गुरुवार, 19 अगस्त 2021

अफ़गानियों की ग़ुलामी की जंजीर

 जब इमरान ख़ान जैसा महान आदमी यह कहता है कि तलिबान ने अफगानिस्तान की जनता को अफगानिस्तान की गुलामी की जंजीरों से आज़ाद करके महान कार्य किया है तो इमरान को संयुक्त राष्ट्र संघ का आजीवन मालिक बना देने का मन होता है । अफगानिस्तान में तालिबानियों ने जिस “शांतिप्रिय तरीके से” रॉकेट लॉन्चर और गन से तबाही मचाते हुये अफ़गानिस्तान को अफगानिस्तान से आज़ाद कर दिया वह बेशक काबिल-ए-तारीफ़ है । काबुल हवाई हड्डे के रन-वे पर भागते अमेरिकी हवाई जहाज पर लटके हुये लोग अफगानिस्तान की आज़ादी की ख़ुशी में ज़श्न मनाने अमेरिका भाग जाने की हड़बड़ाहट में हैं । काबुल के घरों में अधेड़ तालिबानियों ने शरीया का पालन करते हुये शांतिप्रिय तरीके से तलाशी में बरामद होने वाली बच्चियों को उनकी अम्मियों से छिना कर उठा लिया है, शांति के इस आलम में ख़ुशी के मारे किशोर बच्चियाँ और उनकी अम्मियाँ चीख-चीख कर रो रही हैं जिससे काबुल में ज़न्नत जैसा माहौल बन गया है ।  

इस बीच यूएई से अशरफ़ गनी का वक्तव्य आया है कि वे अपनी “जान बचाने के लिये भागे” ...अपने देश की रहनुमाई की ज़िम्मेदारियों को छोड़कर अपनी जान बचाने के लिये पूरे देश के लोगों की जान को भाड़ में झोंककर भागे । इसलिये भागे कि काबुल में तालिबानी ख़ून-ख़राबा न करें, अपनी प्रजा की जान बचाने के लिये भागे । युद्ध के मैदान से राजा और सेनापति पीठ दिखाकर भाग खड़े हों तो सेना का क्या हश्र होता है, यह जानने के लिये इतिहास के मात्र एक-दो पृष्ठ पलटना ही पर्याप्त है । किसी देश का राष्ट्रपति इतना कमजोर होता है कि उसकी उपस्थिति के कारण उसकी जनता का कत्ले-आम शुरू हो जाय! सरदार की उपस्थिति के अभाव में तालिबानी ख़ून-ख़राबा नहीं करेंगे, यह बहुत ही क़माल का तर्क है !

भारत के लोगों को इस बात पर बिल्कुल भी शर्मिंदा नहीं होना चाहिये कि किसी समय इमरान ख़ान जैसा महान आदमी हमारे देश की धरती पर क्रिकेट खेलने आया करता था । इमरान से चार कदम आगे चलते हुये भारत के इस्लामिक स्कॉलर्स, एक्टिविस्ट, चिंतक और नेता मानते हैं कि शांतिप्रिय तालिबानियों को बदनाम करने के लिये बुरकानशीन औरतों को कोड़े लगाते हुये, बच्चियों को ज़बरन उनकी अम्मियों से छीन कर घसीटते हुये अपने साथ ले जाने, और काबुल हवाई अड्डे पर निहत्थे लोगों पर एके सैंतालीस से गोलियाँ बरसाने जैसे दृश्यों वाले नकली वीडियो प्रसारित किये जा रहे हैं, ऐसे वीडियोज़ की कोई प्रामाणिकता नहीं है । सपा के शफ़ीकुर्रहमान और पीस पार्टी के टर्मोइल पसंद नेता शादाब चौहान का मानना है कि “तालिबानी फ़ाइटर्स ऑफ़ फ़्रीडम” हैं जिन्होंने “अफ़गानिस्तान को अफ़गानियों की गुलामी” से आज़ाद करवा दिया है और अब वहाँ एहकाम-ए-इलाही निज़ाम-ए-मुस्तफ़ा का राज क़ायम होगा । कश्मीरी एक्टीविस्ट वकार भट्टी ने तालिबान को स्वीकार करते हुये बधाई दी है । आल इण्डिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन के असदुद्दीन ओवेसी जैसे न जाने कितने चर्चित (और दिल्ली, बंगाल एवं यूपी आदि के छिपे हुये बेशुमार) चेहरे मानते हैं कि भारत सरकार को तालिबानियों से बात करनी चाहिये । असदुद्दीन तो धमकी के अंदाज़ में कहते हैं कि “मोदी को तालिबान से बात करनी होगी”। इण्डिया के वकार भट्टी ने उत्साहित होकर भविष्यवाणी कर दी है कि अब पूरी दुनिया में गुलाम-ए-मुस्तफ़ा का राज आयेगा । ज़मात-ए-इस्लामी हिंद के अध्यक्ष सैयद सदातुल्लाह हुसैनी ने भी तालिबानियों को अफगानिस्तान की हुकूमत पर काबिज़ होने को जायज़ ठहराया है । कुल मिलाकर भारत के बहुत से नामचीन मुसलमानों को टीवी पर आने वाली ख़ौफ़नाक तस्वीरों पर यकीन नहीं है और वे इन तस्वीरों और हालातों को सिरे से नकार दे रहे हैं ।  

