लड़की के
लिये उस गीत की एक ही पंक्ति काफी थी घण्टों सपनों में खोये रहने के लिये । सुनने
में यह बात अतिशयोक्ति सी लग सकती है किंतु बात है बिल्कुल सच्ची । जब वह चरवाहा ऊँचे सुर में गाता – हाली-हाली चलऽ
रे कहंरवा सुरज डुबे न दिहऽ ........तो लड़की की आँखें देखने लगतीं कि चार कहाँर
अपने काँधों पर डोली उठाये धूल भरे पाँवों से बटहा-बटहा होते हुये ज़ल्दी-ज़ल्दी चले
जा रहे हैं । बटहा के दोनो ओर पतार होती .....तलवार जैसे पत्तों वाली पतार । वह
डोली को कभी सामने से देखती, कभी पीछे से तो कभी आगे से । पसीने से लथपथ कहाँर
बीच-बीच में काँधा बदलने के लिये एक पल को ठहरते फिर चल पड़ते । सूरज डूबने से पहले
उन्हें दुलहन को सुरक्षित पहुँचाना है उसकी ससुराल । लड़की सपनों में खोये-खोये
देखती कि रास्ते में हर कोस पर वे सुस्ताने के लिये ठहरते ....डोली ज़मीन पर उतारते
फिर तनिक दूर बैठकर चिलम भरते ....दो-दो फूँक मारकर वे फिर चल पड़ते । चलने से पहले
अधेड़ कहाँर डोली की ओर मुँह करके दुलहन से पूछता – पियास तऽ न लागल बा नू
.....लागी तऽ बऽतइहऽ ...पनिया ला देब ....।
लड़की
बन्द डोली के अन्दर गठरी बनी बैठी दुलहनिया को भी अपनी आँखों से देख सकती थी
....यहाँ तक कि दुलहन की उम्र, उसका रंग और उसकी साड़ी भी । उसकी दिव्य आँखें बहुत
कुछ देख सकती थीं । उसका जब मन होता तो वह
दुलहन से हँस कर बात भी कर लेती और ठिठोली भी ।
लड़की ने
अपने गाँव के कहाँर के बरामदे में दीवाल पर बड़ी सी खूँटियों पर डोली को अलग-अलग
हिस्सों में टंगे हुये देखा था । कहाँर अब सेठ हो गया था और डोली की प्रथा अब केवल
गीतों में ही रह गयी थी इसलिये दुलहन की डोली अतीत के किस्सों में समा चुकी थी ।
लड़की
सोचती, काश ! ज़माना थोड़ा सा पलट जाता तो वह डोली में बैठकर ससुराल जा पाती । उसकी
बुआ ने बताया था कि वह सत्रह कोस दूर अपनी ससुराल गयी थी डोली में, वह भी एक बार
नहीं दो-दो बार । एक बार शादी के बाद गौने में, फिर एक बार रौने में । अब तो
गौना-रौना सब सिरा गया ....कल को कहीं ब्याह भी न सिरा जाय । वह हँस पड़ती
....ब्याह भी सिरा जायेगा तो फिर क्या होगा ?
चरवाहे
के सुर में कुछ ऐसा था कि कल्पना में खोये-खोये लड़की की आँख़ें भींग जातीं । गीत के
ये बोल - हाली-हाली चलऽ रे कहंरवा सुरज डुबे न दिहऽ ........ लड़की को न जाने कितने
भाव दे जाते ।
लड़की अब
बड़ी हो गयी है, गाँव के लड़के उसे लक्ष्य कर गाना गाने लगे हैं – गोरकी पतरकी रे
मारे गुलेलवा जियरा उड़ि-उड़ि जाय ......। घर वालों को उसके हाथ पीले करने की चिंता
सताने लगी है ....और लड़की है कि आज फिर जामुन पर चढ़ते समय सलवार फ़ाड़ लायी । दादी
को उसकी इन मर्दानी हरकतों से चिंता होने लगती । दादी अपनी चिंता से अपने बेटे को
अवगत करातीं, कहतीं - लड़की में अभी तक बचपना है, पता नहीं कब सयानी होगी । बेटा
बात को हवामें उड़ा देता, कहता – अरे अम्मा आजकल तो लड़कियाँ अंतरीक्ष की सैर कर रही
हैं, अपनी बिटिया तो केवल आम-जामुन पर ही चढ़ती है ।
आख़िर एक
दिन लड़की के भी हाथ पीले हो गये । वह भी ससुराल गयी ....लेकिन डोली का सपना पूरा
नहीं हो सका उसका । देवरिया से मुम्बई तक कोई डोली से जा सकता है भला ! लड़की का
सपना चूर-चूर हो गया ...न धूल भरा बटहा ....न कहीं तालाब ...न कहीं गन्ने के खेत
.....न कहीं पतार ....। रास्ते में पानी के लिये पूछने वाला कोई कहाँर भी नहीं ।
ट्रेन में थर्मस आगे बढ़ाते हुये लड़के ने ज़रूर पूछा था – पानी ? लेकिन इस पूछने और
कहाँर के पूछने में फ़र्क है । लड़की के सपने चूर-चूर होते जा रहे थे ।
लड़की को
मुम्बई में तनिक भी अच्छा नहीं लगा । बनावटी ज़िन्दगी में उलझे लोग ..... भागम-भाग
करते लोग ....। किसी के पास तनिक भी वक्त नहीं होता था । लड़की का दुल्हा एक निम्न
मध्यम वर्गीय परिवार से था जो न पूरी तरह आधुनिक था और न पूरी तरह पुरातन । लड़की
को गुरू जी की बात याद आयी, वे कहते थे कि समाज का यह वर्ग बड़ा ख़तरनाक होता है ।
लड़का जब
फेरी लगाने चला जाता और लड़की को घर के कामकाज से तनिक फुर्सत मिल पाती तो उसके
कानों में चरवाहे का गीत जीवंत हो उठता .....बिल्कुल ताज़े-ताज़े ...जीवंत सुर, गोया
चरवाहा यहीं कहीं गा रहा हो - हाली-हाली चलऽ रे कहंरवा सुरज डुबे न दिहऽ ....।
लड़की का मन मचल उठता कि वह भाग कर चली जाय अपने गाँव ....जा कर कहे चरवाहे से कि
हाँ अब गाओ ....।
लड़की
सपनों में खो जाना चाहती थी, बस्स इतनी सी ही चाहत ......सपनों में खो जाने की
चाहत । सास की चाहत लड़की की चाहत से बड़ी थी .....इतनी बड़ी कि लड़की के बाबू उसे
पूरा नहीं कर सकते थे । सास, जो कभी ख़ुद भी लड़की थी .......दुनियादारी के मुलम्मे
में ज़हरीली हो गयी थी । लड़की में उसके ज़हर को पचाने की ताकत नहीं थी ।
एक दिन
सबने सुना कि रात की लोकल ट्रेन से दोनो वापस लौट रहे थे कि लड़की का पैर फिसल गया
और वह ट्रेन के नीचे आ गयी । नयी बहू की मौत के ऐसे किस्सों पर कोई यकीन नहीं करता
फिर भी भारतीय समाज में ऐसे किस्से गढ़े जाते रहे हैं ...गढ़े जाते रहेंगे । दुनिया
उसी तरह चलती रही ...पहले की तरह .....। हाँ, देवरिया के उस छोटे से गाँव में अब
वह चरवाहा चाह कर भी कोई गीत नहीं गा पाता ।
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