आजकल
हमारे देश में ‘योगा’ एवं ‘मंत्रा’ की आँधी चल रही है । हर गली-मोहल्ले में योगा
एवं मंत्रा के स्वयंभू आचार्य शालेय छात्रों का कल्याण करने के परोपकार में लगे
हुये हैं । इन आचार्यों को लोगों के स्वास्थ्य की बहुत चिंता है इसलिये उनके हर
विषय स्वास्थ्य से न केवल स्वतः जुड़ जाते हैं अपितु स्वास्थ्य के अचूक नुस्खे भी
बन जाते हैं ।
अभी तक मैं
शालेय छात्रों के मुंह से “....तरंगा .... बंगा” वाला राष्ट्रगान सुनकर अध्यापकों
से हुयी सम्भाषाओं में प्रायः असफलता का सामना करता रहा हूँ जिसकी
प्रतिक्रियास्वरूप मेरे मन में ऐसे शिक्षकों के प्रति असम्मान का भाव उत्पन्न हुआ
है । ऊपर से इन स्वयम्भू योगाचार्यों और मंत्राचार्यों की ऊटपटाँग हरकतों ने आग
में घी डालने का कार्य किया है । मंत्रों के तीव्र उच्चारण की शक्ति से शरीर के स्वस्थ्य
हो जाने का दावा करने वाले आधुनिक विद्वान संस्कृत के मंत्रों का इतना अशुद्ध
उच्चारण करते हैं कि मेरे जैसे व्यक्ति को वहाँ से चले ही जाने में भलायी नज़र आती
है । ये विद्वान इतने हठी और अहंकारी होते हैं कि किसी की तार्किक बात को भी सुनना
पसन्द नहीं करते । भारतीय समाज में इस तरह का सांस्कृतिक प्रदूषण करने के लिये कौन
उन्हें प्रेरित करता है ? योग और मंत्र के नाम पर किसने इन कुपात्रों को योगाचार्य
का दायित्व सौंप दिया है ?
महर्षि
पतञ्जलि ने कभी यह सोचा भी नहीं होगा कि “योगश्चित्तवृत्ति निरोधः” से प्रारम्भ
होने वाले योग दर्शन के प्रथम सूत्र की धज्जियाँ उड़ाते हुये स्वयंभू आचार्य इसे “पहलवानी
व्यायाम” में रूपांतरित कर देंगे । भारत का योग अब योगा बनकर व्यायाम में
रूपांतरित हो गया है । दिन भर दुकान में व्यवसाय करने वाले आठवीं पास व्यापारियों ने
सुबह-सुबह अंशकालिक योगाचार्य बनकर हमारी आने वाली पीढ़ी के समक्ष योग की शास्त्रोक्त
अवधारणा का संकट उत्पन्न कर दिया है । मैं इन्हें उसी रूप में लेता हूँ जैसे गणेशपूजा,
लक्ष्मीपूजा और सरस्वतीपूजा के सामूहिक समारोहों में इन दैवीय शक्तियों की
ऐसी-तैसी करने के लिये मोहल्ले के गुण्डे पूजा-अर्चना करने के लिये ज़बरन ठेकेदार
बन कर प्रकट हो जाते हैं ।
यह अत्यंत दुःखद है कि भारतीय संस्कृति से खिलवाड़ कर उसे विकृत करने का निरंकुश कार्य पूर्ण महिमामण्डन के साथ चल रहा है और हम कुछ कर पाने में स्वयं को असमर्थ पा रहे हैं ।
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