भगवान् ने पूछा -
इस बार क्या बना कर भेजूँ , होमोसीपियेंस ?
मैने कहा -
ना बाबा ना ..मैं इतना खतरनाक बन कर
नहीं जाऊँगा इस बार .....कुछ और नहीं....बना देते सर !
......तो एवीज ?
...नहीं ..वहाँ भी ताकतवर का खेल चलता है
तो नान-कॉर्डेटा में कुछ ...?
............मैं सोचने लगा ......
तो भगवान् बोले -
अच्छा चलो ..इस बार कोई वायरस या बैक्टीरिया ...?
मैं डर गया, ज़ल्दी से कहा-
नहीं , डॉक्टर पीछे पड़ जायेंगे
.......तो प्लांट किंगडम में कुछ .....?
मैं खुश हो गया,
भगवान् मुस्कराए, बोले-
चलो, मंत्री जी के बंगले का फूल बना देता हूँ
अच्छी मिट्टी, पर्याप्त खाद-पानी
सेवा के लिए माली
सुरक्षा के लिए चौकीदार ...
मैं उदास हो गया
भगवान् ने पूछा - अब क्या हुआ ?
मैंने कहा - तब हर कोई मेरी नहीं
मंत्री जी की तारीफ़ करेगा
कि इतना सुंदर फूल मंत्री जी के बंगले में ही खिल सकता है
हर सुविधा का ठेका ज़ो दे रखा है
..........तो तुम्हीं बताओ न!
भगवान् जी कुछ खीझ से उठे
मैंने कहा -
मुझे जंगल का फूल बना दो इस बार
अपनी दम पर जी कर दिखाऊँगा
तब लोग सिर्फ मेरा ही नाम लेंगे,
कहेंगे- देखो तो ....
जंगल में बिना पानी ..बिना खाद
कैसा खिलखिला रहा है ......और सुविधाभोगी
होमोसीपियेंस को चिढा रहा है
और सचमुच भगवान् ने
बस्तर के जंगल में भेज दिया मुझे
तब से यहीं हूँ
आइये न कभी मिलने.
अपने दम पर खिला फूल अच्छा लगा ....
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग पर आने के लिए आभार
क्षमा प्रार्थी हूँ, कौशलेन्द्र जी, ये मन, यानि मानव मस्तिष्क विचित्र है, कोई भी शब्द सुन उड़ान भरने लगता है, किसी का कम तो किसी का अधिक !...
जवाब देंहटाएं'फूल' से मुझे वो रूस के जार की कथा याद आ गई जिसके दरबार में पोलैंड के राजदूत ने मॉस्को भ्रमण के पश्चात पहले तारीफ कर फिर प्रश्न पूछ ही लिया कि क्यूँ एक जगह जहां वीराने में केवल कुछ झाड़ियाँ ही दिख रही थीं वहाँ सिपाही तैनात थे ? क्या रहस्य था उसका ?,,,
ज़ार ने अपने दरबारियों से जवाब पूछा तो सब मूक खड़े बगलें झांकते रहे,,,पूछताछ के बाद तब ज़ारीना की एक बूढी दासी ने, रहस्योद्घाटन करते, बताया कि उनके दादाजी के काल में, एक दिन उनकी दादी वहां अत्यंत सुंदर फूलों को झाडी में देख पहले तो ख़ुशी से ताली बजा उठी! किन्तु फिर रो पड़ी !,,,उन्होंने बताया कि वीराने में कोई जानवर ही उन्हें नष्ट कर देगा ! ...
तभी से वहाँ दादाजी द्वारा सिपाही तैनात कर दिए गए ! (शायद ऐसे ही जैसे हमारे पूर्वज मानव शरीर को 'नव-ग्रह' के सार से बना जान, हम 'आधुनिक हिन्दू' भी सूर्य से शनि देवता तक की पूजा सदियों से करते चले आ रहे हैं,,, अपने को स्वतंत्र मान !?,,, विशेषकर अंग्रेजों के जाने के बाद ?)...
जे.सी. जी ! जंगल के फूल को नष्ट कर दिए जाने की आशंका उस मनुष्य की है ज़ो ऐसी ही स्थितियों में जीने का अभ्यस्त रहा है ......फूल तो मनुष्य की छाया से भी बचना चाहता है ....मनुष्य बिना किसी अपेक्षा के कोई काम नहीं करता ....फूल को ये अपेक्षाएं पसंद नहीं हैं. ब्लॉग पर आने के लिए साधुवाद !!
जवाब देंहटाएंकमाल है....। बस्तर का ये जंगली फूल कविताएँ तो बडी अच्छी ।लिखता है। वैसे कविता पढ़्कर मेरे ज़ेहन में तो कविता "पुष्प की अभिलाषा" गूँज उठी.........चाह नहीं मैं सुरबाला के गहनों में गूँथा जाऊँ............
जवाब देंहटाएंमन की भावना को खूब अभिव्यक्त किया है आपने। अपनो से कटकर जीना और फिर जीने पर फ़क्र का एहसास गज़ब का है। आभार ब्लॉग बुलेटिन..सलिल दा।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद! मालिनी जी, पाण्डेय बाबा जी!
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