मैं ईश्वर
को हाज़िर-नाज़िर मान कर स्वीकार करता हूँ कि यह एक ‘मिष्टी प्रेमेर कोथा’ नहीं है,
कम से कम उस लड़के की दृष्टि में तो बिल्कुल भी नहीं जो अब इतना बड़ा हो गया है कि
लोगों ने उसे लड़का कहना बन्द कर दिया है । वह बात अलग है कि उसके बाबू जी की
दृष्टि में वह अभी भी लड़का ही है । आज मैं एक ऐसे लड़के की कथा कह रहा हूँ जो अपनी
गदह-पचीसी की उम्र से गुज़रते वक़्त भी ख़ुद को मानसिक और वैचारिकरूप से पूर्ण वयस्क
मानता है । तो चलिये .....कथा सुनने और देखने के लिये चलते हैं देवभूमि हिमालय की
एक चोटी पर जहाँ से निकलती है भाग-सू नदी ।
पवित्र
भाग-सू नदी जिस चोटी से निकलती है उसके दुर्गम मार्ग पर है शिवा कैफ़े ... यानी
मैक़्लॉडगंज में हिमालय की एक उलझी हुयी जटा के एक छोर पर स्थित हुक्का हाउस । इस हुक्का हाउस में शिव की इतनी ही भूमिका है
कि यहाँ दम-मारो-दम समुदाय के इष्टदेव माने जाने वाले भोले शंकर का एक पत्थर पर
चित्र बना दिया गया है गोया हिमालय की दुर्दशा पर टिली-लिली स्टाइल में शिव को
चिढ़ाने की कोई बदतमीज़ मुहिम का एक हिस्सा हो ।
स्वतंत
विचारों वाली आधुनिक लड़की ने सुना कि वहाँ ...उस चोटी पर एक हुक्का हाउस है तो वह ऊँचाई
की परवाह किये बिना वहाँ तक चढ़ने के लिये मचल उठी । लड़के ने कहा – यार तू दिल्ली में
तो चलने में इत्ते नखरे दिखाती है ...उत्ती ऊँचाई पे चढ़ पायेगी ?
ख़ूबसूरत
लड़की ने इसे चुनौती की तरह स्वीकार किया ...और अपने जनानेपन की तौहीन की प्रतिक्रिया
में गहरी लिपिस्टिक अपने अधरों पर पोतते हुये कई हज़ार बोल्ट वाली नक्सेबाज़ी दिखाते
हुये अपना पर्स उठाया और हिमालय की छाती पर चढ़ने लगी ।
लड़के को
भी लड़की के पीछे-पीछे जाना पड़ा । वे दोनो ‘लिव इन रिलेशनशिप’ के न केवल पैरोकार थे
बल्कि स्वयं भी उसके नित्य अभ्यासी थे । ...यानी एक ऐसा अभ्यास जो योरोप के
अविकसित समाज में एक विवश व्यथा के रूप में प्रचलित हुआ और अब अपनी मुक्ति की
प्रतीक्षा में है ।
लिव इन
रिलेशनशिप के अभ्यास के दौरान आपतित आनन्द के साइड इफ़ेक्ट्स की सम्भावनाओं का
प्रतिकार करने के लिये चिकित्सा विज्ञान उनकी मदद के लिये हमेशा पलक-पाँवड़े बिछाये
रहता था, ..... इसलिये दोनो का जीवन उन्मुक्त था और वे जीवन को भरपूर जीने का
अभ्यास कर रहे थे ।
लड़की
आगे-आगे चढ़ती जा रही थी ...लड़का अर्दली की तरह चिप्स, बिस्किट, थम्स अप ...और न
जाने क्या-क्या अपने पिट्ठू बैग में भर कर पीछे-पीछे अनुसरण कर रहा था । ‘शिवा’ भक्तों द्वारा बिना रास्ते के बनाये
हुये रास्ते पर चढ़ते-चढ़ते लड़की पसीने से तर-ब-तर हो गयी । उसने पीछे मुड़कर चिल्लाते
हुये कहा – कहाँ हो अभी तक ......मुझे प्यास लग रही है ....।
लड़की की
प्यास का कोई अंत नही था .....
