मैंने तो माँगी थी
धूप की गुनगुनाहट भर
आग तो नहीं !
फिर क्यों आ गए बहुत से आतिशी शीशे
मेरे
और सूरज के बीच ?
और क्यों बेताब है
हर शीशे से निकला
एक-एक झूठा सूरज
.......सब कुछ ख़ाक कर देने के लिए ?
अब तो
झुण्ड के झुण्ड फैल गए हैं ये सूरज......
पूरी धरती पर
और संभावनाओं के वृक्ष
अपने गर्भ में धारण किये एक बीज,
ज़ो फेंक दिया गया है
रेत में उगने के लिए
जल कर ख़ाक हो रहा है....आहिस्ता....आहिस्ता....
उधर
अपने अस्तित्व की रक्षा में
छटपटा रही है
संभावनाओं के अंकुरित होने की संभावना.
पुष्प पल्लव अभी कल्पना में हैं
और प्रतीक्षा
पश्चिमी क्षितिज पर ...
कहीं खो गयी है
सूरज !
तुम अब भी खामोश हो ???
... behatreen !!
जवाब देंहटाएंएक सकारात्मक सोच से बाहर आती रचना.बहुत-बहुत धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंनिःशब्द करने वाली अभिव्यक्ति!!कौशलेंद्र जी, साधुवाद!!
जवाब देंहटाएं@फिर क्यों आ गए बहुत से आतिशी शीशे.....
जवाब देंहटाएं@और प्रतीक्षा
पश्चिमी क्षितिज पर ...
कहीं खो गयी है
ओह ....अब आपकी रचनायें तारीफ से परे होती जा रही हैं कौशलेन्द्र जी .....
फाइल ...?
जवाब देंहटाएंफ़ैल
आप सभी का बहुत-बहुत धन्यवाद ........हीर जी ! त्रुटि सुधार दी गयी है ......आपका इंगित करना अच्छा लगा .....
जवाब देंहटाएंआगे भी आप सभी के स्नेह की कामना रहेगी ....