सोलहवीं
शताब्दी तक भारत में शिक्षा की स्थिति और सोच बहुत अच्छी हुआ करती थी । शिक्षा
अधिक व्यावहारिक और गुणवत्तायुक्त तो थी ही सस्ती भी थी जिसके कारण भारतीय
गुरुकुलों और विश्वविद्यालयों ने पूरे विश्व के ज्ञानपिपासुओं को अपनी ओर आकर्षित
करने में स्वर्णिम सफलता प्राप्त की थी । विश्वविद्यालय परम्परा के जनक रहे भारत में
स्वाधीनता के पश्चात् हुयी शैक्षणिक दुर्गति ने भारत को बहुत पीछे धकेल दिया है ।
आज विश्व के शीर्ष दो सौ विश्वविद्यालयों की सूची में भारत का नाम न होना हमारे
पतन का सबसे बड़ा प्रमाण है जो चीख-चीख कर आत्मविश्लेषण और शिक्षा में आमूल
परिवर्तन की माँग करता है ।
अब से
लगभग चार दशक पूर्व विद्यार्थियों के साथ परीक्षा में भेदभाव और भ्रष्टाचार की यदाकदा
घटनायें हुआ करती थीं जो अब भारतीय गुरु-शिष्य संबन्धों में रच-बस गयी सी प्रतीत
होती हैं । तब यौनशोषण की एक्का-दुक्का घटनायें ही हुआ करती थीं जो अब आम हो चली
हैं ।
भारतीय
विद्यालयों में किशोरवय छात्र-छात्राओं द्वारा आत्मदाह के प्रयास और पश्चिमी देशों
में प्राथमिकशाला के बच्चों द्वारा शाला में गोलियाँ चलाने की घटनाओं ने सभ्यता और
संस्कृति की वर्तमान स्थितियों को बारम्बार
रेखांकित किया है । शिक्षकों द्वारा मद्यसेवन कर विद्यालयों में आने की घटनाओं के
लिये बस्तर संभाग कुख्यात होता जा रहा है । जिस समाज में शराब और लड़कियाँ शिक्षकों
की कमज़ोरी बन जायें उस समाज का उत्थान कर सकने का दम किसमें है ? कई विद्यालयों की
स्थिति इतनी शोचनीय है कि उनके शिक्षक भाषा और गणित जैसे विषयों में कक्षा पाँच की
ही परीक्षा पास करने की योग्यता नहीं रखते । हायरसेकेण्ड्री स्तर के भी कई
विद्यालयों में हिंदी के शिक्षकों का हिंदीव्याकरण दयनीय है ।
चालू
दशक में कांकेर जिले के ग्रामीण क्षेत्रों में स्थित कुछ विद्यालयों के यौनशोषक
शिक्षकों के विरुद्ध जन-आन्दोलन किये गये जिनका सर्वाधिक दयनीय पक्ष यह था कि यौनशोषण
करने वाले शिक्षकों के विरुद्ध दण्डात्मक कार्यवाही के रूप में मात्र उनके
स्थानांतरण करने की माँग की जाती रही । स्थानीय
ग्रामीणों की इस माँग का सामाजिक-मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया जाय तो हमारे सामने एक
भयानक चित्र उपस्थित होता है ।
वर्ष 2014
के उत्तरार्ध में कांकेर के भंडारीपारा स्थित प्राथमिक शाला की एक शिक्षिका द्वारा
बच्चों को गन्दी-गन्दी गालियाँ दी गयीं जिसकी शिकायत कलेक्टर से की गयी । बस्तर के
कई छात्रावासों और शालाओं में बच्चियों का यौनशोषण शाला परिवार के ही ज़िम्मेदार लोगों
द्वारा किये जाने की घटनाओं ने गुरु-शिष्य सम्बन्धों को कलंकित किया है । कर्नाटक
में भी इस प्रकार की घटनायें थमने का नाम नहीं ले रहीं हैं । यही स्थिति लगभग पूरे
देश की है जो निश्चित ही एक गम्भीर चिंता का विषय है ।
मेरे
देखते-देखते गुरु-शिष्य परम्परा में नैतिक पतन ने अपना वर्चस्व स्थापित करने में
निर्लज्ज सफलता प्राप्त की है । शिक्षकों की एक बड़ी संख्या अपना सम्मान खो चुकी है
और वे समाजिक हिकारत के पात्र होते जा रहे हैं । मेरा व्यक्तिगत अनुभव रहा है कि कई
निजीस्कूल पालकों के साथ भी दुर्व्यवहार करते हैं जिसके परिणामस्वरूप शिक्षक और
पालक के बीच संवादहीनता की सी स्थिति बनती जा रही है । कई बार शिक्षकों का सामान्य आचरण भी पालकों को
अपमानित और तनावग्रस्त कर देता है ।
शाला
प्रबन्धन के लिये यह विचार करने का विषय ही नहीं है कि होमवर्क का दबाव और
शिक्षकों की प्रताड़ना बच्चों को कितना तनावग्रस्त कर देती है । पढ़ायी में कमज़ोर
बच्चों के लिये शालाओं द्वारा कोई ठोस प्रयास नहीं किये जाते जिसके कारण शिक्षा और
भी व्यापारिक होती जा रही है । शराब, यौनशोषण, छात्र-छात्राओं को दी जाने वाली शारीरिक
प्रताड़ना और शिक्षकों की योग्यता हमारे समाज की ऐसी समस्यायें हैं जिनके कारण पूरा
समाज मुँह दिखाने लायक नहीं रहा । कुछ घटनाओं
में तो छात्राओं के यौनशोषण में शाला की शिक्षिकायें भी न केवल लिप्त रही हैं
अपितु उनके द्वारा इस कार्य में अपने पति या मित्रों को भी सहयोग किया गया है ।
ऐसी निष्ठुर संवेदनहीनता के लिये क्या शासन-प्रसासन और समाज तीनो ही उत्तरदायी
नहीं हैं ?
फ़िलहाल,
समर्थ वर्ग द्वारा किये जा रहे उपायों में
विदेशपलायन प्रमुख है जो भारतीय समाज के स्वास्थ्य के लिये एक और दुर्भाग्यजनक
संकेत है ।
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