भूख और प्राण रक्षा के बाद आदिम युग के मानव की तीसरी समस्या थी संघर्ष विहीन यौन सम्बंधों की स्थापना. उन्होंने देखा था मानवेतर प्राणियों में यौन सम्बंधों के लिए खूनी संघर्ष. प्रारम्भ में तो उन्होंने भी वैसा ही किया पर शीघ्र ही उसके दुष्परिणामों से उनका विवेक जागा और आपसी समझ से एक समझौता किया गया - संघर्ष विहीन यौन सम्बंधों का समझौता. तब के आकार लेते मानव समाज में सामाजिक मूल्यों की एक और सशक्त कड़ी जुड़ गयी. आदिम युग का मानव समाज और भी सशक्त हुआ. सामाजिक ढांचा सुदृढ़ होता गया और संघर्ष-मुक्त यौन सम्बंधों की आवश्यकता के समाधान नें एक परम्परा को जन्म दिया. धीरे-धीरे उसे संस्कारित किया गया ....रंजित किया गया. पर यह सब कुछ स्वाभाविक रूप में ही विकसित होता रहा ....जैसे कि जंगल में फूल खिल रहे हों.
तब तक वर्जनाएं नहीं थीं, समाज के विकास के साथ-साथ ही जन्म हुआ वर्जनाओं का. और फिर तो विकास के न जाने कितने नकारात्मक पक्ष बनते चले गए. संघर्ष-मुक्त यौन सम्बंधों की आदिम युग की यह संस्कारित परम्परा धीरे-धीरे नृत्य और गीत से रंजित होती हुई निरंतर समृद्ध होती रही. .....इसकी जड़ें वनवासी समाज में गहरी ...और गहरी होती चली गयीं. इसीका वर्त्तमान स्वरूप है "नृत्य-यात्रा". वर्जनाओं से भरे-पूरे आधुनिक समाज में यौन-विकृतियों व अपराधों की कमी नहीं है .....वहीं वनवासी समाज में न कोई वर्जना है न कोई विकृति. इनकी नृत्य यात्रा तो एक उत्सव है...अनुशासन का पर्व है ...संस्कारों का प्रशिक्षण है ...जीवन साथी की खोज है ....यौन शिक्षा का माध्यम है ......और है .....सामाजिक संबंधों को सशक्त बनाने वाली एक मौलिक सीमेंट.
नृत्य सभी प्राणियों की सहज-स्वाभाविक एवं उल्लासमयी अभिव्यक्ति है. न केवल जीव-जगत अपितु स्थूल पिंडों से भरे इस ब्रह्माण्ड की रचना और अस्तित्व भी नृत्य के बिना अकल्पनीय है. ग्रहों की गति, सूक्ष्म अणुओं में ब्राउनियन मूवमेंट, परमाणुओं में इलेक्ट्राँस का कत्थक, जड़ पदार्थों का यौगिक बनना या अपघटित होना, ऋतुओं की निर्धारित समयांतराल पर आवृतियाँ, नन्हें बीजों का अंकुरण, कलियों का प्रस्फुटन .........कहाँ नहीं है नृत्य ! सच पूछो तो यह सृष्टि भी आपने आप में एक नृत्य ही तो है. प्रकृति-पुत्रों नें नृत्य की सार्थकता और अस्तित्व को समझा और इसे आपने जीवन में अपनाकर इसकी महत्ता को स्वीकार कर लिया. छत्तीसगढ़ के वनवासियों की नृत्य-यात्राएं अद्भुत हैं ....आनंद और उल्लास से भर देने वाली हैं. वे प्रकृति के साथ ताल मिलाते हुए नृत्य करते हैं ...उनकी हर थिरकन में जीवन का उत्सव है ...आनंद है और सन्देश है तथाकथित "सभ्य और विकसित " लोगों के लिए ...कि आगे आओ और हमारे निश्छल-निर्मल गीत-संगीत-नृत्य को एक बार अपनाकर तो देखो और खोज लो उस आनंद को जिसके लिए तरस रहे हो तुम सब.
