दिव्या जी ! आप अपसंस्कृति के लिए चिंतित हो रही थीं .....कल फिर एक खबर छपी है -हॉस्टल डे पर १५ जनवरी की रात हमारे शहर कांकेर में छात्र-छात्राओं नें एकल और सामूहिक नृत्य किये .अखबार के अनुसार "लोकप्रिय गीत मुन्नी .....और शीला.....कार्यक्रम में छाये रहे ..... बीच-बीच में हौसला अफजाई के लिए प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों में उच्च पदों पर आसीन अधिकारियों व जनप्रतिनिधियों ने भी छात्र-छात्राओं के साथ ठुमके लगाए" .इसके बाद महिला मंत्री, महिला विधायक , एक और युवा विधायक, अ.ज.जा. आयोग के अध्यक्ष ....कई अधिकारियों, प्रोफेसर्स व अधिवक्ता आदि के नाम उपस्थित लोगों की सूची में दिए हुए हैं. इसमें तीन बातें हैं, १- इन गीतों को लोकप्रिय गीतों के खिताब से नवाज़ा गया, २- नृत्य में छात्रों के साथ छात्राओं नें भी नृत्य किया, ३- कार्यक्रम में ज़िम्मेदार नेता और अधिकारी भी थे.......निश्चित ही अभिवावक भी रहे होंगे.४- हफ्तों पहले से इसकी तैयारी की गयी होगी.
अब विचारणीय यह है कि जिस अपसंस्कृति के लिए ज़िम्मेदार लोगों को चिंतित होना चाहिए था ...वे तो हौसला अफजाई में लगे हुए हैं ......किसी एक को दोषी नहीं ठहराया जा सकता. इसमें अभिवावकों से लेकर हमारी संस्कारहीन शिक्षा का भी पूरा-पूरा योगदान है. अब सवाल यह है कि किया क्या जाय ? कोई इसे रोकना नहीं चाहता ...बढ़ावा देना चाहते हैं लोग. हमारे आपके जैसे कुछ लोग यदि चिंतित होते भी हैं तो उनकी सुनने वाला है कौन ?
यह हमारे बहुमत समाज का प्रतिबिंब है.
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जवाब देंहटाएंकौशलेन्द्र जी ,
चिंतित होना पहली सीढ़ी है । फिर हम सब मिलकर उस पर लिखते हैं, उसका विरोध करते हैं। बहुत लोगों तक हमारी आवाज़ पहुँचती है। ज्यादा से ज्यादा लोग विरोध करेंगे तो ज्यादा जल्दी इन परिस्थियों से निजात पायी जा सकती है।
लेकिन, सच्छे दिल से विरोध होना चाहिए।
एक कटु अनुभव -- जिन लोगों ने मेरे लेख " भारतीय संस्कृति की रक्षा " पर अश्लीलता के विरुद्ध लिखा, उन्हीं लोगों ने दुसरे लेखक की रचना पर अर्धनग्न स्त्री के चित्र को --" बेहतरीन , सजीव प्रस्तुति लिखा "
मैंने आपत्ति दर्ज की तो लेखक मुझसे ही नाराज़ हो गए।
मुझे लगता है लोगों के दो चेहरे हैं।
हाथी के दांत खाने के और , दिखाने के और।
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यदि कोई वैज्ञानिक कारण खोजें तो शायद हम कहें कि पञ्च तत्वों से शरीर बना होने के कारण, और उसमें जल की मात्रा लगभग ७८ % होने से, मानव की प्रकृति भी जल के समान अधिक हो सकती है,,,यानि मन को ऊपर उठने के लिए अतिरिक्त शक्ति, अथवा मन पर नियंत्रण की आवश्यकता,,, नहीं तो जैसे पानी सदैव नीचे की ओर ही बहता है मानवीय मन भी अच्छाई (शैशव काल में शुद्ध) से बुराई की ओर ही जाता है, अथवा नियंत्रण न हो तो इसके नीचे जाने की संभावना रहती है (परीक्षा हेतु प्राकृतिक प्रलोभन की वस्तुओं की उपस्तिथि के कारण अच्छे संस्कारों की आवश्यकता)...इसे प्राचीन ज्ञानियों, योगियों, तपस्वियों, सिद्धों, ऋषि-मुनि, आदि ने काल का प्रभाव जाना,,,यानि समय, युगों, के साथ, अजन्मे एवं अनंत ईश्वर का प्रतिरूप होते हुए भी, घटती प्रतीत होती मानव क्षमता, सतयुग में १०० % से कलयुग के अंत में में शून्य (माया के कारण! ज्ञानेन्द्रियों में दोष के चलते...
जवाब देंहटाएंफिजियोलोजिकल-फिलोसोफी की दृष्टि से आपका विश्लेषण बिलकुल सही है .......आज कलियुग में प्रज्ञापराध का भीषण दौर चल रहा है ....हित में अहित और अहित में हित दिखाई दे रहा है लोगों को. पर उत्तरोत्तर इस क्षरण को रोकने के उत्तरदायित्व का भार भी इसी कलियुग के लोगों का ही है .....
जवाब देंहटाएंजे.सी जी ! आपके विश्लेषण से जो अनलिखा रह गया था वह पूरा हो गया ......आपका बहुत-बहुत आभार ......आते रहिएगा.