अभी तक जितनी रुबाइयां लिखीं ......आपको समर्पित कर चुका हूँ . मधुशाला के प्रतीक-पात्रों का कई रूपों में प्रयोग करने का प्रयास रहा है मेरा . एक दिन इन सभी पात्रों ने शिकायत की ".......हर किसी नें हमारा स्तेमाल ही किया है ......आपने भी . क्या हम सिर्फ माध्यम ही बने रहेंगे ........हमारे दर्द को पूछा है आज तक किसी नें ? क्या हमारा अपना कोई अस्तित्व नहीं ?"
बात सही थी ...सो हमें सोचना पड़ा.......फिर ख़याल आया ...कम से कम पूछें तो सही ....कुछ जानें तो सही इनके बारे में ...... तो इन्होंनें अपनी बात कुछ यूँ रखी हमारे सामने -
रहकर हाला के संग भी ना
डूब सका उसमें कोई प्याला /
सबको रंगती साकीबाला
बैरागी पर "मधुशाला" //
नहीं किसी की फिर भी सबकी
मैं तो चेरी सारे जग की /
कुछ पल को मैं ख़ास तुम्हारी
भूली-बिसरी "साकीबाला" //
अपनापन मैं खोज रहा था
अधरों तक जा वापस आया /
प्यास बुझाई सबकी पर, मैं
रहा अंत में रीता "प्याला" //
कितने भी हों दुर्गुण पर, कोई
मुझे न चाहे हो न सकेगा /
प्यास बुझाकर भी हूँ वर्जित
मैं हूँ सबकी प्यारी "हाला" //
कुछ पल को मैं ख़ास तुम्हारी
जवाब देंहटाएंभूली-बिसरी "साकीबाला" ...
---
khoobsurat panktiyan .
.
कार्तिक पूर्णिमा एवं प्रकाश उत्सव की आपको बहुत बहुत बधाई !
जवाब देंहटाएं