रविवार, 14 दिसंबर 2014

धार्मिक स्वतंत्रता के अर्थ


       भोजन, आवास, और सुरक्षा जीवन की मूलभूत अत्यावश्यकतायें हैं जिनके लिये संघर्ष होते रहे हैं । इन आवश्यकताओं की सुनिश्चितता के लिये कुछ शक्तिशाली लोग कभी राजतंत्र तो कभी लोकतंत्र के सपने दिखाकर स्वेच्छा से ठेके लेते रहे हैं । सभ्यता के विकास के साथ-साथ अवसरवादी लोगों ने भी धर्म के ठेके लेने शुरू कर दिये । भोजन, आवास और सुरक्षा की उपलब्धि के लिये एक सात्विक मार्ग के रूप में “धर्म” का वैचारिक अंकुश तैयार किया गया था किंतु अब मौलिक आवश्यकताओं की सुनिश्चितता के अन्य उपाय खोज लिये गये हैं और धर्म एक ऐसी भौतिक उपलब्धि बन गया है जिसकी प्राप्ति के लिये अधर्म और अनीति के रास्ते प्रशस्त हो चुके हैं । धर्म अब रत्नजड़ित मुकुट हो गया है जिसे पाने के लिये हर अधार्मिक व्यक्ति लालायित है । अधर्म ने धर्म का मुकुट पहनकर अपनी सत्ता को व्यापक कर लिया है । धर्म के नाम पर किये जाने वाले सारे निर्णय अब अधर्म द्वारा किये जाते हैं ।

     धर्म के नाम पर भारत को खण्डित किया गया । पाकिस्तान बना, बांग्लादेश बना और अब मौलिस्तान और कश्मीर बनाने की तैयारी चल रही है । पूरे विश्व में धर्म के नाम पर हिंसा होती रही है ...लोग बटते रहे हैं ...समाज खण्डित होता रहा है .....स्त्रियों के साथ यौनाचार होता रहा है । धर्म के नाम पर वह सब कुछ होता रहा है जो अधार्मिक है । यह धर्म है जिसने लोगों को अपनी मातृभूमि छोड़ने के लिए विवश किया । यह धर्म है जिसने लोगों को अपने ही घर में शरणार्थी बनने पर विवश किया । ब्रितानिया पराधीनता से मुक्ति के बाद भी कश्मीरी पण्डितों को 1990 में अपने ही देश में शरणार्थी बनना पड़ा । धर्म यदि ऐसा विघटनकारी तत्व है जो हिंसा की पीड़ा का मुख्य कारक बन सकता है तो ऐसे धर्म की आवश्यकता पर विचार किए जाने की आवश्यकता है ।

      भारत के संविधान में धर्म की स्वतंत्रता के साथ-साथ धर्म के प्रचार की भी स्वतंत्रता प्रदान की गयी है । इस प्रचार की स्वतंत्रता ने ही धर्म को एक वस्तु बना दिया है । धर्म अब आयात किया जाता है, धर्म के नाम पर अरबों रुपये ख़र्च किये जाते हैं । धर्म ने अपने मूल अर्थ को खो दिया है और अब वह व्यापार बन चुका है ।
      मैं यह बात कभी समझ नहीं सका कि जिस धार्मिक स्वतंत्रा के कारण देश और समाज का अस्तित्व संकटपूर्ण हो गया हो उसे संविधान में बनाये रखने की क्या विवशता है ? क्या धार्मिक स्वतंत्रा को पुनः परिभाषित किये जाने की आवश्यकता नहीं है ? क्या धार्मिक स्वतंत्रता की सीमायें तय किये जाने की आवश्यकता नहीं है ? हम यह मानते हैं कि जो विचार या जो कार्य समाज और देश के लिये अहितकारी हो उसे प्रतिबन्धित कर दिया जाना चाहिये । मनुष्यता और राष्ट्र से बढ़कर और कुछ भी नहीं हो सकता । परस्पर विरोधी सिद्धांतों और विचारों को अस्तित्व में बनाये रखने की स्वतंत्रता का सामाजिक और वैज्ञानिक कारण कुछ भी नहीं हो सकता । ऐसी स्वतंत्रता केवल राजनीतिक शिथिलता और असमर्थता का ही परिणाम हो सकती है ।

