बोको
हरम के आतंकवादी अबू बकर शेख़ू ने ख़ुद को इस्लाम का ख़लीफ़ा घोषित करते हुये पड़ोसी
देश कैमरून को अपना संविधान बदल कर इस्लामिक संविधान लागू करने का हुक्म सुनाया है
जिसकी उदूली करने पर गम्भीर परिणाम भुगतने की चेतावनी दी गयी है । नाइज़ीरिया में
बोको हरम के धार्मिक ज़ेहादी कत्ल-ए-आम करने पर आमादा हैं और छोटी-छोटी बच्चियों को
फ़िदायीन बना रहे हैं यानी पश्चिमी अफ़्रीका धार्मिक ज़ेहाद की आग में जल रहा है
जिसकी लपटें पूरी दुनिया को धार्मिक कट्टरता के विरुद्ध एकजुट होने के लिये ललकार
रही हैं ।
अफ़्रीका
के आतंकियों की धार्मिक आग ने एक नयी शंका को जन्म दे दिया है कि इस्लाम और आतंक
का चोली-दामन का सम्बन्ध जोड़े जाने का आरोप कहीं सही तो नहीं । आख़िर अबू बकर जैसे
लोगों ने ही आज से लगभग एक हजार चार सौ छत्तीस साल पहले अरब से एशिया में घुसकर
ईरान के ज़ोरोअस्ट्रियंस को तलवार की बदौलत इस्लाम के चोंगे में क़ैद कर दिया था । शांतस्वभाव वाले ज़ोरोअस्ट्रियंस को अपनी
मातृभूमि ईरान से भागकर भारत जैसे देशों में शरण लेने के लिये बाध्य होना पड़ा था ।
आज स्वतंत्र भारत और पाकिस्तान में भी स्वयं को इस्लाम का ख़लीफ़ा समझने वाले कुछ
लोग सारी दुनिया के लोगों के दिल-ओ-दिमाग़-ओ-ज़िन्दगी के तौर-तरीके को अपने तरीके से
चलाने के लिये ज़िद पर आमादा हैं । यह ज़िद इतनी संक्रामक होती जा रही है कि पाकिस्तान
अधिकृत कश्मीर के किसी स्कूल की शिक्षिकायें पाँच-छह साल के नादान बच्चों को बड़े
गौरव से आतंकवाद का पाठ पढ़ाते हुये इसका वीडिओ दुनिया के सामने ज़ाहिर कर रही हैं ।
पूरी दुनिया के लोगों में फूलों, स्त्रियों और बच्चों के प्रति जो डिवाइन भाव रहा
है उसे न जाने किस शैतान की नज़र लग गयी है जिसे उतारने के लिये ईश्वरीय शक्ति भी
कमतर पड़ गयी सी लगती है । यहाँ हम जानबूझकर और पूरे होश-ओ-हवास के साथ “अल्लाह की
ताकत” के स्थान पर “ईश्वरीय शक्ति” पद का प्रयोग कर रहे हैं क्योंकि हम नहीं चाहते
कि ज़रा-ज़रा सी बात पर किसी का इस्लाम ख़तरे में पड़ जाय ।
इस बीच
एक नयी ख़बर यह भी आयी है कि फ़्रांस की स्त्रियों ने पुरुषों की बराबरी करते हुये
इस्लामिक ज़ेहाद के लिये अपने मुल्क से बेरुख़ी करते हुये पलायन करना शुरू कर दिया
है । अभी तक यही समझा जा रहा था कि फ़्रांस में हयात जैसी सिरफिरी सिर्फ़ एक ही
स्त्री होगी किंतु यह अनुमान अब पूरी तरह ग़लत साबित हो चुका है । इसका अर्थ यह भी
है कि योरोप में व्यवस्था के विरुद्ध उठने वाली आवाज़ नकारात्मक सोच के हवाले होना
शुरू हो चुकी है । यह योरोप के साथ-साथ पूरे विश्व के लिये भी एक गम्भीर चेतावनी
है ।
इधर भारत
के उत्तरप्रदेश में एक संतसांसद ने हिंदू स्त्रियों को चार-चार बच्चे पैदा करने
वाले अपने संताबंता स्टाइल आह्वान पर खेद प्रकट करते हुये भविष्य में ऐसी
पुनरावृत्ति न करने का वचन दिया है । संत को यह आत्मबोध पार्टी के अध्यक्ष द्वारा
निर्देश दिये जाने के बाद प्राप्त हुआ जिससे हम यह विचार करने के लिये बाध्य हुये
हैं कि संत से भले तो वे हैं जो संत नहीं हैं । भारतीय समाज में संतो का स्थान
बहुत उच्च रहा है, दुर्भाग्य से उस स्थान को विगत कुछ दशकों से राजनीति के खटमल ने
बहुत क्षति पहुँचाई है । हमारा एक स्पष्ट मत है कि राजनीति में आने से पूर्व संतों
को थोड़ा नीचे खिसककर दुनियादारी वाला मात्र एक सामान्य मनुष्य बन जाना चाहिये ।
संतई करते हुये राजनीति करना दोधारी तलवार पर चलना है । संत और सत्ता की जुगलबन्दी
का कल्चर कल्टीवेट किये जाने के लिये अभी उपयुक्त और उर्वर भूमि भारत के समाज में
नहीं है । आख़िर हर व्यक्ति जयप्रकाश नारायण नहीं बन सकता न !
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