का केंद्र माना जाता है कई श्रद्धालु लोग पुण्य लाभ ले रहे थे ......पंडा जी उच्च स्वर में प्रशासन को कोसे जा रहे थे  और  श्रद्धालु  निर्विकार  भाव  से  पुण्य  लूटे जा रहे थे.....
धन्य है भारत भूमि ! यहाँ सब कुछ कितने निस्पृह भाव से होता रहता है ......पाप भी, पुण्य भी ....
इतने  अविचारी   पंडों   को  पुण्य का  मध्यस्थ  बनाने  वाले  लोगों  की  जय  हो  !
गलत  मंत्रोचारण  कर  लोगों  को  पुण्य दिलाने के ठेकेदार  .......ब्राह्मणत्व  (??????) को  अधोगति  की  ओर  धकेलते  पंडों  की  जय  हो  !!
भारी  मन  से वापस  आ गया  ...बिना  गंगा  स्नान   किये  ...
पुण्य नहीं  लूट  सका  ....मेरा  तो  नरक  में  जाना  तय ही समझो  .
वापस  जाते  समय  पंडों  नें  विचित्र द्रष्टि से द्रष्टिपात  किया  , जैसे  कह  रहे हों   ......वंचित  रह  गया  बेचारा  ब्रह्मावर्त  आकर  भी पुण्य नहीं  ले सका  ....मति  मारी  गयी  है ...पुण्य हर  किसी  के  भाग्य  में  लिखा  भी कहाँ  विधाता  नें  ?
हाँ ! ठीक  ही  तो  विधाता  नें  ऐसा  पक्षपात  किया  ही  क्यों  ? मैंने  तो  तय  कर  लिया  है नरक  में  जाऊंगा  तो  पूछूंगा  ज़रूर  .








                   

शनिवार, 20 नवंबर 2010

मधुशाला का पात्र -परिचय

अभी तक जितनी रुबाइयां लिखीं ......आपको समर्पित कर चुका हूँ . मधुशाला के प्रतीक-पात्रों का कई रूपों में प्रयोग करने का प्रयास रहा है मेरा . एक दिन इन सभी पात्रों ने शिकायत की  ".......हर किसी नें हमारा स्तेमाल ही किया है ......आपने भी . क्या हम सिर्फ माध्यम ही बने रहेंगे ........हमारे दर्द को पूछा है आज तक किसी नें ? क्या हमारा अपना कोई अस्तित्व नहीं ?" 
बात सही थी ...सो हमें सोचना पड़ा.......फिर ख़याल आया ...कम से कम पूछें  तो सही ....कुछ जानें तो सही इनके बारे में ...... तो इन्होंनें अपनी बात कुछ यूँ रखी हमारे सामने  -

रहकर हाला के संग भी ना 
डूब सका उसमें कोई प्याला /
सबको रंगती साकीबाला
बैरागी पर "मधुशाला" //

नहीं किसी की फिर भी सबकी 
मैं तो चेरी सारे जग की /
कुछ पल को मैं ख़ास तुम्हारी
भूली-बिसरी "साकीबाला" //

अपनापन मैं खोज रहा था 
अधरों तक जा वापस आया /
प्यास बुझाई सबकी पर, मैं
रहा  अंत में रीता "प्याला" //
कितने भी हों दुर्गुण पर, कोई 
मुझे न चाहे हो न सकेगा /
प्यास बुझाकर भी हूँ वर्जित 
मैं हूँ सबकी प्यारी "हाला" //



शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

लीजिये .......एक बार फिर हाज़िर हूँ आपके सामने .......लेकर उत्तरमधुशाला.....

साकी इस बार पिलाई कैसी !     
मैं तो था इस जग से रूठा /
सारी दुनिया हो गयी मेरी 
ऐसी तूने ढाली हाला //

खोज रहा हूँ , न्याय कहाँ है ?
लेकर अपना खाली प्याला /
जिसने उसका मोल चुकाया 
हो गयी उसकी मधुशाला //

लोग उजाले से डरते हैं 
पीते हैं 'तम' की हाला /
हर कोई झूठे नशे में डूबा
सूनी रहती मधुशाला //

नयनों से ले मेरा काजल
उसने फिर श्रृंगार किया /
पीकर तारीफों की हाला 
तोड़ दिया मेरा ही प्याला //

ईमान दिया , ईनाम लिया  
कर मुह काला पहनी माला /
"नशा" शर्म से डूब मरा है
पानी -पानी हो गयी "हाला" //




बुधवार, 17 नवंबर 2010

फतवे से आगे की मधुशाला........