     बहुत से बुद्धिजीवी सभी धर्मों के प्रति एक तुष्टिकरण का भाव रखते हैं यह उनकी सदाशयता हो सकती है और छल भी । हम उन सभी बुद्धिजीवियों से यह जानना चाहते हैं कि यदि सभी धर्म मनुष्यता का कल्याण करने वाले हैं तो फिर उन्हें लेकर यह अंतरविरोध क्यों है? सारे धर्म एक साथ मिलकर मानव का कल्याण क्यों नहीं करते ? धर्म को लेकर ये अलग-अलग खेमे क्यों हैं ? ये एक ही लक्ष्य के लिये पृथक-पृथक मार्गों की संस्तुति क्यों करते हैं ?  कोई भी वैज्ञानिक सिद्धांत एक प्रकार के लक्ष्य के लिये विभिन्न मार्गों की संस्तुति नहीं करता तब धर्म के साथ ऐसा क्यों है ?


     आप कह सकते हैं कि धर्म और विज्ञान दो पृथक-पृथक विषय हैं, उन्हें एक साथ रखकर किसी सिद्धांत की व्याख्या नहीं की जा सकती । मेरी सहज बुद्धि यह स्वीकार करने के लिये तैयार नहीं है । विज्ञान से परे कुछ भी नहीं है, धर्म और विज्ञान को पृथक नहीं किया जा सकता । पृथक करने से जो उत्पन्न होगा वह अधर्म ही होगा । 

4 टिप्‍पणियां:

  1. @ जिस धार्मिक स्वतंत्रा के कारण देश और समाज का अस्तित्व संकटपूर्ण हो गया हो उसे संविधान में बनाये रखने की क्या विवशता है ?
    - इस कथन की लेजिटिमेसी को समझना हो तो दो बिन्दुओं पर विचार करना ज़रूरी है:
    1) भारत/अमेरिका से बाहर चीन-पाकिस्तान में घुसकर इसका लिटमास टेस्ट करना पड़ेगा। क्या हिंदुओं को धार्मिक स्वतंत्रता देने से पाकिस्तान और बौद्धों पर दमन रोकने से चीन का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा?
    2) जो व्यक्ति देश का नुकसान चाहता है, क्या उसे सचमुच धर्म/मजहब बदलने की ज़रूरत है? नास्तिक माओवादियों में से कितनों ने हिन्दू धर्म को आधिकारिक तिलांजलि दी है? कितने लोग जानते हैं कि YSR और वेलुपिल्लई प्रभाकरण हिन्दू नहीं ईसाई हैं?
    - मेरे ख्याल में जिस व्यक्ति, परिवार या समुदाय के पास दो जून की रोटी नहीं है, अन्याय की कोई सुनवाई और न्याय की कोई गुंजाइश नहीं है, गिरवी रखने को कुछ नहीं है उसे अपनी आत्मा गिरवी रखकर भी जीवनदान मिलता है तो वह लेता है। आस्था भी तभी टिकती है जब वह टिकाऊ होती है। जब तक हम यह नहीं समझ पाएंगे मेरा-तेरा मज़हब के उलझट्टे से बाहर नहीं निकाल सकते। धार्मिक स्वतन्त्रता एक महान राष्ट्र की आवश्यकता है। कमी है प्रशासन व्यवस्था, न्याय, शिक्षा, ईमानदारी की। उस पर आक्रमण कीजिये। जब तक हम जड़ों में पानी देना छोडकर पट्टियों को देसी घी से चमकाते रहेंगे, मुर्दा होते पेड़ की जान बचाने की कोई सूरत नहीं है।

