रविवार, 17 अप्रैल 2016

धर्म का आदिम स्वरूप और साम्यवाद –

       
मनुष्य समाज सदैव ही एक सामान्य नियमानुशीलन की अपेक्षा करता रहा है । इसे सामाजिक जीवनशैली कहना अधिक उपयुक्त होगा । वास्तव में इस तरह की सामाजिक जीवनशैली का परिष्कृत स्वरूप ही धर्म है । सम्पत्ति, सम्पत्तिअर्जन का माध्यम, स्त्री और मनुष्योपयोगी प्राकृतिक संसाधनों को व्यवस्थित करने की सर्वमान्य आवश्यकता ने धर्मों को जन्म दिया । पहले यह कबीलायी परम्परा व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण भाग हुआ करता था । इसे और भी सशक्त बनाने के लिये लौकिक आस्थाओं का सहारा लिया गया । और धरती पर मनुष्य के समाजधर्म का अस्तित्व सामने आया ।
पश्चिमी देशों में सम्पत्ति, स्त्री और संसाधनों के बारे में कभी सर्वमान्य और सार्वभौमिक व्यवस्था नहीं बन सकी । इसके कारण पश्चिम में कई धार्मिक और क्रांतिकारी युद्ध हुये और कुछ नये धर्म अस्तित्व में आये । पश्चिम में दासों और स्त्रियों को समान अधिकार नहीं थे और उन्हें प्रायः उपभोग सामग्री के रूप में देखा जाता था । कालांतर में हुये समाजसुधार आन्दोलनों से दासप्रथा का अंत हुआ और स्त्रियों को सम्मानजनक स्थान दिलाने की दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किये गये । आज दासप्रथा नहीं हैं उसका स्थान बंधुआ श्रमिकों ने ले लिया है । श्रमशोषण के नये-नये तरीके अस्तित्व में आ गये हैं और स्त्रियाँ का सम्मान आज भी छींके पर टंगी मक्खन की हांडी बना हुआ है । इन अव्यवस्थाओं ने साम्यवाद की अवधारणा को जन्म दिया और श्रमिकों एवं स्त्रियों के अधिकारों के लिये नये सिरे से चिंतन किया जाना लगा । कुछ क्रांतियों के बाद यह चिंतन रंग लाया, कुछ देशों में साम्यवादी व्यवस्था अस्तित्व में आयी किंतु कई देशों में यह व्यवस्था ज़ल्दी ही धराशायी भी हो गयी । कभी धर्म को अफीम मानने वाला साम्यवाद आज भारत में व्यक्तिगत स्वतंत्रता को स्वच्छन्दता और निरंकुशता का पर्याय मानने लगा है और वैश्विक समाज, वैश्विक संस्कृति एवं वैश्विक शासन के सपनों में आत्ममुग्ध रहने लगा है । धर्म को पाखण्ड और अनावश्यक मानने के कारण साम्यवादी कामरेड स्त्रियों ने स्त्री-पुरुष सम्बन्धों की नये सिरे से व्याख्या करनी शुरू की और लैंगिक मर्यादाओं को तोड़ते हुये काम सम्बन्धी गुह्यक्षणों के सार्वजनिक प्रदर्शनों में अपनी आस्था को दृढ़ किया । स्त्री-पुरुष सम्बन्धों की नयी परिभाषा ने भारतीय समाज में कामोच्छ्रंखलता को जन्म दिया । भारत में उग्रसाम्यवाद का यह सांस्कृतिक आक्रमण है जो हर प्रकार की  वर्जनाओं को तोड़ने में विश्वास रखता है ।
जे.एन.यू. की ज्ञानपरम्परा में अध्यापक और छात्र स्थापित सत्य का विरोध करना शिक्षणशैली का अत्यावश्यक अंग मानने लगे हैं । वे ज्ञातसत्य का खण्डन कर अज्ञात सत्य को पाने के लिये अपनी विशिष्ट शिक्षणशैली को आवश्यक मानते हैं । बौद्धिकता का यह उग्र और विद्रोही स्वरूप है जो वर्जनाओं को तोड़ने में विश्वास रखता है और अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये छल, अपमानजनक कटाक्षों, मिथ्या दुष्प्रचारों और क्रूरहिंसा का सहारा लेने में लेश भी संकोच नहीं करता । यह वह वर्ग है जो अपनी फटी झोली का प्रदर्शन कर पूरे विश्व की सहानुभूति अर्जित करता है ताकि अपनी झोली में सोने के पैबन्द लगा सके । अभी तक जो देखा गया है उसके अनुसार इस वर्ग का भी अंतिम लक्ष्य सत्ता और ऐश्वर्योपभोग ही रहा है । भारतीय साम्यवादी नेताओं की जीवनशैली इसका साक्षात प्रमाण है ।

भारतीय उपमहाद्वीप में राजनैतिक संक्रांतिकाल चल रहा है । पूँजीवादी शक्तियों और साम्यवादी पूँजीवाद के मध्य अप्रिय टकराव की स्थितियाँ निर्मित हो रही हैं । जनता को तटस्थ रहने के स्थान पर अपनी सक्रिय भूमिका सुनिश्चित् करने की आवश्यकता है ताकि एक अपेक्षाकृत निरापद शासनप्रणाली को अस्तित्व में लाया जा सके ।  

3 टिप्‍पणियां:

  1. जे.एन.यू. की ज्ञानपरम्परा में अध्यापक और छात्र स्थापित सत्य का विरोध करना शिक्षणशैली का अत्यावश्यक अंग मानने लगे हैं । वे ज्ञातसत्य का खण्डन कर अज्ञात सत्य को पाने के लिये अपनी विशिष्ट शिक्षणशैली को आवश्यक मानते हैं । बौद्धिकता का यह उग्र और विद्रोही स्वरूप है जो वर्जनाओं को तोड़ने में विश्वास रखता है और अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये छल, अपमानजनक कटाक्षों, मिथ्या दुष्प्रचारों और क्रूरहिंसा का सहारा लेने में लेश भी संकोच नहीं करता । यह वह वर्ग है जो अपनी फटी झोली का प्रदर्शन कर पूरे विश्व की सहानुभूति अर्जित करता है ताकि अपनी झोली में सोने के पैबन्द लगा सके । अभी तक जो देखा गया है उसके अनुसार इस वर्ग का भी अंतिम लक्ष्य सत्ता और ऐश्वर्योपभोग ही रहा है । भारतीय साम्यवादी नेताओं की जीवनशैली इसका साक्षात प्रमाण है ।

    बहुत सही।

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    1. वे स्थापित सत्य के विरुद्ध उठकर खड़े हो गये हैं और हम स्थापित सत्य के पक्ष में अपने विचार रखने में भयभीत हो रहे हैं ... इस डर से कि कहीं हमें नौकरी से न निकाल दिया जाय । विचित्र स्थिति है भारतीय बुद्धिजीवियों की । वे झूठ के पक्ष में खड़े हो सकते हैं किंतु सत्य के पक्ष में खड़े होने में उन्हें भय लगता है ।

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टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.