धर्म और
आध्यात्म पर जितना भी विमर्श किया जाय कम ही है । मनुष्य समाज के लिये इन दोनो
विषयों का कितना महत्व है इस पर भी लोगों की राय भिन्न-भिन्न हो सकती है । इनके बीच
लगभग उसी प्रकार का सम्बन्ध है जैसा कि मैटर और इनर्जी के बीच है । ‘धर्म’ व्यक्ति
और समाज की सुव्यवस्था के लिये एक आचरण संहिता है जबकि ‘आध्यात्म’ नितांत
व्यक्तिगत चिंतन है जो व्यक्ति को लौकिक और पारलौकिक जगत के पारस्परिक सम्बन्ध को
समझने की पृष्ठभूमि उपलब्ध करता है । सीधे-सीधे कहें तो ‘धर्म’ समाज से और ‘आध्यात्म’
व्यक्ति से जुड़ा हुआ विषय है ।
भारत में
इन दोनो विषयों पर आर्षचिंतन की स्पष्ट अवधारणा है । महत्वपूर्ण यह है कि भारत में
धर्म पर ईश्वर का कठोर नियंत्रण नहीं होता । समाज के चिंतनशील लोगों द्वारा दीर्घ
अनुभव के परिणामस्वरूप एक सामाजिक आचार संहिता बनायी गयी - धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं, शौचमिन्द्रिय निग्रहः ।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो, दशकं धर्म लक्षणम् ॥ धर्म के ये दस लक्षण उतने ही
व्यावहारिक और सत्य हैं जितना कि गणित । यह आस्था से नहीं ‘निष्ठा’ से जुड़ा विषय
है ; परिवार, समाज, देश और प्राणिमात्र के
प्रति निष्ठा ।
धर्म का
आचरण यहाँ बाध्यता नहीं, किंतु आत्मनियंत्रक तत्व होने के कारण अपेक्षित अवश्य है
। यहाँ स्वयं पर स्वयं के नियंत्रण की अपेक्षा है जिसमें किसी अन्य बाह्य तत्व की
कोई बाध्यता नहीं होती । विश्व का कोई भी विचारवान व्यक्ति इन गुणों को मानवीय
आचरण के लिये प्रशस्त ही स्वीकार करेगा । यह संहिता देश-काल वातावरण की सीमाओं से
परे हर किसी के लिए अनुकरणीय है, इसीलिये इस आचार संहिता को “सनातन” कहा गया ।
पूजा-उपासना का इस सनातन धर्म से कोई लेना-देना नहीं है । वह एक पृथक विषय है और
व्यक्तिगत मान्यताओं एवं आस्थाओं पर निर्भर करता है, इसलिये भारत में पूजा-उपासना
की पद्धतियों में भिन्नतायें देखने को मिलती हैं । भारतीय संदर्भ में पूजा-उपासना
आध्यात्मिक चिंतन की एक साधना के रूप में ग्राह्य है ।
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