आज देव उठानी का पर्व है और बकरीद भी .....
सभी को मंगलकामनाओं के साथ शुरू करते हैं उत्तर मधुशाला का वह भाग जो लखनऊ के काजी साहब नें मधुशाला के ख़िलाफ़ फ़तवा ज़ारी करके मुझे लिखने के लिए प्रेरित किया ......उन्हें तहे दिल से शुक्रिया ....बड़ी विनम्रता के साथ समर्पित हैं काजी साहब को ये रुबाइयां -

सभी धर्म ग्रंथों को जीकर  
सार सुनाती मधुशाला /
फ़तवा वही सुनाते जिनको 
समझ न आती "मधुशाला" // २१

बाह्य कलेवर में भटका जो 
पी न सकेगा वो हाला /
भीतर नेक उतर जो देखे 
पा जाएगा "मधुशाला" // २२

धर्म-धर्म की रट करते सब 
मर्म समझ ना कोई पाया /
कर्म संभालो अपने-अपने,
होगी मधुमय कड़वी हाला // २३

छोडो कटु  भाषा फ़तवे की
बोलो   प्रेम पगी भाषा /
खुली नज़र से देखो तो जग 
चलती-फिरती मधुशाला // २४

टूटा मन , ले टूटी आशा 
जो भी आ जाए मधुशाला /
सबको अपने-अपने रंग की 
मिल ही जाती थोड़ी हाला // २५

पाखण्ड नहीं है यहाँ लेश भी 
भग्न हृदय हो, मन हो साँचा /
तनिक लीक से हटकर आओ /
तुम्हें बुलाती है मधुशाला // २६

मान मिला कब जग से हमको,
सदा ही तरसी है "मधुशाला" /
नफ़रत कर लो कितनी भी, पर
भूल सकोगे ना ये हाला // २७

कितने ही रंगों की हाला 
देख भ्रमित है पीने वाला /
सच्चे मन से खोजे जो भी 
पा जाता है असली हाला // 28


मंगलवार, 16 नवंबर 2010

......उत्तरमधुशाला, कल से आगे ....

और आज......उत्तरमधुशाला की अगले पाँच रुबाइयां .......समर्पित हैं पूरे देश को 


अपने-अपने दुःख के पर्वत 
अपने-अपने पीड़ा सागर /
अपनी-अपनी सबकी हाला
अपनी-अपनी मधुशाला // १६

अपने आँसू तो अपने हैं
भरले औरों से प्याला /
ऐसा नशा चढ़ेगा जिस दिन 
हर ओर दिखेगी मधुशाला // १७

आँसू हैं अनमोल जगत में 
फिर भी खाली तेरा प्याला !
सौदागर के फेर में आके 
नादान ये क्या तूने कर डाला // १८

दुनिया में बाज़ार सजे हैं 
हाथ अमीरों के है प्याला /
सब कुछ अपना बेच न देना 
होश न खोना साकी बाला // १९

कभी किसी कचरे में मिलती
साँसें गिनती नन्हीं बाला /
"देवी" नाम रखा जग नें, पर 
बना दिया साकीबाला // 20

आज यहीं तक ,  ....कल फिर चलेंगे मधुशाला...........आप आयेंगे न ! आइयेगा....     ज़रूर..... 



सोमवार, 15 नवंबर 2010

उत्तर मधुशाला का शेष भाग ......

वादे के अनुरूप उत्तर-मधुशाला का वह अंश जिसे मित्रगण "बस्तर की मधुशाला" के नाम से सुनाने का आग्रह करते रहे हैं ,प्रस्तुत है आज आप सबके लिए भी ......

बारम्बार छली जाती क्यों 
मधुर-मधुर श्रापित "महुवा"  /
बेचारी का दोष बता क्या  
बना दिया मिल सबने "हाला" //

"बस्तर" की "महुवा" को छलकर 
खूब निचोड़ी सबने हाला /
खुद तो मिट गयी पर औरों को 
मस्त बनाती बन कर हाला //

पोर-पोर पीड़ित मधुबाला
रोज़ नचाती मधुशाला /
बैठे-ठाले कोई मतवाला
तोड़ न दे पीकर प्याला //

छली गयी है सदियों से ये
बस्तर की "निश्छल" हाला /
कुछ पीने वाले तो पी गए 
बस्तर की असली मधुशाला //

चारागाह चरे "रखवाला"
भूखा सोये "जंगलवाला"  /
ठौर-ठौर आ हर कोई खोले 
बस्तर में अपनी मधुशाला //
                                                                                                           ...............मधुशाला अभी शेष है .......कल के लिए ......
ब्लॉग पर आते रहने और मधुशाला पर अपने विचारों से अवगत कराते रहने की कृपा करने का अनुरोध स्वीकार करें  .....