नृत्य यात्रा की चर्चा से पूर्व "घोटुल" के बारे में थोड़ी सी चर्चा कर लेना आवश्यक है. आदिवासी संस्कृति में घोटुल का एक प्रमुख स्थान है. बहुत समय तक तो घोटुल शेष दुनिया के लिए रहस्य ही बने रहे . लोग अटकलें लगाते रहे और वनवासी इन सबसे बेखबर अपने घोटुल में मस्त अपनी सांस्कृतिक व सामाजिक शुचिता को समृद्ध करते रहे. घोटुल एक ऐसी सामाजिक संस्था है जहाँ स्त्री-पुरुष के मिथकों, समस्यायों, संबंधों और गूढ़ यौन रहस्यों का सर्वस्वीकृत समाधान होता है. यह संस्कार शाला है वनवासियों की. इसके बिना इनका जीवन अधूरा है. संस्कार, शिक्षा, कला, नृत्य-गीत-संगीत, सामाजिक सम्बन्ध, आत्म निर्भरता ...सभी कुछ तो सीखते हैं ये प्रकृति पुत्र इसी घोटुल में. ये घोटुल ही हैं ज़ो नृत्य यात्राओं के अनंतर उन्हें रात्रि विश्राम के लिए आश्रय उपलब्ध कराते हैं. 'घोटुल' की स्थापना वनवासियों के उत्कृष्ट सामाजिक चिंतन का परिणाम है .....एक बेहतरीन सामाजिक व्यवस्था है जहाँ नियम हैं .....परम्पराएं हैं .....सम्मान है ...और हैं तमाम मौलिक जिज्ञासाओं के समाधान.
वर्ष में दो बार - कार्तिक और पूस में आयोजित होने वाली नृत्य यात्राओं का सम्बन्ध फसलों से भी है. खेतों की फसल पक कर जब घर आ जाती है और वनवासी समुदाय कृषि-कर्म से निवृत्त हो चुके होते हैं तो नयी उपज का उल्लास उनके नृत्य में और भी कई रंग भर देने में सहायक होता है. प्रथम नृत्य यात्रा कार्तिक माह में दीपपर्व को समर्पित होने के कारण "देवाड़-एंदाना" नाम से जानी जाती है. इस यात्रा में केवल अविवाहित नव-युवतियां, जिन्हें "मोटियारिन" कहा जाता है, ही शामिल हो सकती हैं.
रंग-बिरंगे किन्तु सादे परिधानों में सजी-धजी, फूलों और छोटी-छोटी कंघियों को बालों में खोंसे अविवाहित प्रकृति-बालाओं के नृत्य समूह की प्रमुखनेत्री "बेलोसा" के नेतृत्व में मोटियारिनों का दल तैयार होकर गाँव के गायता से अनुमति प्राप्त करने के पश्चात ही यात्रा हेतु प्रस्थान करता है. पंद्रह से बीस दिन तक चलने वाली इस यात्रा के बाद गाँव वापस आने पर पुनः इन्हें गायता को अपनी उपस्थिति देनी पड़ती है. समाज की सुव्यवस्था हेतु आवश्यक है यह.
