रविवार, 14 नवंबर 2010

उत्तर-मधुशाला

आज से लगभग दो वर्ष पूर्व जब अजय मंडावी नें सागौन के पृष्ठों पर कविवर बच्चन जी की मधुशाला का उत्कीर्णन किया था तो कुछ लोगों के मन में आया -मधुशाला क्यों ? कुछ और नहीं मिला क्या ? तब मुझे आश्चर्य हुआ कि बिना पढ़े ही लोगों नें मधुशाला को क्या से क्या  समझ लिया / मुझे  लगा कि रायपुर में "काष्ठ पर उतरती मधुशाला '' की प्रथम प्रदर्शनी से पूर्व कुछ किया जाना चाहिये / पैसा काफी खर्च हो चुका था ,हमें हर हाल में प्रदर्शनी को सफल बनाना ही था / लोगों को ज़वाब दे-दे कर थक गया , तब मधुशाला के परिचय में मैनें चार रुबाइयां लिखीं / बाद में कुछ लोगों के आग्रह पर इसे भी उत्कीर्णित किया गया  और प्रदर्शनी में रखा गया /  धीरे-धीरे मधुशाला का नशा मुझ पर चढ़ता गया और रूबाइयों की संख्या बढ़ती  चली गयी / उसी चिर- परिचित शैली में कविवर हरिवंश जी की आत्मा से अपने  इस दुस्साहस  के लिए  क्षमा याचना के साथ आपके लिए फिलहाल प्रस्तुत हैं  -  ये  पाँच रुबाइयां ......


जीवन-दर्शन की शाला ये 
राह दिखाती ''मधुशाला'' /
विष-अमृत दोनों हैं जग में 
चाहे जिस से भर लो प्याला /

प्यास बुझाने भटक रहे सब 
पर मिल पाती ना ये हाला /
जान-बूझ कर हम भटके हैं 
या खोई है मधुशाला /

थोड़ी प्यास बची रह जाए 
इतना ही मेरा भरना प्याला /
रोज़ पिलाने फिर तुम मुझको 
ले ''मधु'' आती रहना बाला /

चुपके-चुपके, धीरे-धीरे
पीते रहना ग़म का प्याला /
मिले अगर ना कोई साथी तो 
साथ निभाती ''मधुशाला'' /

थोड़ी सी मीरा नें पी थी 
थोड़ी सी पी राधा नें /
बिना पिए कोई लौट न पाए 
जो आजाये मधुशाला /


एक बस्तरिहा जब मधुशाला जैसे विषय पर लेखनी को सम्मान देने खड़ा होगा तो बस्तर को कैसे भुला सकेगा?
लिहाजा ,अगली पोस्ट में ''बस्तर की मधुशाला ''  
तब तक के लिए शुभ -रात्रि ....  

1 टिप्पणी:

  1. इस सुन्‍दर मधुशाला के लिए धन्‍यवाद, अगली पोस्‍ट का इंतजार है।

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टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.