तालिबानी शांतिप्रिय हैं – इतना बड़ा सच बोलने का दुस्साहस केवल भारत और पाकिस्तान के कुछ मुसलमान ही कर सकते हैं । आज जबकि पूरी दुनिया में अफगानिस्तान को लेकर लोगों में तालिबानियों के विरुद्ध गुस्सा है, भारत और पाकिस्तान के मुसलमानों के वक्तव्य इस बात की सूचना देते हैं कि वे भारत में गज़वा-ए-हिंद का समर्थन ही नहीं करते बल्कि समय आने पर तालिबानियों की तरह हथियार उठाकर शांतिप्रिय बन जाने के लिये भी तैयार हैं ।

टीवी चैनल्स पर वकार भट्टी जैसे लोगों के अमृतबुझे इरादों से दुनिया को रू-ब-रू करवाया जा रहा है लेकिन कश्मीर की याना मीर, पाकिस्तान की मोना आलम और आरजू काज़मी जैसे लोगों के वक्तव्यों की उतनी चर्चा नहीं होती जितनी होनी चाहिये, यही कारण है कि हिंदुओं के मन में भारतीय मुसलमान दहशत के पर्याय बनते जा रहे हैं । एक सवाल अक्सर उठता है कि जब मुस्लिम नेता और चिंतक टीवी पर ज़हर उगलते हैं तो आम मुसलमान ख़ामोश क्यों रहता है? सीएए और एनआरसी के विरोध में मुखर रहने वाली ज़ामिया मिलिया इस्लामिया की छात्रायें आज अफ़गानिस्तान की लड़कियों की दुर्दशा पर ख़ामोश क्यों हैं? भारत का मुसलमान अफगानिस्तान के मुसलमानों की त्रासदी पर ख़ामोश क्यों है? जो मुसलमान मुसलमानों के न हुये वे हिंदुओं के कैसे हो सकते हैं?

बस्तर की रानू शील नाग इस बात से बेहद अ-चिंतित हैं कि यदि भारत के तालिबान समर्थक इस्लामपरस्त कट्टर मुसलमान, जो कि तालिबानियों को मुबारकवाद देते नहीं थक रहे हैं, हिंदुओं के ख़िलाफ़ गज़वा-ए-हिंद के लिये हथियार लेकर उठ खड़े हुये तो क्या भारत भी अगला अफ़गानिस्तान बन जायेगा? उनकी अ-चिंता इसलिये भी है कि जब विश्व की महाशक्तियाँ तालिबानियों को हैवानियत करने से नहीं रोक सकीं और अफगानिस्तान को अकेला छोड़ दिया गया तो इस बात की क्या गारण्टी कि भारत एक साथ तालिबानियों, पाकिस्तानियों और अपने भीतर के कट्टरवादियों का सामना कर सकेगा जबकि हमारे सांसद भी राष्ट्रीय मुद्दों पर कभी एकमत नहीं हो पाते?   

यह अ-चिंता केवल रानू शील नाग की ही नहीं है बल्कि देश भर में, विशेषकर पश्चिम बंगाल, यूपी और दिल्ली में हिंदू-मुस्लिम दंगों के लम्बे इतिहास ने भारत के लोगों को अ-चिंतित कर दिया है । भारत में जहाँ-तहाँ होने वाले वैचारिक बलात्कारों और तालिबानियों के स्वागत वाले बयानों से हिंदू समाज अ-भयभीत है । दुनिया भर के अ-शांतिप्रिय आम नागरिक अफ़गानिस्तान की घटनाओं से अ-चिंतित और अ-दहशत में हैं । किसी को नहीं पता कि ऐसी स्थितियों से निपटने के लिये भारत सरकार के पास क्या उपाय हैं! उधर मोतीहारी वाले मिसिर जी भी इस बात से बेहद अ-नाराज हैं कि भारत के साहित्यकार और बुद्धिजीवी अफ़गान समस्या पर आश्चर्यजनकरूप से अ-ख़ामोश क्यों हैं । हिंदी के साहित्यकार को समसामयिक घटनाओं, और समाज में तेजी से फैलते बौद्धिक प्रदूषण से कोई सरोकार दिखाई नहीं देता । यह ख़ामोशी नहीं शुतुर्मुर्गियाना हरकत है और लेखकीय प्रतिबद्धता से वादा-ख़िलाफ़ी भी जो कालजयी लेखन के लिये अत्यंत प्रशंसनीय और अनुकरणीय है । रानू शील जैसे करोड़ों भारतीयों को वर्तमान हालातों और गज़वा-ए-हिंद जैसी शांतिप्रियता से मुक्ति का कोई समाधान चाहिये तो यह उनकी मर्ज़ी, हम तो फ़िलहाल तालिबानियों के ख़ैर-मक़्दम की बात करने और उनका इस्तक़बाल करने की तैयारियों में व्यस्त हैं । औरतों की आज़ादी की बात करने वाली अरुंधती, स्वरा, बरखा और शेहला जैसी औरतें कहीं दिखाई नहीं दे रहीं, वे दिखतीं तो अफगानी बच्चियों की ख़ुशी में चार चाँद लग जाते ।

चलते-चलते यह बताना आवश्यक है कि यदि मैं रविश कुमार होता तो लिखता – “मोदी ने अफ़गानिस्तान में तीन बिलियन डॉलर खर्च करके भारत के साथ विश्वासघात ही नहीं किया बल्कि मोदी की नीतियों के कारण अफगान सेना ने तालिबानियों के सामने सरेण्डर कर दिया”।  

2 टिप्‍पणियां:

टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.