ग्राम-गायता से अनुमति प्राप्त मोटियारिनों का सजा-धजा नृत्य दल एक गाँव से दूसरे गाँव की यात्रा करता है. मध्याह्न में किसी प्राकृतिक जल स्रोत के समीप ठहरकर भोजन एवं विश्रामादि से निवृत्त हो यह दल आगे की यात्रा हेतु प्रस्थान करता है. रात्रि-विश्राम किसी गाँव के घोटुल में होता है जहाँ के अविवाहित युवकों, जिन्हें "चेलिक" कहते हैं, द्वारा मोटियारिनों का स्वागत किया जाता है. घोटुल में सारी रात मांदर की थाप पर नृत्य होता रहता है जिसमें मोटियारिनें दीवाली की खुशी में हुल्की पाटा और मंजीरे के साथ चिट्कुल पाटा गाकर नृत्य करती हैं. गोंडी भाषा में पाटा का अर्थ गीत होता है. इन गीतों के माध्यम से उल्लास के साथ सामाजिक सन्देश और शुभकामनाएं दी जाती हैं. वाद्ययंत्रों में मांदर के अतिरिक्त काष्ठ निर्मित प्राचीन शैली के टोहे, कुडुरका, किकिड़ एवं तुड़मुड़ी का उपयोग किया जाता है. प्रकृति-पुत्र इन सरल से दिखने वाले यंत्रों से गज़ब की ध्वनियाँ उत्पन्न कर लेने में माहिर होते हैं. अद्भुत बात यह है कि साधारण कोदो, कुटकी, मड़िया, चावल आदि खाकर तृप्त होने और लांदा के नशे के बाद भी ये लोग असंयमित नहीं होते. रात भर संस्कारशाला में मौज-मस्ती, आपसी चुहुल, हास-परिहास और मस्ती भरे गीतों के बीच बहुत कुछ सीखते हुए यह नृत्य दल भोर होने पर हर घर से अन्नदान प्राप्त कर बांस की बनी डलियों में रख अगले गाँव की ओर प्रस्थान करता है. घुटनों तक लाल-पीली साड़ी पहने, बालों में गेंदा के फूल खोंसे मोटियारिनों का दल पंक्तिबद्ध हो जब यात्रा पर निकलता है तो जंगल में एक अलग ही रौनक छा जाती है.
मोटियारिनों के देवाड़ एंदाना नृत्य के पश्चात बारी आती है चेलिकों की कोलांग नृत्य यात्रा की . पूस माह में फसल कटने के पश्चात परम्परानुसार ग्राम के गायता से अनुमति प्राप्त कर अविवाहित नवयुवकों का नृत्य दल निकलता है मोटियारिनों के गाँवों की ओर. दो डंडों के साथ नृत्य करने के कारण इस नृत्य यात्रा को "कोलांग" एवं पूस माह में होने के कारण "पूस-कोलांग" भी कहते हैं. नृत्य यात्रा हेतु चेलिकों का चयन किया जाता है. चयनित लोग गाँव के "घोटुल गायता" और "मांझी" के साथ ग्राम-देवता को लेकर ग्राम-देवी के स्थान -"जिमीदारिन" में एकत्र होते हैं जहाँ विधि-विधान से ग्राम-देवी का आह्वान किया जाता है एवं देवी से अनुमति लेकर नृत्य यात्रा प्रारम्भ की जाती है. ग्राम के गायता किसी कुशल पाटा गुरु के नेतृत्व में चेलिकों की टोली को गाँव की सरहद तक छोड़ने जाते हैं. गाँव-गाँव में भ्रमण करते हुए सभी चेलिक ....."पूसा कोला-कोला दादा पूसा कोला रोय" के साथ नृत्य का प्रारम्भ करते हैं. चेलिक सिर पर सफ़ेद साफा बांधते हैं जिसमें फूलों के साथ कंघी और किसी चिड़िया के सफ़ेद पंख खोंसे हुए रहते हैं, कानों में बाली, हाथों में चमकते हुए कड़े और गले में रंग-बिरंगे पत्थरों की माला धारण किये इन युवकों का सादगी भरा श्रृंगार मनमोह लेने वाला होता है. नृत्य के समय ये लोग शेर, हिरन, घोड़े, जंगली सुअर आदि के मुखौटों का प्रयोग करते हैं. नृत्य-दल जिस गाँव में पहुंचता है वहां की मोटियारिनें इनका स्वागत करती हैं. रात्रि-विश्राम हेतु घोटुल का आश्रय लिया जाता है. जहाँ पहले की तरह चेलिक और मोटियारिनें मिल कर समूह नृत्य के साथ हारपाटा गीत गाते हैं. अगली सुबह चेलिकों द्वारा गाँव के मुख्य चौराहे पर कोलांग नृत्य किया जाता है. नृत्य के अनन्तर मंडली के बीच नायक द्वारा एक सिक्का या मुंदरी रखी जाती है जिसे नृत्य करते घेरे को तोड़कर किसी मोटियारिन को उठाकर लाना होता है. यह एक रोचक खेल होता है, जिसमें चेलिक मोटियारिन को मंडल तोड़ने से रोकने का भरपूर प्रयास करते हैं ...यहाँ तक कि बेचारी को चेलकों के मुक्के भी खाने पड़ते हैं, तथापि जीत तो अंततः मोटियारिन की ही होती है किन्तु ख़ूब छक चुकने के बाद ही. नृत्य के बाद इस दल को अन्नदान देकर विदा किया जाता है. लगभग एक माह तक चलने वाली इस यात्रा में प्राप्त अन्न का उपयोग "हेसा" पर्व में सामूहिक भोज हेतु किया जाता है.