रविवार, 14 नवंबर 2010

.....उत्तर-मधुशाला

बस्तर की मधुशाला से पहले कुछ और रंग.........
व्यापारी हैं सारे रिश्ते 
राह निहारे साकीबाला /
कहीं मिले ना सुकूं अगर, तो 
आ जाना तुम  मधुशाला /

उतरे चढ़ कर, ऐसी हाला 
से मत भरना अपना प्याला /
कहीं मिले तो ले आना तुम
भरे  हृदय की धधकी   ज्वाला  /

दाम चुका कर  भी  न  मिलेगी 
मैं  पीता हूँ  जो हाला /
सारे जग की पीड़ा तपकर 
बन पाती है असली हाला /

ताक रहा क्यों इधर-उधर तू
करके अपना खाली प्याला /
तेरे हिस्से में जितनी है 
उतनी पी, हो जा मतवाला /

औरों को कर देती बेसुध
होश में रहकर साकीबाला /
होश संभालो अपने-अपने
जग की रीत है मधुशाला /





उत्तर-मधुशाला

आज से लगभग दो वर्ष पूर्व जब अजय मंडावी नें सागौन के पृष्ठों पर कविवर बच्चन जी की मधुशाला का उत्कीर्णन किया था तो कुछ लोगों के मन में आया -मधुशाला क्यों ? कुछ और नहीं मिला क्या ? तब मुझे आश्चर्य हुआ कि बिना पढ़े ही लोगों नें मधुशाला को क्या से क्या  समझ लिया / मुझे  लगा कि रायपुर में "काष्ठ पर उतरती मधुशाला '' की प्रथम प्रदर्शनी से पूर्व कुछ किया जाना चाहिये / पैसा काफी खर्च हो चुका था ,हमें हर हाल में प्रदर्शनी को सफल बनाना ही था / लोगों को ज़वाब दे-दे कर थक गया , तब मधुशाला के परिचय में मैनें चार रुबाइयां लिखीं / बाद में कुछ लोगों के आग्रह पर इसे भी उत्कीर्णित किया गया  और प्रदर्शनी में रखा गया /  धीरे-धीरे मधुशाला का नशा मुझ पर चढ़ता गया और रूबाइयों की संख्या बढ़ती  चली गयी / उसी चिर- परिचित शैली में कविवर हरिवंश जी की आत्मा से अपने  इस दुस्साहस  के लिए  क्षमा याचना के साथ आपके लिए फिलहाल प्रस्तुत हैं  -  ये  पाँच रुबाइयां ......


जीवन-दर्शन की शाला ये 
राह दिखाती ''मधुशाला'' /
विष-अमृत दोनों हैं जग में 
चाहे जिस से भर लो प्याला /

प्यास बुझाने भटक रहे सब 
पर मिल पाती ना ये हाला /
जान-बूझ कर हम भटके हैं 
या खोई है मधुशाला /

थोड़ी प्यास बची रह जाए 
इतना ही मेरा भरना प्याला /
रोज़ पिलाने फिर तुम मुझको 
ले ''मधु'' आती रहना बाला /

चुपके-चुपके, धीरे-धीरे
पीते रहना ग़म का प्याला /
मिले अगर ना कोई साथी तो 
साथ निभाती ''मधुशाला'' /

थोड़ी सी मीरा नें पी थी 
थोड़ी सी पी राधा नें /
बिना पिए कोई लौट न पाए 
जो आजाये मधुशाला /


एक बस्तरिहा जब मधुशाला जैसे विषय पर लेखनी को सम्मान देने खड़ा होगा तो बस्तर को कैसे भुला सकेगा?
लिहाजा ,अगली पोस्ट में ''बस्तर की मधुशाला ''  
तब तक के लिए शुभ -रात्रि ....  

गुरुवार, 11 नवंबर 2010

प्यारी गौरैया !