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    1. अनुराग जी ! चीन और पाकिस्तान की तासीर और संरचना अलग है । ब्रिटेन और आस्ट्रेलिया की भी अलग है । धर्म की जड़ें जितनी अधिक भारत में गहरी रही हैं उतनी अन्यत्र नहीं रहीं । अन्य लोग धर्म की आवश्यकता और स्वरूप को उतना नहीं समझ सकेंगे (शायद) । पाकिस्तान और चीन दमन के पक्षधर हैं । हम दमन की बात नहीं करते अपनी सुरक्षा की बात करते हैं । अख़बार में कभी-कभी पढ़ने को मिलता है कि आस्ट्रेलिया और ब्रिटेन भी अब मज़हबों पर प्रतिबन्ध के बारे में विचार करने को विवश हुये हैं । जब इतनी बात हो रही है तो इज़्रेल की स्थिति को भी सामने रखना होगा । यहूदी बहुल इज़्रेल भी धर्मनिरपेक्ष देश है और आतंकवाद से जूझ रहा है । कुछ मामलों में भारत और इज़्रेल की स्थिति लगभग एक सी प्रतीत होती है । और सच तो यह है कि सच्चे धार्मिक व्यक्ति से किसी को कोई ख़तरा हो ही नहीं सकता । ख़तरनाक तो वे धार्मिक हैं जो अपनी ज़रूरतों के लिये अपनी आत्मा भी गिरवीं रखने के लिये तैयार हो जाते हैं । ऐसे लोग अपनी ज़रूरतों के लिये कुछ भी कर सकते हैं । जब हम धर्म परिवर्तन को प्रतिबन्धित करने की बात करते हैं तो हमारे विचार में ऐसे ही अधार्मिक लोगों की फौज़ हाथ में तलवारें लिये खड़ी दिखायी देती है । आप एक आदर्श स्थिति की बात कर रहे हैं । मैं आदर्श के व्यावहारिक स्वरूप की बात कर रहा हूँ । मूलरूप में वैचारिक विरोध नहीं है .....केवल भीड़ को नियंत्रित करने के तरीके पर मतभेद हो सकता है । मैं मानता हूँ कि भीड़ को किसी भी आदर्श से नियंत्रित नहीं किया जा सकता अन्यथा फिर हर व्यक्ति आत्मनियंत्रित ही होता और किसी भी शासन-प्रशासन की आवश्यकता ही नहीं होती । विनोबा जी ने भी आत्मनियंत्रित समाज की कल्पना की थी । किंतु वह कल्पना आज तक लेश भी क्रियान्वयित हो सकी है क्या ? कल ओवैसी साहब ने धर्मांतरण के विरुद्ध कानून की आवश्यकता से इंकार कर दिया । क्या यह उनके मन के पवित्र कोने सेउपजा कोई सिद्धांत है ? जो लोग 15 मिनट की छूट चाहते हैं हिंदुओं को काट डालने के लिये, जिनकी धार्मिक स्वतंत्रता मन्दिर में घण्टा बजाने से अपहरित हो जाती है, जिन्हें होली और दीपावली पर प्रतिबन्ध लगाने की आवश्यकता ही नहीं महसूस होती अपितु उसे प्रतिबन्धित करने के लिये सरे आम उत्तेजक भाषण देने की आवश्यकता होती है उनसे किस सदाशयता की आशा की जा सकती है ?