नृत्य के अनन्तर "अदु-वदु यायाल गो" कहकर मातृ-शक्ति का आह्वान और प्राकृतिक शक्तियों से साक्षात्कार इन्हें प्रकृति और आध्यात्म से जोड़ने का काम करते हैं. वनवासियों की इन नृत्य-यात्राओं के कुछ और भी विशेष पहलू हैं. -एक गाँव से दूसरे गाँव की यात्रा के अनन्तर इन्हें विभिन्न अनुभव प्राप्त होते हैं, जिससे नयी पीढी के लोग आत्म निर्भरता और सामाजिक भाईचारा का पाठ सीखते हैं. इस बीच इन्हें बहुत अनुशासित रहना होता है. ये किसी गृहस्थ की देहरी भी नहीं लांघ सकते. कच्चे अन्न के अतिरिक्त उनसे कुछ ले भी नहीं सकते. यानी अपने भोजनादि एवं अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति की व्यवस्था स्वयं इन्हें ही करनी होती है. कई दिन-रात एक साथ रहने से इनमें आपसी प्रेम भी प्रगाढ़ होता है और गाँव की एकता को एक सुदृढ़ आधार प्राप्त होता है. घोटुल में विपरीत लिंगी के सान्निद्य में रहकर यौन-शिक्षा के साथ-साथ यौन-अनुशासन का पाठ सीखने का भी दुर्लभ अवसर प्राप्त होता है. इसके विपरीत हमारा सभ्य समाज अपनी वर्जनाओं के साथ न जाने कितनी कुंठाओं- विकृतियों को लिए आत्म मुग्धता का जीवन जी रहा है.
घोटुल संस्कृति सभ्य समाज को बहुत कुछ मंथन करने के लिए प्रेरित करती है. हमें पुनर्विचार करना होगा कि यौन-विषयों को वर्ज्य घोषित कर कहीं हम भटक तो नहीं गए ? वर्जनाओं के समय विकल्प की व्यवस्था करना हम भूल गए, परिणाम हम सबके सामने है. नए-नए स्वरूपों में फैलती जा रही वैश्या-वृत्ति, यौन शोषण, बलात्कार की बढ़ती घटनाएँ, रक्त-संबंधों एवं रिश्तेदारों द्वारा यौन मर्यादाओं का उल्लंघन, छोटे से लेकर उच्च स्तर तक बढ़ती जा रही यौन उत्पीडन की घटनाएँ ..... बहु आयामी होती यौन समस्याएं ....और इन सबके बीच रक्षा का समाधान तलाशती आज की सक्षम होकर भी अबला बनी नारी समाज से किसी बेहतरीन व्यवस्था की आशा में है. क्या मर्यादा के साथ इसे सहज-स्वाभाविक रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता ? आज हम यौन-शिक्षा के अधकचरे ज्ञान के साथ अनेकों विकृतियाँ लिए घूम रहे हैं. उच्च-शिक्षित ...यहाँ तक कि चिकित्सा-विज्ञान के स्नातक भी यौन-शिक्षा के किसी स्वीकृत व मान्य स्रोत के अभाव में अपना प्रारम्भिक यौन ज्ञान अन्य लोगों की तरह ही विकृत और अधकचरे रूप में प्राप्त करने के लिए बाध्य हैं. क्या हमारे सभ्य समाज में भी घोटुल संस्कृति स्थापित करने की आवश्यकता है ?
