पिछले कई सालों से सो रहा है
यह ज्वालामुखी,
.....सोचता हूँ
कभी पूरी धरती ही थी खुद एक ज्वालामुखी
पर आज तो शस्य-श्यामला है
चलो, इस सोये ज्वालामुखी पर बोते हैं
कुछ बीज ........
उगाते हैं कुछ लताएँ.
कुछ दिनों बाद
जब अंगड़ाती हुई मुस्कराएंगी लताएँ
और चहकते हुए खिलेंगे फूल
मैं कहूँगा पूरी दुनिया से
देखो, ज्वालामुखी की राख भी है
कितनी उपजाऊ ....
और खामोशी भी खिलखिला सकती है
.....वक्त आने पर
बस, ज़रूरत है कि ज़ारी रहें हमारी कोशिशें
और थामे रहें उम्मीद का दामन
कोई ज़रूरी नहीं कि होती रहे पुनरावृत्ति
असफलताओं की
हम तो
म्यूटेशन के उस छोटे से प्रतिशत पर भी करते हैं यकीं
ज़ो हो सकता है ....थोड़ा सा फायदेमंद भी
और फिर ......
राख को कुछ तो अवसर दें
अपनी सुगंध फैलाने का .
अद्भुत अभिव्यक्ति है कौशलेंद्र जी!राख को अवसर दें सुगंध फैलाने का! कमाल के भाव हैं, अभिभूत हूँ हृदय तक!
जवाब देंहटाएंसलिल भैया ! धन्यवाद ......इस हौसला अफजाई के लिए.
जवाब देंहटाएंहमारी पृथ्वी आरम्भ में आग का गोला थी, जो भीतर ही भीतर सुलगती आ रही है युगों युगों से,,,ज्वालामुखी विस्फोट निरंतर होते आते हैं कहीं न कहीं,,, और दर्शाते हैं कि कैसे परिवर्तन शील प्रकृति में सतही बदलाव लाने में, बाढ़ में लायी गयी मिटटी समान, ज्वालामुखी की राख भी योगदान देती है - किन्तु पहले पुराने को मिटा, नए को और हरा भरा कर, नए को प्रसन्नता दे, पुराने दुःख भूल!
जवाब देंहटाएंचलो, इस सोये ज्वालामुखी पर बोते हैं
जवाब देंहटाएंकुछ बीज ........
उगाते हैं कुछ लताएँ.
कुछ दिनों बाद
जब अंगड़ाती हुई मुस्कराएंगी लताएँ
आप कोशिश जारी रखें
बीज न भी उगे तो भी उस राख में
संभवत: अपने आपको सुरक्षित समझे ....
बीज तो हम बोते ही रहेंगे हीर जी !
जवाब देंहटाएंक्योंकि ........बीज को
उगना ही होगा .......
बहुत आँसू गिरे हैं वहां
इतनी नमी तो है ही
कि अंकुरित हो सकें वहां
कुछ संभावनाएं ......
स्मित की.
आखिर
राख में भी कम नहीं होती ख़ुश्बू
किसी भी मिट्टी से
हीर जी ! आपने व्याकरण की त्रुटियों की ओर ध्यान आकृष्ट किया ...वह भी अलग से मेल करके .....आपके इस बड़प्पन और संवेदनशीलता को मेरा सादर नमन !
जवाब देंहटाएंएक आशावादी सार्थक रचना ।
जवाब देंहटाएंबढ़िया भाई ।