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  2. यह कैसे विस्मरण किया जा सकता है कि पाकिस्तान का जन्म हिंदू विरोधी नीति का परिणाम था । पाकिस्तान के जन्म के समय जो भीषण रक्तपात और पैशाचिक यौनाचार हुआ उसके मूल में धार्मिक असहिष्णुता और हिंदुओं के प्रति घृणा थी । पाकिस्तान और बांगलादेश में किया जा रहा हिंदू दमन उसी घृणा का क्रॉनिक स्वरूप है जहाँ हिंदुओं को स्वतंत्रता दिये जाने की आशा नहीं की जा सकती । हमें यह भी ध्यान में रखना होगा कि विभाजनोत्तर भारत में मुसलमानों की संख्या में वृद्धि हुयी है जबकि पाकिस्तान में हिंदुओं की संख्या में भारी कमी आयी है । यह सब इस्लाम के नाम पर ही हो रहा है ।
    हम यह नहीं कहते कि हमें भी पाकिस्तान के पदचिन्हों पर चलने की आवश्यकता है किंतु यह अवश्य कहेंगे कि हमें धार्मिक स्वतंत्रता के स्वरूप और उसकी सीमायें तय करनी होंगी । उदाहरण के लिये हम दुर्गापूजा, सरस्वतीपूजा और गणेशपूजा के समय धार्मिक स्वतंत्रता के नाम पर होने वाली स्वेच्छाचारिता और बुल्लीइंग का विरोध करते हैं । पूजा के नाम पर हमें धार्मिक कर्मकाण्ड का विकृत स्वरूप देखने को मिलता है । यदि समय रहते इसे रोका नहीं गया तो हिंदू समाज को इसका बहुत बड़ा दण्ड भोगना पड़ेगा । इसी तरह इस्लाम के नाम पर होने वाले अमानुषिक कृत्यों का भी विरोध किया जाना चाहिये ।
    आज के समाचार पत्र के अनुसार ईराक के एक शहर “मोसुल” में इस्लामिक स्टेट संगठन ने एक हैण्ड बिल के माध्यम से ग़ैर मुस्लिम महिलाओं और बच्चों को दास बनाने और उनके साथ यौन सम्बन्ध बनाने को वैध घोषित किया है । ईश्वर न करे कभी ऐसी स्थिति से भारत को भी पुनः गुज़रना पड़े । बंगलुरू के एक मुस्लिम इंज़ीनियर मेहदी मसरूर विश्वास के पकड़े जाने के बाद यह प्रमाणित हो गया है कि युवा और शिक्षित मुसलमान भी इस्लामिक स्टेट संगठन के प्रति अपने आकर्षण को रोक नहीं पा रहे हैं । आज इसे हम एक ट्रिवियल मैटर कह कर टाल सकते हैं किंतु ऐसे ही ट्रिवियल मैटर्स किसी दिन विकराल रूप धारण करके प्रकट होते हैं । क्या अब यह किसी को बताने की आवश्यकता है कि भारत आतंकी गतिविधियों का भुक्तभोगी देश है । यह सब इस्लाम के नाम पर होता आ रहा है ।
    अब चीन की बात लेते हैं, कम्युनिस्ट चीन को धर्म से कोई अभिप्राय नहीं है । तिब्बत में चीन का दमन धार्मिक दमन नहीं है, यह उसकी विस्तारवादी हड़प नीति का एक भाग है । चीन तिब्बत जैसा ही व्यवहार अरुणांचल के भी साथ करने का इच्छुक है । चीन का कोई भी दमन धार्मिक नहीं राजनीतिक हुआ करता है, फिर उसकी चपेट में कोई भी क्यो न हो । चीन ने एक लम्बे समय तक अपने यहाँ धर्म को प्रतिबन्धित रखा । ‘धर्म’ चीन के लिये कभी भी एक आवश्यक तत्व नहीं रहा है । धर्म को लेकर चीनियों में इतना आग्रह भी नहीं है । भारत और पाकिस्तान में धर्म एक आवश्यक तत्व है । धार्मिक स्वतंत्रता के विषय में इज़्रेल की स्थिति अपेक्षाकृत कुछ अच्छी है तथापि उसे भी उग्रवाद से जूझना पड़ रहा है ।
    मैंने भारतीय कम्युनिस्टों के साथ एक लम्बा समय व्यतीत किया है । वे किसी धर्म को नहीं मानते किंतु मैंने देखा है कि वे इस्लाम या क्रिश्चियनिटी के प्रति तनिक झुकाव रखते हैं । हो सकता है कि उनका यह झुकाव हिंदू विरोध के कारण हो, हिंदू धर्म का विरोध उन्हें अपनी राजनितिक दृढ़ता के लिये आवश्यक लगता है । इस तरह वे माओवाद, लेनिनवाद और मार्क्सवाद की व्याख्या अच्छी तरह कर पाने में स्वयं को अधिक सक्षम पाते हैं ।
    धर्म के विषय पर भारत को चीन और पाकिस्तान के समकक्ष नहीं रखा जा सकता । जहाँ तक अमेरिका की बात है तो वहाँ हिंदुओं ने उस राष्ट्र के विकास में अपना भरपूर योगदान दिया है, मुझे नहीं पता कि किसी हिंदू संगठन ने वहाँ कभी कोई आतंकवादी घटना की हो । और मैं इस बात को स्पष्टरूप से ...पूरी दृढ़ता से कहना चाहूँगा कि यदि कभी अमेरिका के विकास में कोई हिंदू संगठन अवरोध बनकर खड़ा हो तो उसे तत्काल प्रतिबन्धित कर दिया जाना चाहिये । सौभाग्य से हिंदुओं ने पूरे विश्व में जिस भी देश की धरती पर अपने पैर रखे हैं उसका ऋण उतारने में कभी कोई कोताही नहीं की है । इसीलिये हिंदुओं की स्वीकार्यता पाकिस्तान और बांगलादेश के अतिरिक्त अन्य सभी देशों में है ।

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  3. वास्तव में जिसे हम धर्म कहते हैं वह एक पाखंड है.
    एक चादर ओढी हुई है—जो हमें हमारे ही भय-भ्रमों में
    लपेट लेती है.
    ओशो---धर्म खुले आसमान सा होना चाहिये,
    बहती धार सा होना ही धार्मिकता है.

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टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.