मेरी   प्यारी  गौरैया !  
गलती  हमारी  ही थी .......
तुम तो आतीं थीं रोज़
गीत गाने .....बच्चों को फुसलाने .....
उनके और अपने  हिस्से का भात खाने ..... 
हमीं नें नहीं आने दिया तुम्हें अपने घर में /
बसने ही नहीं दिया घर के किसी कोने में 
जब कि हक था तुम्हारा उस पर.....
न जाने कितनी सदियों से /
तुम्हारे घोसले के तिनकों से 
कहीं गंदा न हो जाए हमारा घर, 
अपना  घर साफ़ रखने की जिद में 
उजड़ गया तुम्हारा घर / 
तुम्हारे प्रजनन को इतना महत्वहीन समझा हमने 
कितनी बड़ी भूल थी यह ........
अक्षम्य भूल ......
अब पश्चाताप होता है, 
बच्चे तरस गए हैं तुम्हें देखने के लिए...... 
मैं उन्हें कैसे बताऊँ .........
कि रोज़ सुबह सूरज के जगने से पहले 
खुद जगकर........ 
हम सबको जगा जातीं थीं तुम....
गाते हुए भोर का गीत /
................
उड़ जाती थीं फुर्र से कहीं दूर 
लौट आती थीं दोपहर से पहले 
बाबा के खाने के समय तक ........ 
उनके खाने में तुम्हारा भी हिस्सा जो होता था /
मैं उन्हें कैसे बताऊँ..........   
कि कितने सुन्दर होते हैं तुम्हारे पंख ....
तुम्हारी  फुदक-फुदक कर दाना चुंगने की अदा .....
तुम्हारी प्यारी गुस्ताख हरकतें..... 
आईने में अपनी ही शक्ल से 
चोंच लड़ा-लड़ा कर थक जाना 
और फिर खीझ कर फुर्र से उड़ जाना  /
....................
तिनका-तिनका जोड़ कर 
आले में ..........या आईने के पीछे 
घोंसला बनाने की तल्लीनता 
जी-तोड़ मेहनत, 
......और फिर
गुलाबी मुह खोले 
नन्हें बच्चों को भात का दाना चुंगाने में बरसती ममता / 
गर्मी में .....मिट्टी के प्याले में रखे पानी को 
चौंक -चौंक कर...डरते-डरते पीना /
धूल में लोट-लोट कर नहाना......... 
देख-देख कर खुश होते थे बाबा 
गौरैया धूल में नहा रही है ........
ज़रूर ........बरसने वाला है पानी /
कैसे बताऊँ मैं यह सब ..........अपने बच्चों को 
जिन्होंने देखी नहीं आज तक एक गौरैया /
उफ़ .....  
बहुत याद आती है तुम्हारी
प्यारी गौरैया !
मुझे माफ़ कर दो ना ,
देखो, मैंने खोल दी हैं अपनी सारी खिड़कियाँ 
और रोशनदान भी /
आकर कहीं भी घोंसला बनाओ
अब तुम्हें कोई नहीं भगाएगा
कभी नहीं भगाएगा 
तुम वापस आओगी ना !

  

गुरुवार, 4 नवंबर 2010

एक दीप ...

आओ जलाएं 
प्रकाश पर्व पर 
एक दीप....
देश के शहीदों के नाम ,
एक दीप .......
माँ सरस्वती के नाम ,
और एक दीप ......
उन कन्या भ्रूणों के नाम 
जो देख नहीं सकीं कभी
प्रकाश की एक भी किरण /
आओ जलाएं दिए 
और करें यह कामना
कि विद्या धन से 
सदा आलोकित रहें
हम, हमारा  समाज 
और यह देश / 




मंगलवार, 2 नवंबर 2010

मुखौटे बड़े काम के हैं

बहुत सहज है
कर देना 
औरों पर दोषारोपण 
पर
सच तो यह है 
कि घात लगाकर बैठे हैं 
हम सब /
मिलते ही अवसर ज़रा सा
लुप्त हो जाते हैं हमारे 
सारे आदर्श /
तब
नहीं रह पाते हम 
दार्शनिक.....
धार्मिक.....
और चरित्रवान....
और दिनों की तरह /
ये मुखौटे तो तभी तक हैं
जबतक 
मिलते नहीं अवसर /


बहती गंगा में हाथ धोते समय
कभी......कहीं
द्वन्द तक नहीं होता मन में
और
बड़े मज़े से 
इसी द्वैत में जी लेते हैं हम /
अन्दर 
हमारा 'मैं' है
और ऊपर
मेरा 'हम' /
कुशल नट की तरह
संतुलन बनाए रखने में 
सिद्धहस्त हैं हम /
सचमुच,
मुखौटे बड़े काम के हैं /
मैं इस द्वैताचार को
अक्सर देखा करता हूँ
और खोजता रहता हूँ
इन सबके बीच 
अपना गौरवपूर्ण इतिहास
जो मुझे 
कहीं दिखाई नहीं देता /
पिछले दिनों
जब आतंकी हमला हुआ था
मुझे लगा था
कोई भी आतंकवाद
इतना खतरनाक नहीं हो सकता 
जितना कि 
हमारा चरित्र /