लड़का
हाँफता हुआ तेज़ी से चढ़ने लगा । लड़की एक पत्थर पर बैठकर सुस्ताने लगी ।
लड़के ने
बोतल का ढक्कन खोलकर लड़की के आगे पानी पेश किया । लड़की ने गला तर किया .....कुछ
पानी बगावत करके उसके सीने पर भी बिखर गया । सीना जो पहले ही पसीने से तर था ...अब
पानी से और भी तर हो गया । त्वचा से चिपक गये कपड़ों ने लड़के को जनाने तन की लिपि
पढ़ने में सुविधा प्रदान की । एक्स-रे विज़न की मर्दानी भेदक क्षमता से लड़की परिचित
थी ....और अभ्यस्त भी, उसे अच्छा लगा । उसने लड़के को छेड़ा – क्या बात है ...अभी से
मण्टो-मण्टो होने लगे ।
लड़की,
शर्म से लाल हो गये लड़के की मर्दानगी पर निहाल हो गयी ।
लड़की ने
अंकल चिप्स का पैकेट खोला ...दोनो ने चिप्स चबाये और फिर उन दोनो पोस्ट ग्रेजुएट
भारतीय नागरिकों ने खाली पैकेट और पानी की बोतल को हिमालय के सीने पर उछाल कर
आनन्द का अनुभव प्राप्त करते हुये आगे की ओर प्रस्थान किया ।
शिवा
कैफ़े पहुँचकर दोनो को बहुत अच्छा लगा । वहाँ अति आधुनिक लड़कों-लड़कियों के समूह थे
जिन्हें देखकर कोई भी एक क्षण में यह बता सकता था कि वे भारतीय हिप्पी संस्कृति के
अनुयायी थे । वे भारतीय अंग्रेजी में बात करते थे, विदेशी कम्पनी के चिप्स चबाते
थे, चीन का चाऊमीन चखते थे, ख़ुश्बूदार धुयें वाला पाकिस्तानी हुक्का सूँघते थे और फ़्रेंच
हाला को प्याले के बिना ही सीधे हलक में छलकाते थे ।
वहाँ
सम्भोग से समाधि की ओर प्रस्थान करने का अभ्यास किये जाने की लोकतांत्रिक स्वतंत्रता
थी जिसके लिये रात्रि में पंचमकार साधना की समुचित व्यवस्था शिखरमूल्य पर उपलब्ध थी
। नवधनाड्य भारतीय परिवारों की उच्च्शिक्षित युवा पीढ़ी वहाँ भाँति-भाँति के आचरण
कर स्वयं को धन्य मानती थी और अपने नश्वर जीवन को सार्थक ।
देवभूमि
हिमालय के वक्ष पर टहलते हुये लड़की ने अपनी आँखों पर चढ़े गहरे रंग वाले ऐनक को
पचहत्तर डिग्री में ऊपर की ओर उठाते हुये अपनी खोपड़ी के बालों पर रख दिया । लड़की
के शरीर में आँखे ही थीं जो अभी तक काँच के आवरण से सचमुच में ढकी थीं, वह भी पूरी
तरह ....अब वे भी नग्न हो चुकी थीं । हिमालय से उतरती भाग-सू नदी ऐसे दृष्यों की
अभ्यस्त हो चुकी थी इसलिये उसने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त किये बिना अपना सूफी संगीत
चालू रखा – कलकल-छलछल, मत छल मत छल .......
सूरज
ढला तो रात साकीबाला की पोशाक पहनकर आ गयी, उसने रोज की तरह देवभूमि हिमालय को एक
गहरे रंग की चादर ओढ़ा दी जिससे वहाँ आये लोगों को मनुष्य योनि में रहते हुये पशुवत्त
आचरण के ज्वार को अपने शिखर तक ले जाने में सुविधा प्राप्त हो सके ।
जब भोर
भयो और सूरज उग आयो ....... तो लड़की ने अलसायी आँखों से ख़ुद को एक अपरिचित लड़के के
पास पड़्यो पायो । परिचित लड़का एक दूसरी अपरिचित लड़की की बाहों में लिपटो पड़्यो
पायो गयो ।
अहा !
श्याम ! रात भर भरतपुर लुट्यो ....... तूने ऐसो रास रच्यो !
रात की
किशोरावस्था में सभी जोड़े अपने-अपने परिचितों के साथ थे .....रात के जवान होते ही
अपरिचित भी परिचित हो गये और जोड़ों ने नव उमंग में नयी अंगड़ाइयाँ भर ली थीं ....एकरसता
को बहुरसता का स्वाद प्राप्त हुआ ।
अलसाये
जोड़े अलग हुये, उठे और चल दिये ... अपने-अपने परिचित साथी के पास .....गोया गंतव्य
पर पहुँचते ही ट्रेन और उस बर्थ से उन्हें कोई मतलब न रहा हो जिस पर वे रात भर चैन
से सोये थे ।
दिल्ली वाली ख़ूबसूरत लड़की अपने परिचित लड़के के पास
आयी और फुसफुसा कर पूछा – सुनो ! मुझे याद नहीं है .......कल मैंने पिल्स ली थी ?
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.