आज की अंतिम बात, बड़े दर्द के साथ .........आधुनिक शिक्षा का जहाँ-जहाँ प्रचार-प्रसार हुआ उसका पहला प्रभाव तो लोगों में अपनी पुरातन संस्कृति के प्रति हीन भावना को विकसित करने के रूप में पड़ा है. जनजातियाँ भी इसकी अपवाद नहीं हैं. आधुनिक शिक्षा के साथ-साथ नक्सली आतंक नें भी इस जनजातीय परम्परा पर कुठाराघात ही किया है. आज घोटुल मृतप्राय पड़े हैं ....और नृत्य यात्रा अपने अवसान की ओर है. यदि इन परम्पराओं को पुनर्जीवित कर संरक्षित न किया गया तो एक संस्कृति सदा के लिए समाप्त हो जायेगी.
आइये, आज हम भी इस गीत को गुगुनाते हुए यहाँ से प्रस्थान करें -
...........पहलीर पाटा बोना लयोर,
पहलीर डांका बोना रोय
........................
रिलो रिलो .....री री .....रिलो रिलो
मोटियारिनों के देवाड़ एंदाना नृत्य के पश्चात बारी आती है चेलिकों की कोलांग नृत्य यात्रा की . पूस माह में फसल कटने के पश्चात परम्परानुसार ग्राम के गायता से अनुमति प्राप्त कर अविवाहित नवयुवकों का नृत्य दल निकलता है मोटियारिनों के गाँवों की ओर. दो डंडों के साथ नृत्य करने के कारण इस नृत्य यात्रा को "कोलांग" एवं पूस माह में होने के कारण "पूस-कोलांग" भी कहते हैं. नृत्य यात्रा हेतु चेलिकों का चयन किया जाता है. चयनित लोग गाँव के "घोटुल गायता" और "मांझी" के साथ ग्राम-देवता को लेकर ग्राम-देवी के स्थान -"जिमीदारिन" में एकत्र होते हैं जहाँ विधि-विधान से ग्राम-देवी का आह्वान किया जाता है एवं देवी से अनुमति लेकर नृत्य यात्रा प्रारम्भ की जाती है. ग्राम के गायता किसी कुशल पाटा गुरु के नेतृत्व में चेलिकों की टोली को गाँव की सरहद तक छोड़ने जाते हैं. गाँव-गाँव में भ्रमण करते हुए सभी चेलिक ....."पूसा कोला-कोला दादा पूसा कोला रोय" के साथ नृत्य का प्रारम्भ करते हैं. चेलिक सिर पर सफ़ेद साफा बांधते हैं जिसमें फूलों के साथ कंघी और किसी चिड़िया के सफ़ेद पंख खोंसे हुए रहते हैं, कानों में बाली, हाथों में चमकते हुए कड़े और गले में रंग-बिरंगे पत्थरों की माला धारण किये इन युवकों का सादगी भरा श्रृंगार मनमोह लेने वाला होता है. नृत्य के समय ये लोग शेर, हिरन, घोड़े, जंगली सुअर आदि के मुखौटों का प्रयोग करते हैं. नृत्य-दल जिस गाँव में पहुंचता है वहां की मोटियारिनें इनका स्वागत करती हैं. रात्रि-विश्राम हेतु घोटुल का आश्रय लिया जाता है. जहाँ पहले की तरह चेलिक और मोटियारिनें मिल कर समूह नृत्य के साथ हारपाटा गीत गाते हैं. अगली सुबह चेलिकों द्वारा गाँव के मुख्य चौराहे पर कोलांग नृत्य किया जाता है. नृत्य के अनन्तर मंडली के बीच नायक द्वारा एक सिक्का या मुंदरी रखी जाती है जिसे नृत्य करते घेरे को तोड़कर किसी मोटियारिन को उठाकर लाना होता है. यह एक रोचक खेल होता है, जिसमें चेलिक मोटियारिन को मंडल तोड़ने से रोकने का भरपूर प्रयास करते हैं ...यहाँ तक कि बेचारी को चेलकों के मुक्के भी खाने पड़ते हैं, तथापि जीत तो अंततः मोटियारिन की ही होती है किन्तु ख़ूब छक चुकने के बाद ही. नृत्य के बाद इस दल को अन्नदान देकर विदा किया जाता है. लगभग एक माह तक चलने वाली इस यात्रा में प्राप्त अन्न का उपयोग "हेसा" पर्व में सामूहिक भोज हेतु किया जाता है.
