बुधवार, 5 जनवरी 2011

.......न जाने कब से

सुलग-सुलग कर ख़ाक होती रही है 
आहिस्ता-आहिस्ता ........मेरे शहर की शराफ़त
.............न   जाने  कबसे  ! 
सरेआम ....
धुंआ बनकर उड़ती रही है ....
ज़हरीली तम्बाकू पर लिपटी सफ़ेदपोश चेतावनी 
.............न जाने कबसे !

ज़िस्म का भूगोल बन गए हैं सारे "तथ्य "
सर्व विदित होकर भी 
रहस्य ही बना रहता है "सब कुछ".
विस्तृत होते-होते 
शून्य हो गया है 'पाप'
जिसे ओढ़कर 
बड़ी सहजता से भागा जा रहा है ये शहर ..न जाने कबसे !!.

हर खूबसूरत चीज़ 
आते-आते इस शहर की सीमा में 
बन जाती है बुत,
इन्हीं बेजान बुतों से 
धनी होता जा रहा ये 'शहर' 
अब 
अपनी सीमाओं को लांघता.......फैलता जा रहा है 
जहाँ काबिलियत की मोहर खरीदने 
बोलियाँ लगाते हैं कुबेर
और पैमाने 
रद्दी से भी सस्ते में बिकते हैं गली-गली.
इसी भावशून्य शहर में 
बिना किसी भाव के 
बड़ी बेदर्दी से घिसटती रही है 
ये ...अपनी भी ज़िंदगी ....आहिस्ता-आहिस्ता ....न जाने कब से !!

टुकड़े ज़िस्म के .......बड़े महंगे हैं 
मगर ज़िंदगी ? 
पेट भर भोज़न में 
ख़रीद लो जितनी चाहो उतनी.
यहाँ बरसती हैं संवेदनाएं ....बिना वेदना के 
और कचरे के ढेर में पडी रहती हैं 
अभावग्रस्त भावनाएं.

पता चला है .......
मंदिर में बैठी मूर्तियों की 
भंग  हो गयी है आस्था...
अपने ही पुजारी के प्रति
और बेतहाशा दौड़ते यथार्थ सहम कर अचानक .....
कहने लगे हैं आदमी से- 
'रुकने का ठौर
कोई  हो तो बता दो 
किनारे तो क्षितिज में समाये हुए हैं न जाने कब से' .

ख़ासियत यही है इस शहर की
कि सरेआम होती रही है बे-आबरू 
शहर के  इक्के-दुक्के शरीफ़ों की शराफ़त.
टुच्चे 
नसीहतें देने निकले हैं 
और क़ातिल 
फ़ैसले करने लगे हैं सड़क पर.
तुमने तो देखा है मेरे भाई 
न्याय की आँखों पर 
पट्टी बंधी है न जाने कबसे !!

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