मंगलवार, 1 मार्च 2011

समय



उलझी पहेली को सुलझाए 
कौन है जो मुझे राज बताये .

जग से तू या तुझसे जग ये 
ठहरा है या चलता जाये .

राग न माने द्वेष न जाने 
निष्ठुर है तू जग कहता ये  .

कभी तुझे हम ना पहचानें 
कभी हमें तू  ना पहचाने .


व्यापक फिर भी कितना दुर्लभ 
खोजूँ तो भी मिल ना पाए .

पल में मोहित पल में दुविधा
कैसा जादू तू दिखलाये .

कभी कहे मन तू रुक जाये 
कभी कहे तू ज़ल्दी जाये .

कभी बरस बीते कुछ क्षण में 
कभी कोई क्षण बीत न पाए .

कभी जनम तू कभी मरण तू 
कभी मिलन तू कभी विरह है .

कभी तू जय है कभी पराजय 
कभी दिवस तो कभी निशा है .

कभी अँधेरे में दीपक बन 
तू ही सबको राह दिखाए .

18 टिप्‍पणियां:

  1. समय के महत्वको कौन नकार सकता है.. और इस समय की चादर में सिमटी हर घड़ी को समेटा है आपने अपने इस गीत में!!

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  2. यदि सत्य पर सीधे पहुंचना हो तो रचयिता को निराकार नादबिन्दू जानें,,,
    जो शून्य काल और स्थान से जुड़ा होने के कारण अजन्मा और अनंत है...
    जिस कारण श्रृष्टि की रचना और उस का ध्वंस शून्य काल में ही होना निश्चित था !
    जो काल मानव पर लागू होता है वो ब्रह्माण्ड और उसके सार सौर - मंडल रुपी मायावी घडी के कारण है,,,
    दुःख की घडी लम्बी, सुख की छोटी (अनंत और शून्य के प्रतिबिम्ब) !

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  3. कुछ उलझाव सा लगा .....
    क्या बात है डॉ साहब ......?

    दुःख की घडी लम्बी, सुख की छोटी....

    है तो सही न .....?

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  4. हे देवी ! इसमें कदाचित भी उलझाव नहीं है .....यह कोई दिव्य रहस्य भी नहीं है .......मात्र भोगा हुआ सांसारिक सत्य है ....दुःख काटे नहीं कटता ....और सुख का लंबा समय भी कब गुजर गया पता ही नहीं चलता. काल के प्रति हमारी अनुभूति परिस्थिति सापेक्ष होती है.
    दिक् और काल पर मनुष्य का चिंतन बहुत ही गहन हुआ है......मैंने एक साधारण मनुष्य की हैसियत से काल के प्रति उसकी जिज्ञासा और अनुभूति को दर्शाने का प्रयास किया है.

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  5. दुःख और सुख मानसिक अनुभूतियाँ हैं, सिक्के के दो पहलू जैसे, द्वैतवाद से उत्पन्न माया के कारण जिससे आम आदमी प्रभावित होता रहता है,,, उदाहरण के लिए, एक आम आदमी शुक्र अथवा शनिवार की शाम को क्षणिक सुख महसूस करता है एक या दो दिन के अवकाश की पूर्वसंध्या पर, किन्तु शनि और रविवार का अधिकतर आनंद नही उठा पाता घरेलु कार्यों में फंस, सोमवार के बढ़ते कदमों की तेज होती आहट को सुन जैसे...और सत्य तक पहुंचना योगियों, सिद्धों, आदि का काम है जो तपस्या द्वारा मन पर नियंत्रण करने में सक्षम हो सके हों अपने एक जीवन काल में कभी भी और कहीं भी, सिक्के के तीसरे, बीच में स्थित रिक्त निर्गुण स्थान में रहते जैसे (जिसके बिना सिक्के का अस्तित्व ही संभव नहीं)...

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  6. कभी तू जय है कभी पराजय
    कभी दिवस तो कभी निशा है .
    कभी अँधेरे में दीपक बन
    तू ही सबको राह दिखाए .....

    सुंदर भावाभिव्यक्ति...बहुत ही गहरे भाव !

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  7. कभी तू जय है कभी पराजय
    कभी दिवस तो कभी निशा है .

    कभी अँधेरे में दीपक बन
    तू ही सबको राह दिखाए .

    वाह सुन्दर चित्रण किया है आपने. बधाई स्वीकारें

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  8. रचना पढ़कर एक पल के लिये समय ठहर सा गया.......विरोधाभासी शब्दों का सुन्दर प्रयोग........हर मानव मन के साथ समय के साक्षात्कार को भाषा देती सुन्दर रचना.........


    कभी बरस बीते कुछ क्षण में
    कभी कोई क्षण बीत न पाए.......!


    सर्वमान्य........फिर भी लाजवाब !........बधाई.!

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  9. पल में मोहित
    ha ha ha ,......mujhe to yahii line sab se achchi lii............baba ..aapne apne daamaad ka naam pryog kr liyaa aur beti ko bhul gye.,..hmmmmmmmmm
    ha ha ha...
    bas yuhin mazaaak kr rhi hun baba..........
    sach kaha baba aapne...swyam bhogaa huya sty hi aisii rchnaao ka srijan krwaa skta he...bahut saarthak rchna rchi he aapne..bdhaayi

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  10. चल पगली ......अपनी बेटी को भी कोई भूलता है भला ? तुम पर तो मुझे सदा गर्व रहा है.

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  11. बहुत बहुत बहुत ही सुन्दर चिंतन...

    मन भावनी भावाभिव्यक्ति...

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  12. कभी बरस बीते कुछ क्षण में
    कभी कोई क्षण बीत न पाए .
    क्या बात है कौशेलेन्द्र जी. बहुत सुन्दर.

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  13. स्वागत है आप सब का ....आप सब की टिप्पणियाँ बहुमूल्य होती हैं मेरे लिए ...क्योंकि मैं तो चिकित्सक हूँ .....मेरे विचार आप तक पहुँच जाते हैं तो लेखन सार्थक सा लगता है.
    अवनीश जी !......वन्दना जी ! हमारे जंगल में आपके प्रथम आगमन पर पूरे बस्तर की ओर से आपका हार्दिक स्वागत .....अभिनन्दन स्वीकार करें .

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  14. samay ...sabase balvan...sunder shabdon se aapne iska abhinandan kiya hai...

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  15. काल चक्र चलता ही रहेगा हम हों या न हों ....

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  16. बहुत ही सुन्दर चिंतन| धन्यवाद|

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  17. समय से बढ़कर कुछ नहीं..... गहन अभिव्यक्ति

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टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.