नृत्य के अनन्तर "अदु-वदु यायाल गो" कहकर मातृ-शक्ति का आह्वान और प्राकृतिक शक्तियों से साक्षात्कार इन्हें प्रकृति और आध्यात्म से जोड़ने का काम करते हैं. वनवासियों की इन नृत्य-यात्राओं के कुछ और भी विशेष पहलू हैं. -एक गाँव से दूसरे गाँव की यात्रा के अनन्तर इन्हें विभिन्न अनुभव प्राप्त होते हैं, जिससे नयी पीढी के लोग आत्म निर्भरता और सामाजिक भाईचारा का पाठ सीखते हैं. इस बीच इन्हें बहुत अनुशासित रहना होता है. ये किसी गृहस्थ की देहरी भी नहीं लांघ सकते. कच्चे अन्न के अतिरिक्त उनसे कुछ ले भी नहीं सकते. यानी अपने भोजनादि एवं अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति की व्यवस्था स्वयं इन्हें ही करनी होती है. कई दिन-रात एक साथ रहने से इनमें आपसी प्रेम भी प्रगाढ़ होता है और गाँव की एकता को एक सुदृढ़ आधार प्राप्त होता है. घोटुल में विपरीत लिंगी के सान्निद्य में रहकर यौन-शिक्षा के साथ-साथ यौन-अनुशासन का पाठ सीखने का भी दुर्लभ अवसर प्राप्त होता है. इसके विपरीत हमारा सभ्य समाज अपनी वर्जनाओं के साथ न जाने कितनी कुंठाओं- विकृतियों को लिए आत्म मुग्धता का जीवन जी रहा है.
घोटुल संस्कृति सभ्य समाज को बहुत कुछ मंथन करने के लिए प्रेरित करती है. हमें पुनर्विचार करना होगा कि यौन-विषयों को वर्ज्य घोषित कर कहीं हम भटक तो नहीं गए ? वर्जनाओं के समय विकल्प की व्यवस्था करना हम भूल गए, परिणाम हम सबके सामने है. नए-नए स्वरूपों में फैलती जा रही वैश्या-वृत्ति, यौन शोषण, बलात्कार की बढ़ती घटनाएँ, रक्त-संबंधों एवं रिश्तेदारों द्वारा यौन मर्यादाओं का उल्लंघन, छोटे से लेकर उच्च स्तर तक बढ़ती जा रही यौन उत्पीडन की घटनाएँ ..... बहु आयामी होती यौन समस्याएं ....और इन सबके बीच रक्षा का समाधान तलाशती आज की सक्षम होकर भी अबला बनी नारी समाज से किसी बेहतरीन व्यवस्था की आशा में है. क्या मर्यादा के साथ इसे सहज-स्वाभाविक रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता ? आज हम यौन-शिक्षा के अधकचरे ज्ञान के साथ अनेकों विकृतियाँ लिए घूम रहे हैं. उच्च-शिक्षित ...यहाँ तक कि चिकित्सा-विज्ञान के स्नातक भी यौन-शिक्षा के किसी स्वीकृत व मान्य स्रोत के अभाव में अपना प्रारम्भिक यौन ज्ञान अन्य लोगों की तरह ही विकृत और अधकचरे रूप में प्राप्त करने के लिए बाध्य हैं. क्या हमारे सभ्य समाज में भी घोटुल संस्कृति स्थापित करने की आवश्यकता है ?
आज की अंतिम बात, बड़े दर्द के साथ .........आधुनिक शिक्षा का जहाँ-जहाँ प्रचार-प्रसार हुआ उसका पहला प्रभाव तो लोगों में अपनी पुरातन संस्कृति के प्रति हीन भावना को विकसित करने के रूप में पड़ा है. जनजातियाँ भी इसकी अपवाद नहीं हैं. आधुनिक शिक्षा के साथ-साथ नक्सली आतंक नें भी इस जनजातीय परम्परा पर कुठाराघात ही किया है. आज घोटुल मृतप्राय पड़े हैं ....और नृत्य यात्रा अपने अवसान की ओर है. यदि इन परम्पराओं को पुनर्जीवित कर संरक्षित न किया गया तो एक संस्कृति सदा के लिए समाप्त हो जायेगी.
आइये, आज हम भी इस गीत को गुगुनाते हुए यहाँ से प्रस्थान करें -
...........पहलीर पाटा बोना लयोर,
पहलीर डांका बोना रोय
........................
रिलो रिलो .....री री .....रिलो रिलो
बढि़या लेख. परम्पराएं समय-अनुकूल और समय-अनुरूप सौंदर्य धारण कर कायम रहेंगी.
जवाब देंहटाएंहे लिंगो देव, बस्तर की महान परम्परांए जीवंत रहे.
जवाब देंहटाएंप्रस्तुति अति सुंदर!
जवाब देंहटाएंमानव कलियुग में सत्य को जानते हुए अपने को असहाय क्यूँ पाता है, ऐसे ही जैसे बाढ़ में बहाए जाते ठूंठ समान?
ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन भारत में किसी काल में, संभवतः अथक प्रयास द्वारा विचार-शून्य स्तिथि पर पहुँच, योगियों ने जो ध्यान लगा जाना, उसीके आधार पर उन्होंने सत युग से कलियुग तक चलने वाले (अथवा प्रतीत होते?) अनंत काल-चक्र को आम आदमी की जानकारी हेतु मानव जीवन के 'सत्य', (अथवा
माया'?), को 'क्षीर सागर मंथन' की कथा, किन्तु 'विष (शून्य) से आरम्भ कर अमृत (अनंत) प्राप्ति' (कलियुग से सत्य युग तक), के माध्यम से सरल शब्दों में प्रस्तुत किया…जो कालान्तर में 'हिन्दू मान्यता' कहलाई गयी क्यूंकि उनकी गणना का आधार सूर्य के चक्र के भीतर ही 'इंदु' अथवा चन्द्रमा के चक्र को उच्चतम स्थान देना था...उन्होंने किसी भी साकार पिंड को दस दिशाओं द्वारा निर्धारित जान मानव को भी शून्य के प्रतिबिम्ब समान, अनंत में से एक, हमारी गैलेक्सी (चक्र समान) के केंद्र में उपस्थित शक्ति द्वारा चालित हमारे सौर-मंडल के ९ सदस्यों के सार से बना विष्णु (नादबिन्दू) का प्रतिरूप जाना ('नवग्रह' और 'अष्ट चक्र' के माध्यम से)...
आदरणीय कौशलेन्द्र जी .
जवाब देंहटाएंऊपर टिपण्णी बाक्स नज़र नहीं आ रहा ....
बनवासियों को इतने करीब से देखना ...और उन्हें समझना ...उनके संरक्षण की सोचना ..
आप जैसा संवदनशील व्यक्ति ही कर सकता है ....
बहुत ही स्तरीय लेखन .....
हीर जी ! टिप्पणी बॉक्स क्यों नज़र नहीं आ रहा है यह मेरी भी समझ में नहीं आ रहा.
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